ऐसा माना जा सकता है कि हमारी पृथ्वी इस सृष्टि में एक अनोखी रचना है.. कम से कम अपने सौर मण्डल में तो है ही। यहाँ पर जीवन की वह अनिवार्यता मौजूद है जो और कहीं नहीं है- पानी! मगर दूसरी तरफ़ हम मनुष्यों की निवास स्थली यह ग्रह की संरचना में कुछ भी अनोखा नहीं है। यह भी उन्ही ९२ तत्वों से मिल कर बना है जिस से कि शेष सृष्टि।
पृथ्वी पर जीवन शुरु होने के बारे में दो सम्भावनाएं सोची जा सकती हैं - एक तो एक बेहद ही सूक्ष्म गणितीय सम्भावना जो विभिन्न तत्वों को सही समय पर एक साथ ले आती है और जिस से जीवन की शुरुआत हो जाती है और दूसरे यह कि यह पूरा संसार ऐसे नियमों से संचालित है जो अनुकूलता मिलते ही जीवन को जन्म देने के लिए प्रतिबद्ध है। ब्रह्माण्ड में सब कहीं पाए जाने वाले ये तत्व खुद ब खुद ऐसी संरचना तैयार करने में समर्थ हैं जिन्हें हम जीवन- प्रक्रिया के अभिन्न अंग के रूप में पहचानते हैं।
मज़े की बात ये है कि जीवन के इन पूर्वगामी तत्वों को किसी पृथ्वी जैसे ग्रह की भी ज़रूरत नहीं। जीवन निर्माण के यह मौलिक पिण्ड पूरे ब्रह्माण्ड में स्टेलर डस्ट के रूप में मौजूद हैं। डी एन ए के अन्दर मौजूद न्यूकिलाई एसिड, फ़ैटी एसिड्स और अमीनो एसिड जैसी संरचनाएं आप को कहाँ से मिल सकती हैं? पेड़- पौधों और जीव-जन्तुओं के शरीर के कोशिकाओं में.. ऐसा सहज तौर पर समझा जाता है। मगर यही संरचनाएं अगर हमें एक आकाशीय पिण्ड के भग्नावशेष पर मिलें तो?!!?
मर्चिसन ऑस्ट्रेलिया में लगभग ३० वर्ष पहले मिले मीटिरायट पर ऐसे ही प्रमाण मिले हैं। इस तथ्य के साथ अब यह दूसरा तथ्य भी महत्वपूर्ण हो जाता है कि ४.२ से ३.८ बिलियन वर्ष पहले पृथ्वी पर एस्टेरॉयड की बारिश हुई और उसके तुरंत बाद ही जीवन की प्रक्रिया शुरु हो गई। क्या यह महज़ एक संयोग था.. या इस ब्रह्माण्ड का सहज स्वभाव!?
अगर इस मीटिरायट पर मिले अमीनो एसिड्स आदि का स्रोत सचमुच पृथ्वी से बाहर है तो इस का क्या अर्थ है? क्या यह कि पृथ्वी जैसा वातावरण ब्रह्माण्ड में कहीं भी बन जाने पर वहीं पृथ्वी जैसे जीवन की शुरुआत हो जाएगी? या हो चुकी है.. अनन्त ब्रह्माण्डो के अनन्त सौर मण्डलों के अनन्त ग्रहों में समांतर जीवन पल रहा है?
नेट पर टहलते हुए ‘कारगर दिमाग़ की दस आदतें’ पढ़ने को मिलीं. वैसे दिमाग़ी आदते न हों तो ही अच्छा है. इसलिए मुझे शीर्षक से कुछ ऐतराज़ है पर सुझाव बुरे नहीं हैं. मुझे तो काफ़ी ठीक-ठाक लगे.. आप देखें..
१.दिमाग़ का इस्तेमाल करें. रखे-रखे सड़ सकता है, उपयोग से स्वस्थ रहता है.
२. अपने खान-पान का ख्याल करें. वैसे तो दिमाग़ आप के पूरे वजन का केवल २% होता है.. पर २०% ऑक्सीज़न और भोजन का इस्तेमाल करता है.
३. कसरत करें. शारीरिक व्यायाम दिमाग़ को भी स्वस्थ रखता है.
४.चिंता और तनाव से बचें. वे पुराने न्यूरॉन्स की हत्या करते हैं और नए न्यूरॉन्स के बनने में बाधा बनते हैं.
५. नई चुनौतियों से लड़ते रहें. दिमाग़ का यही औचित्य है.
६.’शिक्षा पूरी हो जाने पर भी कुछ न कुछ सीखते रहें, कुछ नया जानते रहें.
७.घूमें फिरें, नई जगहों और नए वातावरण में ढलने और नए फ़ैसले लेते हुए दिमाग़ का इस्तेमाल करें.
८. अपने फ़ैसले, अपनी ग़लतियाँ खुद करें. और उनसे सीखें. दूसरों के हाथ की कठपुतली न बनें.
९. नए दोस्त बनाएं और दोस्तियाँ निभाएं.
१०.हँसे और अपने भीतर के अनोखे हास्यरस को पहचानें.
अगर ये बातें सही हैं तो हमारा दिमाग़ या तो खराब हो चुका है या खराब होने के करीब है. कई बिन्दु हमें पराजित कर मुँह चिढ़ा रहे हैं.. ४ और १० तो कुछ ज़्यादा ही!
पिछले कई दिनों से ब्लॉगिंग से दूर रहा। पूरे एक हफ़्ते.. शुरु के दो चार दिन तो कम से कम देख रहा था कि क्या लिखा जा रहा है.. एक दो टिप्पणियाँ भी करता रहा.. पर तीन चार रोज़ से तो वो भी बंद हो गया। धंधे में लगा हुआ था.. अब अपना धंधा ऐसा है जो ब्लॉगिंग के साथ टकराता है। दोनों में सोचने और लिखने की ज़रूरत पड़ती है.. दस-बारह घंटे लैपटॉप लेकर बैठने के बाद ताज़ादम होने के लिए कुछ ऐसा करने को जी चाहता है जिसमें सोचना और लिखने के विभाग काम न करते हों। इसलिए हफ़्ते भर न कुछ लिख पाया और न ही मित्रों का लिखा पढ़ पाया।
हाँ इस बीच मूँछे बढ़ गईं और चश्मा बदल गया.. ये नया चश्मा फ़्लैशबैक जैसा है.. पर इसमें कुछ एकदम नया है.. पिछले चार-छै महीनों से दूर और पास के चश्मे बदलते-बदलते थक रहा था। तो बाइ-फ़ोकल ले लिया गया.. जी, ये चश्मा बाइ-फ़ोकल है.. पर बिना किसी विभाजन के.. मुझे बताया गया कि इसे प्रोग्रेसिव कहते हैं। थोड़ा मँहगा ज़रूर है.. पर सुविधा जनक है। और सबसे बड़ी बात प्रगतिशील है.. मोदी जी गुजरात में फिर से भारी बहुमत से जीत गए हैं इसका मतलब ये थोड़ी है कि प्रगतिशीलता की दुकान बंद हो गई.. :) चालू है जी.. हम खुद माल खरीद कर प्रसन्न-मन हैं।
आज सुबह एक ज्ञानवर्धक साइट से परिचय हुआ। यहाँ पर मानव शरीर की विभिन्न प्रणालियों के बारे में विस्तृत जानकारी पा सकते हैं। दो चार पन्नों के बाद रजिस्टर करने के लिए कहते हैं.. रुचि बने तो हों जायँ.. मुफ़्त है। पर जानकारिय़ाँ काम की हैं..
रजिस्ट्रेशन फ़ॉर्म में देखा प्रोफ़ेशन के खाने में सिर्फ़ डॉक्टर्स के विकल्प थे.. सिर्फ़ एक अदर था जिस में मैंने अपनी गिनती करवा दी.. बोधि भाई को थोड़ा पढ़ना पड़ेगा कि कौन सा विकल्प चुनें! :)
दिलीप मण्डल ने मेरी पिछली पोस्ट के जवाब में अपने चिट्ठे पर एक नई पोस्ट में बहस को आगे बढ़ाया है.. दिलीप जी! सब से पहले तो मैं आप का धन्यवाद देना चाहूँगा कि आप ने एक स्वस्थ संवाद का रास्ता खोला है। अपने ब्लॉगजगत पर टिप्पणियों की जो संस्कृति है उस पर आप की पैनी नज़र और निष्कर्ष काबिले तारीफ़ हैं। मैं आप की बात से पूरी तरह असहमत नहीं हूँ.. और पूरी तरह सहमत भी नहीं। हमारे चिट्ठों के पाठक वही गिने चुने हैं और बार-बार वही लोग टिप्पणी करते हैं.. और अक्सर सिर्फ़ पीठ थपथपाने ले लिए ही करते हैं.. जिसे कोई पीठ खुजाना भी समझ सकता है; ये बातें सही हैं।
व्यक्ति ने कैसा भी लिखा हो अगर कोई ये कहने वाला मिल जाय कि अच्छा लिखा/ लिखते रहें/ आभार तो लिखने का बल बना रहता है..
आप का डर है कि ये प्रवृत्तियाँ हिन्दी साहित्य की दुनिया की हैं जिसने साहित्य की दुनिया को बरबाद कर रखा है। मैं आप की यह बात भी मान लेता हूँ, बावजूद इसके कि हिन्दी साहित्य की दुनिया को मैं ठीक से नहीं जानता। पर अपने समाज को जानता हूँ जिसमें भाई-भतीजावाद, जुगाड़वाद खूब चलता है। मेरा मानना है कि चूँकि इस बुराई की जड़ हमारे उस समाज में हैं जिस से हम आते हैं तो इस से पूरी तरह बच पाना असम्भव होगा।
अंग्रेज़ी ब्लॉगस की दुनिया में ये प्रवृत्ति इस तीव्रता से नहीं मिलती.. पर मिलती है। अतनु डे के ब्लॉग पर आप उन्ही पाठकों को बार-बार आते हुए देख सकते हैं.. पर वे ‘पीठ नहीं खुजाते’.. बहस करते हैं। फिर हमारे हिन्दी ब्लॉगस की दुनिया में ऐसा क्यों है? इस का विरोध करने से पहले इसे समझा जाय ! मेरे समझ में ये पाठकों की सीमा के चलते हैं.. जो चिट्ठाकार हैं वही पाठक भी हैं। ऐसे लोग बहुत ही कम हैं जो शुद्ध पाठक हैं- जैसे जैसे वे आएंगे.. चिट्ठाकार टिप्पणी पाने के लिए साथी चिट्ठाकारों पर निर्भरता से स्वतंत्र हो जाएगा।
चमचागिरी/ चाटुकारिता गन्दी चीज़ें हैं.. समझदार व्यक्ति इनसे जितना दूर रहे उतना ही वह वास्तविकता के करीब रहेगा। पर दुनिया के सभी लोगों को अपनी तारीफ़ अच्छी लगती है.. यह भी एक वास्तविकता है! ..
इस बारे में समीर लाल जी ने मुम्बई के ब्लॉगर मिलन में बड़ी अच्छी बात बताई। उन्होने बताया कि हिन्दी चिट्ठाकारिता के शुरुआती दिनों में बहुत सारे चिट्ठे सिर्फ़ इसलिए बंद हो गए क्योंकि कोई टिप्पणी नहीं मिली। उन्होने बताया कि खुद अपनी कई पोस्ट को उन्होने कई बार दुबारा चढ़ाया ताकि टिप्पणी आए। अपने भीतर टिप्पणी की ऐसी चाह देखकर उन्हे टिप्पणी के संजीवनी होने का एहसास हुआ और उन्होने घूम-घूम कर उत्साहवर्धक टिप्पणी बाँटना शुरु कर दिया। व्यक्ति ने कैसा भी लिखा हो अगर कोई ये कहने वाला मिल जाय कि अच्छा लिखा/ लिखते रहें/ आभार.. तो लिखने का बल बना रहता है- ऐसा कहा समीर भाई ने। जब कि हिन्दी चिट्ठाकारिता अपने शैशव काल में थी.. ऐसे उत्साहवर्धन की ज़रूरत थी। अब कितनी ज़रूरत है और आगे कितनी ज़रूरत पड़ेगी ये दूसरे सवाल हैं..
सवाल ये भी है कि टिप्पणी क्यों चाहिये हमें या लिखने वाले को? जैसे कवि को श्रोता चाहिये.. गाने वाले को सुनने वाला चाहिये.. अभिनेता को देखने वाला चाहिये.. वैसे ही ब्लॉगर को टिप्पणी करने वाला चाहिये.. मेरे विचार से तो इसे आर्यसत्य मान लिया जाय! चमचागिरी/ चाटुकारिता गन्दी चीज़ें हैं.. समझदार व्यक्ति इनसे जितना दूर रहे उतना ही वह वास्तविकता के करीब रहेगा। पर दुनिया के सभी लोगों को अपनी तारीफ़ अच्छी लगती है.. यह भी एक वास्तविकता है!
मेरे एक मित्र हैं जो सालों तक क्रांतिकारी राजनीति से जुड़े रहे। उनका अपना ब्लॉग भी है। और टिप्पणी के बारे में उनकी राय आप से ज्यादा अलग नहीं है। पहले तो करते नहीं और करते हैं तो साधुवादी टिप्पणी कभी नहीं.. असहमति की अभिव्यक्ति या बहस में योगदान के लिए ही बस। यही साथी अपने चिट्ठे पर टिप्पणी के अभाव में बेचैन हो कर चिट्ठा बंद कर देने जैसे विचार से भी दो चार होने लगते हैं।
मेरी समझ में सामाजिक तौर पर हिन्दी समाज एक हीनग्रंथि से ग्रस्त समाज है.. जिसका आत्मविश्वास झूला हुआ रहता है.. टिप्पणियाँ हमारे आत्मविश्वास का सहारा बनती हैं। जिस दिन हम अपनी इस ग्रंथि से मुक्त हो जाएंगे तो टिप्पणी की हमारी भूख पूरी तरह शांत भले न हो कम ज़रूर हो जाएगी..
पिछले दिनों मैं ने दिलीप मंडल को अपने चिट्ठे पर तमन्ना ज़ाहिर करते हुआ पढ़ा कि हिन्दी में चिट्ठों की संख्या दस हज़ार या कुछ और हो जाय। बड़ी भली ख्वाहिश है.. वे फिर आगे लिखते हैं कि ब्लॉग मिलन बंद होना चाहिये।
"ये निहायत लिजलिजी बात है। शहरी जीवन में अकेलेपन और अपने निरर्थक होने के एहसास को तोड़ने के दूसरे तरीके निकाले जाएं। ब्लॉग एक वर्चुअल मीडियम है। इसमें रियल के घालमेल से कैसे घपले हो रहे हैं, वो हम देख रहे हैं। समान रुचि वाले ब्लॉगर्स नेट से बाहर रियल दुनिया में एक दूसरे के संपर्क में रहें तो किसी को एतराज क्यों होना चाहिए। लेकिन ब्लॉगर्स होना अपने आप में सहमति या समानता का कोई बिंदु नहीं है।"
इसी लेख में ठीक ऊपर आप ने कहा है कि 'ब्लॉगर्स के बीच खूब असहमति हो और खूब झगड़ा हो' और फिर यह बात? बात साफ़ नहीं हो रही कि आप सहमति के पक्षधर हैं या नहीं? और ब्लॉगर होना अपने आप में एक समानता का बिंदु क्यों नहीं है..? या आप की राजनीति कहती है कि मजदूर संगठित हों, किसान संगठित हों, दलित संगठित हो पर ब्लॉगर्स न हो? और ब्लॉगर्स के संगठित होने का जो मंच बन सकता है- ब्लॉगर मिलन- वो न हो?
और क्यों यह शहरी अकेलेपन को दूर करने का छ्द्म उपाय है? अपने ख्यालों की आज़ाद अभिव्यक्ति करते इतने सारे लोग एक दूसरे से मिलें, उन प्रश्नों पर चर्चा करें जिसके बारें में वे सोच रहें हैं और एक दूसरे को साक्षात मनुष्य के रूप में जानें .. इस में क्या ग़लत है? ब्लॉग तो उस साक्षात संवाद का विकल्प है जो वास्तविक जीवन में गायब हो रहा है। इसलिए हम जिसे पढ़ रहे होते हैं उसके बारे में जानने की स्वाभाविक इच्छा उमड़ती है.. जिसकी वजह से हम लोगों का प्रोफ़ाइल देखते-पढ़ते हैं.. और जिनका पढ़ा पसन्द करते हैं उनसे मिलने के लिए उत्सुक रहते है। यह मानवीय व्यवहार है.. ऐसी भावनाओं को छाँट देंगे तो मनुष्य शुष्क वैचारिक मशीन भर रह जाएगा।
मुझे लगता है दिलीप मानवीय व्यवहार के बारे में निर्णय सुनाने में हड़बड़ी कर रहे हैं.. । मेरी समझ में तो मनुष्य सामाजिक प्राणी है जहाँ रहेगा एक समाज बना कर एक दूसरे से जुड़ेगा.. वैचारिक तौर पर भावनात्मक तौर पर। ‘ये हो और ये न हो’ जैसी घोषणाएं कर के हम सिर्फ़ मनुष्य की सम्भावनाओं को सीमित करने कोशिश करते हैं। काँट-छाँट की इसी मानसिकता से सभी दमनकारी विचारधाराएं जन्म लेती हैं!
पूँजीवाद और उपभोक्तावाद के खिलाफ़ जनता की गोलबंदियों के एक नए मंच की जानकारी हुई आज.. फ़्रीगन्स। अंग्रेज़ी दैनिक डी एन ए में इस आन्दोलन के ऊपर एक लेख छपा है। मुख्यतः अमरीका के शहरों में मौजूद इन फ़्रीगन्स का नारा है ‘पूँजीवाद के पार जीवन’।
बड़े-बड़े सुपर मार्केट और मॉल्स के कचरे में से काम की चीज़े निकाल लेने में विश्वास रखते हैं ये लोग। बाहर से देखने वालों को लग सकता है कि ये लोग कचरा बीनने वाली प्रजाति के नंगे-भूखे लोग हैं पर ऐसा है नहीं.. ये पढ़े-लिखे नई सोच से लैस नए ज़माने के लोग हैं.. आने वाला मानव इन से जीवन की सीख ले कर ही आगे बढ़ेगा.. ऐसा मेरा विश्वास है।
आप इस लिंक पर देख सकते हैं एक फ़्रीगन से साक्षात्कार..
फ़ुरसतिया जी मैडोना के बुढ़ापे के डर से हमदर्दी खा के उनसे साथ निभाने का वादा कर रहे हैं। उनके बहाने से हमें मैडोना की प्रति अपनी श्रद्धा की याद हो आई। मैडोना की गिनती भले ही अपने समय की महानतम संगीतज्ञ के रूप में न होती हो.. पर सबसे लोकप्रिय कलाकारों में उनका नाम आएगा ही आएगा। रॉक एंड रोल म्यूज़िक की दुनिया में जहाँ वन सॉन्ग वन्डर टके सेर मिलते हों वहाँ तीन दशक तक अपना दबदबा बनाए रखना कोई अंधा चुक्की नहीं है। वो भी तब्ब जब्ब उनके साथ और बाद में परिदृश्य पर ‘आए, छाए और चले गए’ जैसों की गिनती में माइकेल जैक्सन भी शामिल हों।
मैडोना कोई मामूली औरत नहीं है.. कुछ खास है उनमें। उन्होने अस्सी की दशक में कामुकता को परिभाषित किया और नब्बे के दशक में पुनर्परिभाषित किया। मैडोना ने न सिर्फ़ अपने समय के स्त्री के रूप का न सिर्फ़ प्रतिनिधित्व किया है बल्कि उस का प्रतिमान गढ़ा है.. स्त्री स्वातंत्र्य और अभिव्यक्ति का जीता-जागता स्वरूप हैं वे। उन्होने नए ज़माने की नई औरत का अपने रूप में आविष्कार किया है और फिर-फिर नए रूप में आविष्कार किया है..
अगर पुरानी नज़र से देखा जाय तो उनमें वे सारे तत्व मौजूद है कि उन्हे आधुनिक देवी घोषित किया जा सके.. और होता क्या है देवी होना.. वो हमारे आत्मा में वास करती हैं.. हम उनका नाम जपते हैं.. उनकी मूर्ति लगाते हैं.. उनके नशे में चूर हो कर नाचते हैं..
पुरानी परिभाषाओं से थोड़ा विस्थापन ज़रूर है.. पर आधुनिकता के लिए आप को इतनी ढील देनी होगी.. और अब तो उत्तर आधुनिकता भी चली आई है.. प्लीज़ मेक स्पेस फ़ॉर हर.. एंड वाच हर लवली वीडियो..
Don't tell me to stop Tell the rain not to drop Tell the wind not to blow 'Cause you said so, mmm
Tell the sun not to shine Not to get up this time, no, no Let it fall by the way But don't leave me where I lay down
(Chorus)
Tell me love isn't true It's just something that we do Tell me everything I'm not but please don't tell me to stop
Tell the leaves not to turn But don't ever tell me I'll learn, no, no Take the black off a crow But don't tell me I have to go
Tell the bed not to lay Like the open mouth of a grave, yeah Not to stare up at me Like a calf down on its knees
(chorus)
Tell me love isn't true It's just something that we do Tell me everything I'm not but don't ever tell me to stop
(Chorus)
Don't you everTell me love isn't true It's just something that we do Don't you ever Tell me everything I'm not but don't ever tell me to stop
Don't you ever please don't, please don't, please don't tell me to stop Don't you ever tell me (don't you), ever
Don't ever tell me to stop
Tell the rain not to drop Tell the bed not to lay Like the open mouth of a grave, yeah Not to stare up at me Like a calf down on its knees
अपने पचासवें बरस में चल रही मैडोना अपने फ़िल्ममेकर पति गाय रिची और तीन बच्चों के साथ लन्डन में रहती हैं।
उर्दू पत्र इंक़िलाब के आज के एडीशन में एक खबर है जो न तो मेरे अंग्रेज़ी के अखबार में है और न हिन्दी के अखबार में.. कम से कम आप लोगों की नज़र में आ जाय इसलिए यहाँ छापने की मेहनत कर रहा हूँ.. खबर मुखपृष्ठ पर ऐसे छपी है..
शीर्षक है - 'दहशतगर्दी के खिलाफ़ देवबंद का फ़तवा'.. तस्वीर के बगल के बॉक्स में ये मुख्य बिन्दु छापे हैं-
-एशिया में इस्लामी तालीम के सबसे बड़े मरकज़ ने दहशतगर्दी का मुआज़ना (तुलना) जेहाद से करने से मना कर दिया और कहा: जेहाद का मक़्सद बुराई के खिलाफ़ जंग है जबकि दहशतगर्दी का मक़्सद बेगुनाहों को निशाना बनाना.
-दहशतगर्दी को इन्सानियत के खिलाफ़ ‘क़ाबिले नफ़रत जुर्म’ क़रार दिया और कहा कि इस्लाम तवाज़माना (इंसाफ़ की) जंग में भी बेगुनाहों, इबादतगाहों और तालीमी मरकज़ को निशाना बनाने से मना करता है.
-फ़तवे के मुताबिक़ चन्द शिद्द्त-पसन्द (अत्याचारी) मुसलमानों और इस्लाम को बदनाम कर रहे हैं.
यह फ़तवा मशहूर गीतकार जावेद अख्तर के एक सवाल के जवाब में जारी किया गया. जावेद साहब ने पूछा था कि जेहाद और दहशतगर्दी में क्या फ़र्क़ है?
१८५७ के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के बाद अस्तित्व मे आए दारुल उलूम देवबंद की भूमिका देश की आज़ादी में भी उल्लेखनीय रही है. और आज भी इस स्कूल के छात्रों की संख्या हिन्दुस्तान, पाकिस्तान और कुछ हद तक अफ़्गानिस्तान तक फैली हुई है. इसलिए इस फ़तवे का महत्व दूरगामी और ऐतिहासिक है. अफ़सोस कि देश के हिन्दी और अंग्रेज़ी मीडिया ने इस ज़िक्र के लायक नहीं समझा.
इन्टरनेट और वेब मानव इतिहास का सबसे शक्तिशाली और सबसे अधिक संवादसक्षम मंच है.. दुनिया भर में आम लोग और बड़े-बड़े कॉरपोरेशन्स इसकी शक्ति से आकर्षित हो कर इसकी और खिंच रहे हैं.. कुछ विद्वान लोगों ने अपनी काबलियत और हुनर के योगदान से इसे बनाया और सँवारा है.. हम आप जैसे लोग इसका उपयोग भर ही कर रहे हैं.. मगर कुछ ऐसे भी लोग हैं जो सिर्फ़ और सिर्फ़ इसका भोग करने की नीयत से तालों का और हथकड़ी-बेडि़यों का इस्तेमाल चाहते हैं.. और सरकारें भी उनके हित के अनुकूल क़ानून बनाकर लागू करने में प्रयासरत हैं.. अभी हिन्दुस्तान में चीज़ें उस मकाम तक नहीं पहुँची हैं पर अमरीका, कनाडा और यूरोप में एक संघर्ष शुरु हो चुका है..
मुझे एक वीडियो भी मिला है जो अन्तरजाल पर होने वाले संघर्ष से सम्बन्धित एक कहानी कह रहा है.. देखिये.. और खुद फ़ैसला कीजिये कि आप की क्या राय इस विषय में..
..अपनी जवानी में मैं कभी खुश नहीं रहा.. हमेशा लड़कपन की लतों और आदतों में फँसकर बरबाद रहा.. उमर बढ़ने पर मुझे अपनी गलतियों का एहसास हुआ और दिखने लगा कि मेरा क्या अंत होगा अगर मैंने अपने आप को नहीं सुधारा.. तो मैंने दुनिया से अपने को काट लिया और सोचने लगा कि आदमी के शरीर पर उमर चढ़ने के साथ बेस्वाद क्यों होती जाती है ज़िन्दगी...
क्या आप बता सकते हैं कि इतना सब सोचने के बाद मुझे क्या पता चला? ..यही कि ‘हाँ’ से बेहतर जवाब ‘नहीं’ है..
उस वक्त जब मैं इस संजीदा सवालों से जूझ रहा था तो मैंने अपने सारे पाप निकाल कर मेज़ पर रख दिये..अपने पापों को रखने के लिए मुझे एक काफ़ी बड़ी मेज़ की ज़रूरत पड़ी थी.. मैंने उन सब को ग़ौर से जाँचा, उन्हे तौला, ऊपर नीचे सब कोनों से देखा. फिर अपने आप से पूछा कि कैसे मैंने उन पापों को किया.. मैं कहाँ था, किसके साथ था, जब मैं उन्हे कर रहा था..
मैंने देखा कि जो भी हम करते हैं वो अन्दर या बाहर की किसी आवाज़ के उकसावे पर होता है.. कभी कभी ये आवाज़ अच्छी भी होती हैं मगर ज़्यादातर बुरी, बिल्कुल बुरी.. पाप की आवाज़े होती हैं.. आप समझ रहे हैं न?
अच्छी और बुरी आवाज़ों का अनुपात मेरे ख्याल से.. तीन बुरी पर एक अच्छी.. नहीं और भी कम.. छै बुरी पर एक अच्छी.. और इसीलिए मैंने हर आवाज़ पर ‘हाँ’ कहने के बजाय ‘नहीं’ कहना बेहतर समझा.. मुश्किल था.. कलेजा चाहिये था.. पर किसी तरह कर लिया मैंने.. अब हर सवाल के जवाब में मेरे मुँह से ‘नहीं’ ही निकलता है.. ‘हाँ’ बोले कई साल हो गए..
-फ़्लैन ओ'ब्रायन की किताब थर्ड पुलिसमैन पर आधारित एक टुकड़ा-
स्वामी जी ने अनेको अद्भुत बाते कही हैं मगर सफ़र को नज़र का धोखा कहने की जो चुनौती उन्होने ली है वह सबसे शानदार है..
आदमी के जीवन को स्वामी जी ने बेहद नन्हे-नन्हे ठहरे हुए अनुभवों के एक सिलसिले के बतौर परिभाषित किया है. बताया जाता है कि इस खयाल पर पहुँचने के पहले वे एक पुरानी सिनेमेटोग्राफ़ी रील का मुआइना कर रहे थे. इस प्रस्थान बिंदु से वे जीवन में किसी भी तरह के निरन्तरता या प्रगति की सच्चाई को नकारते हैं. वे ये मानने से इंकार करते हैं कि समय वैसे ही चलता है जैसे कि आम राय है.. और एक स्थान से दूसरे स्थान तक जाने की यात्रा में या आम जीवन में भी जो प्रगति या निरन्तरता का रोज़मर्रा का अनुभव होता है वह सिर्फ़ और सिर्फ़ एक भ्रम है और कुछ नहीं..
अगर कोई व्यक्ति किसी एक बिन्दु ‘क’ पर विश्राम में है और वह किसी दूसरे बिन्दु ‘ख’ पर जा कर विश्राम में होना चाहता है तो ऐसा करने का एक ही तरीका है.. क और ख के बीच के अनगिनत स्थानों पर अनगिनत अन्तरालों पर विश्राम करते हुए ही वह ऐसा कर सकता है..
निरन्तरता के धोखे की जड़ वह मानव मस्तिष्क की अक्षमता में मानते हैं..जो इन अनगिनत विश्रामों के सत्य को देख नहीं पाता.. और उन सबको संगठित रूप में गति का नाम दे देता है.. गति नज़र का एक धोखा है.. और यह बात किसी भी फोटो से सिद्ध की जा सकती है..
-फ़्लैन ओ'ब्रायन की किताब थर्ड पुलिसमैन का एक टुकड़ा-
पिछले दिनों समीर भाई की उड़नतश्तरी मुम्बई में उतरी.. और समीर भाई के साधुवाद का साक्षात दर्शन और आभार प्रदर्शन करने के लिए मुम्बई के सारे ब्लॉगर उमड़ पड़े.. पहले ये आयोजन अनीता जी के घर पर होना था.. जो ठाणे की खाड़ी के उस पार है। मगर आखिरी मौके पर बोधि भाई ने इसे ठाणे की खाड़ी के इसी पार, आरे की झील पर, खींच लिया.. हम इस पर अफ़सोस करते रहे कि अनीता जी हम सब की मेहमाननवाज़ी से और हम सब उनकी मेज़बानी से वंचित हो गए पर अन्दर ही अन्दर हम इस स्थान परिवर्तन से प्रसन्न भी रहे ये जो कि सबसे पास हमारे घर से ही था।
शशि जी ने समीर भाई को ले आने की ज़िम्मेदारी स्वतः उठा ली थी और बखूबी निभाई.. ये अलग बात है कि लोग बाद में देर तक इस पर हैरान होते रहे कि समीर भाई को लाने की ज़िम्मेदारी को उन्होने उठाया कैसे !
मैं तो सबसे पहले पहुँच ही गया था.. मेरे बाद आए अनिल भाई और प्रमोद भाई.. अनिल भाई ने ज़ुल्फ़ें कटवा कर एक नया स्टाइल अपनाया है.. सोचिये वे आप को किस की याद दिला रहे हैं.. समय पर किसी को न आता देख प्रमोद भाई ने फ़ैसला किया कि वे चमकती धूप में नौका विहार का आनन्द लेंगे.. मैं इस आनन्द का पान करने से एकदम पीछे हट गया.. जलराशि मेरे भीतर गहरा डर उपजाती है.. अनिल भाई और प्रमोद भाई ने इस आनन्द में साझेदारी की.. ये बात अलग है कि वे बाद में इसे वे पैर का दर्द का नाम देते रहे.
ये दोनों पुराने मित्र अभी नौकारूढ़ ही थे कि समीर भाई का आगमन हुआ.. उन्हे देख कर लगा ही नहीं कि पहली बार मुलाक़ात हो रही है..लगा किसी पुराने मित्र से बड़े दिनों बाद मिलना हो रहा है.. धीरे-धीरे सभी लोग आ गए.. हर्षवर्धन आ गए.. युनुस के साथ बोधि जी भी आ गए जो काफ़ी देर तक मुझे उल्लू बनाते रहे कि वे नहीं आ पा रहे हैं.. आभा फिर भी नहीं आईं.. ये मलाल रह गया.. समीर भाई अपने कनाडा के जीवन के विषय में बताते रहे.. सब उनके विशाल हृदय कोमल व्यक्तित्व और उदार जीवन मूल्यों के प्रति उत्सुक थे.. बात होती रही.. जब विकास और विमल भाई भी आ गए तो हम ने जगह बदलने की क़वायद की.. दूसरी जगह थोड़ी सी ऊँचाई पर स्थित थी.. इस जगह का नाम रखा गया है छोटा काश्मीर.. डल लेक तो देख ली थी.. अब पहाड़ भी देखने थे.. तो हम चले पहाड़ों की शरण में.. शशि जी ने देर से आने की भरपाई करने का जो वादा किया था वो कचौड़ी/ लिट्टी की शक्ल में झोले से निकाला और प्लास्टिक की प्लेट में सब के आगे वितरित कर दिया.. प्रमोद जी वितरण की इस कृपणता से खुश नहीं रहे.. जिसमें सब के हिस्से एक ही एक लिट्टी आई और जो एक बची हुई थी वो बोधिसत्त्व ने हथिया ली.. बातें जारी थीं.. फिर किसी ने अचानक यह शिकायत की कि समीर भाई के सानिध्य को घंटे भर से ऊपर हुआ जाता है और अभी तक किसी ने साधुवाद नहीं दिया.. यह कहते ही पूरा छोटा काश्मीर साधुवाद के घोष से गूँज उठा.. और वहाँ बैठे सभी लोगों को विश्वास हो गया है कि समीर भाई के रहते साधुवाद के युग का अंत हो ही नहीं सकता.. इसके बाद तमाम असाधुवादी बातों की चर्चा भी हम ने की मगर उन्हे असंसदीय क़रार दिया गया.. और फिर मोमबत्ती की लौ पर हाथ रखकर सबने कसम खाई कि वहाँ मौजूद कोई भी ब्लॉगर अपनी ब्लॉगर मिलन रपट में उन बातों का ज़िक्र नहीं करेगा.. यह अविस्मरणीय तस्वीर भी इसी कारण से सेंसर हो गई..
इस तरह सब की हथेलियों में गरमी आ जाने के बाद लोगों के हाथों में कुछ खुजली से होने लगी.. और सब एक दूसरे की तस्वीर खींचने में व्यस्त हो गए..
भाई हर्षवर्धन की खुजली फिर भी शांत न हुई तो वे हाथ मलते हुए उठे और सबसे हाथ मिला कर विदाई का लग्गा लगाया.. वे विदा हुए फिर मिलने के वादे के बाद.. ये एहसास होते ही कि अब विदाई का क्षण नज़दीक है एक सामूहिक तस्वीर खींची गई..
बाहर निकल कर एक चाय और पी गई और फिर चलते चलते समीर भाई ने बताया कि हो सकता है कनाडा लौटने के पहले एक बार फिर उनकी उड़न तश्तरी यहाँ लैंड करे.. हम इस बात पर उन्हे अनेकों आभार और ढेरों साधुवाद देते हैं.. साधुवाद! साधुवाद!! साधुवाद!!!
(सबसे नीचे की सामूहिक तस्वीर में बाएं से दाएं: अनीताजी, युनुस, समीर भाई, बोधिसत्व, प्रमोद भाई, विकास, अनिल भाई, शशि सिंह और विमल भाई। उसके ठीक ऊपर की तस्वीर में कत्थई कमीज़ में हर्षवर्धन)
मुझे अर्थशास्त्र ज़रा कम समझ में आता है ये हालत तब है जबकि अर्थशास्त्र स्नातक स्तर पर मेरा विषय रह चुका है। पर ये बयान इस विषय पर मेरे अध्ययन के बारे में कुछ नहीं कहता क्योंकि स्नातक की अन्तिम परीक्षा आते-आते शिक्षा व्यवस्था से मेरा विश्वास इतना उठ चुका था कि मैं अपनी उत्तर पत्रिका में पाँच में से साढे तीन सवालों के उत्तर लिख कर आता था। मेरा आकलन था कि वे मुझे पास करने के लिए पर्याप्त होंगे।
मुझे पढ़ाई से कोई चिढ़ नहीं थी.. होती तो मैं आज भी विद्यार्थी न बना रहता। मगर शिक्षा व्यवस्था ने ऐसा विकराल व्यापार फैलाया हुआ था और हुआ है कि मुझे अंक प्राप्त करने के लिए पढ़ने से मुखालफ़त हो गई। मगर अपने निर्मल आनन्द के लिए दुरूह और जटिल विषयों पर मोटी-मोटी पुस्तकें आज भी पढ़ने को तैयार रहता हूँ।
पूँजीवाद की मूल प्रस्थापना है कि आदमी अपने लाभ के लिए काम करता है.. और इसी लाभ का लोभ देकर उसे बढ़िया से बढ़िया काम करने के लिए प्रेरित किया जा सकता है। आज अन्तरजाल पर फ़्री मार्केट के घोर समर्थक ब्लॉगर अमित वर्मा के ब्लॉग के ज़रिये इस पन्ने पर पहुँचा जहाँ एक अर्थशास्त्री टाइलर कोवेन अपनी एक नई पुस्तक के संदर्भ से बेहद दिलचस्प बातें कर रहे है..
प्रश्न: तो क्या ये सच है कि हम ‘बेहद कुशल’ श्रेणी का बहुत सारा कार्य करने के लिए प्रेरित किए जा सकते हैं सिर्फ़ इसलिए क्योंकि वह कार्य मज़ेदार है?
कोवेन: बिलकुल। काफ़ी कुछ विज्ञान का कार्य इसी आधार पर होता है। हाँ ये सच है कि वैज्ञानिको को तनख्वाह मिलती है, मगर वो तनख्वाह उनके आविष्कारों के लिहाज़ से कभी पर्याप्त नहीं होती, जिसके लिए वे मशहूर हो जाते हैं। वे आविष्कार करते हैं क्योंकि उन्हे विज्ञान से प्यार है, या वे मशहूर होना चाहते हैं.. या फिर ये गलती से उनसे हो जाता है। आइनस्टीन कभी कोई रईस आदमी नहीं रहा मगर वो बहुत मेहनत करता था। इसी तरह ब्लॉगिंग भी इसी पुरानी भावना का नया रूप है, लोग बड़े महत्व की चीज़े मुफ़्त में करते हैं..
प्रश्न: तो क्या ज़्यादातर मालिक अपने कर्मचारियों की मेहनत करने की प्राकृतिक प्रेरणा को कुचल देते हैं? और कई दफ़े प्रेरणा के तौर पर वेतन को ज़्यादा ही महत्व देने में कुछ गलती है?
कोवेन: अधिकतर मालिक प्रेरणा के तौर पर पैसे पर कुछ ज़्यादा ही महत्व रखते हैं और आनन्द पर कम। वे ये नहीं सोचते कि कर्मचारीगण अपनी ज़िन्दगी के मालिक स्वयं होने की बात को कितनी शिद्दत से महसूस करते हैं। लेकिन यह एक आम गलती है, और ये इसलिए होती है क्योंकि खुद मालिक नियंत्रक महसूस करने की ज़रूरत से ग्रस्त होता है। मगर यह उल्टा नतीजा देती है और लोग इसके खिलाफ़ विद्रोह कर देते हैं।
अगर आप को यह बातें दिलचस्प लगी हैं तो पूरा साक्षात्कार ज़रूर पढ़े.. यकी़न करें आप का समय खराब नहीं होगा..
किताब के बारे में जानने के लिए चित्र पर क्लिक करें..
जी हाँ.. तेज़ी से बदलते अपने संसार में वास्तविक से आभासी की भूमिका अधिकाधिक बढ़ती जा रही है.. और इसी को ख्याल में रखते हुए एक महाशय ने सत्य के निर्णय का यह सरल समीकरण प्रतिपादित किया है..
जबकि अन्तरजाल पर सत्य की स्थिति ऐसी विकट है कि 'मिजाज़' होता है या 'मिज़ाज' ज़रा इन्टरनेट पर खोज कर देखिये.. दोनों के बराबर मात्रा में उदाहरण मिल जाएंगे.. करते रहिये सत्य का निर्णय..
सत्य के ऐसे पैमानों पर ये एक डेड-पैन ह्यूमर का प्रयास है.. मगर क्या करें.. हम हिन्दुस्तानी गम्भीरता के ऐसे प्रेमी हैं जब तक स्माइली दिखाई न दे.. हर बात को 'सत्य' मान कर चलते हैं.. सत्य की शकल में कोई उपहास या परिहास भी हो सकता है.. यह लचीलापन हमारी आत्मा में बहुधा उपलब्ध नहीं होता..
अभी कल छै दिसम्बर था. मुझे यह तारीख दो कारणों से याद रहती है. एक तो बाबरी मस्जिद को गिराये जाने की बरसी इसी दिन पड़ती है और दूसरे यह तारीख मेरी सास की पुण्यतिथि भी होती है. लेकिन कल मेरी हाउसकीपर सीमा के बच्चे उसके घर पर ही थे, पूछने पर पता चला कि छुट्टी है. मैं सोच में पड़ गया कि कौन सी छुट्टी हो सकती है. मुझे बताया गया कि बाबा साहेब अंबेडकर की बरसी है. मुझे अपने ऊपर थोड़ी कोफ़्त हुई कि ये बात मुझे याद होती थी मगर भूल गया. बाद में जब सीमा आई तो उसने उजली सफ़ेद साड़ी पहनी हुई थी बाबा साहेब के सम्मान में.
शाम को मैं और प्रमोद भाई यूँ ही टहलते हुए आरे में छोटा कश्मीर नामक एक पिकनिक स्थल पर निकल गए तो वहाँ भी हम ने कई परिवारों को छुट्टी मनाते पाया. उनमें से कुछ ने सफ़ेद परिधान धारण किए थे. देश के एक बहुसंख्यक समुदाय के लिए छै दिसम्बर के जो मायने हैं हम (सवर्ण जन) उस से अपरिचित हैं. दिलीप मण्डल आज कल इन्ही मुद्दो पर एक ज़बरदस्त बहस छेड़े हुए हैं.
मगर शिवसेना वाले मेरे मित्र के समर्थक नहीं निकले. ये समझते ही कि डॉक्टर साब उत्तर भारतीय हैं उनके गाल पर एक करारा तमाचा जड़ दिया गया...
पर आज देख रहा हूँ कि हमारा हिन्दी ब्लॉग संसार इतना बड़ा हो गया है कि कल हुई एक दूसरी गरमागरम बहस की हमें कुछ हवा भी नहीं हुई. मैं उस बहस का ज़िक्र कर रहा हूँ जिसके केन्द्र में अनुनाद सिंह है. वो हैरान हैं कि राही मासूम रज़ा बाबरी मस्जिद के गिराए जाने पर खुश क्यों न हुए. उधर भूमण्डलीकरण के खिलाफ़ आवाज़ बुलन्द करने वाले हमारे जुझारु मित्र संजय तिवारी भी कुछ ऐसी ही भावनाओं में उतरा रहे थे. और वे अकेले नहीं हैं जो इस मन्दिर-मस्जिद विवाद के नाम से ही भावुक हो जाते हैं. सर्वप्रिय और अतिसंवेदनशील बड़े भाई ज्ञानदत्त जी भी इस विषय पर अपनी बेबाक राय रखते हैं.
ये आज की स्थिति है.. मुझे याद है १९९२ के साल के उन अन्तिम दिनों में मैं दिल्ली में था. पूरा देश अडवाणी जी की रथयात्रा के चलते एक अनोखे बुखार में तप रहा था. इस बुखार में लोग अपने आम व्यवहार को भूल कर कुछ का कुछ हो जा रहे थे. हमारी मित्र मण्डली में हिन्दू-मुस्लिम सभी तरह के लड़के-लड़कियाँ थे. और हमें इस बात का एहसास भी न था कि कौन हिन्दू और कौन मुस्लिम है. मगर अन्दर-अन्दर भावनाएं और विचार एक भयावह शकल में गड्ड-मड्ड हो चुके थे. एक मौका ऐसा भी आया कि एक सामान्य बातचीत एक ऐसी गन्दी बहस में तब्दील हो गई जिसके अन्त में मेरी एक मुस्लिम सहेली आहत हो कर रोते हुए वहाँ से चली गई. ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था.
सच तो ये है नरसिंहराव ने भाजपा के हाथ से तुरुप का पत्ता गिरवा लिया. जिसकी वजह से आज उनकी हालत ये है कि उनके पास कोई मुद्दा नहीं है...
कड़वी बात कहने वाला मित्र कोई अनपढ़ मूर्ख नहीं ऎम्स में उच्च शिक्षा प्राप्त कर रहा एक डॉक्टर था. उसके चले जाने के बाद बचे हुए दोस्तों में बहस में गरमी और बढ़ गई और होते-होते बात शब्दों से उतर कर हाथ-पैरों तक पहुँच गई. ऐसा भी पहले कभी नहीं हुआ था.
कुछ रोज़ बाद बाबरी मस्जिद गिर गई. दोस्तों से साथ धीरे-धीरे छूट गया. मैं काम की तलाश में मुम्बई आ गया. जब मैं आया तो मुम्बई में पहले दौर के दंगे हो चुके थे और दूसरे दौर के दंगे मेरे आने के बाद हुए. शहर में ज़बरदस्त तनाव रहता. दिन में ये तनाव दोपहर की नमाज़ के वक़्त अपने चरम पर पहुँचता. जब बड़ी संख्या में नमाज़ियों के मस्जिद के आगे जुट जाने से रास्ता जाम हो जाता. शिवसेना ने इसके जवाब में महाआरती का अभियान चलाया हुआ था. दिन का ये तनाव कम होता भी न था कि शाम ढलते ही लोग घर लौटने के लिए हड़बड़ाने लगते. सब तरफ़ शिवसेना के लोग गश्त लगाते रहते.
हम मुम्बई में नए-नए आए थे.. सुनते थे कि मुम्बई में नाइटलाइफ़ होती है. हमारा वह डॉक्टर दोस्त भी उन दिनों मुम्बई में मौजूद था. एक दिन ऐसे ही किसी दोस्ताना जश्न का हिस्सा होने के बाद लौटते हुए हमें शिवसेना के कार्यकर्ताओं ने रोक लिया. डॉक्टर साब ने थोड़ी पी रखी थी और हिन्दू होने के नाते वे शिवसेना के समर्थक भी थे इसलिए निर्भीकता से रिक्शे से उतरे मगर शिवसेना वाले मेरे मित्र के समर्थक नहीं निकले.
ये समझते ही कि डॉक्टर साब उत्तर भारतीय हैं उनके गाल पर एक करारा तमाचा जड़ दिया गया. एक ही झटके में हम सब का नशा हिरन हो गया. हमें छोड़ तो दिया गया मगर उस रोज़ के बाद से मेरे अन्दर हमेशा एक डर सा बना रहता.. अपनी दाढ़ी के चलते मुसलमान समझ लिए जाने का डर. वो दाढ़ी मैंने सिर्फ़ इसी डर के चलते निकाल दी. लेकिन वह डर मुझे हमेशा याद दिलाता रहा कि उन दिनों मुम्बई में सचमुच एक मुसलमान होने का मतलब मन में कैसा भाव पैदा करता होगा..
मस्जिद गिरे और मन्दिर बने, मन्दिर गिरे और मस्जिद बने.. मुझे कोई फ़र्क नहीं पड़ता..
मुम्बई में ही क्यों अडवाणी साहब ने तो पूरे देश को इस डर में डुबो देने की साज़िश की थी. सच तो ये है कि उन्हे मन्दिर बनाने और मस्जिद गिराने में कोई दिलचस्पी नहीं थी. उन्हे सिर्फ़ एक जज़्बाती माहौल बनाने में रुचि थी जिसमें वह अपनी चुनावी फ़सल काट सकें.
वैसे तो मुस्लिम समुदाय नरसिंहराव को अपना बड़ा दुश्मन मानते हैं मगर मुझे कभी-कभी लगने लगता है कि वह आदमी मुस्लिम समुदाय और इस देश का हितचिंतक था. क्योंकि अगर वह बाबरी मस्जिद को बचा लेता.. तो आज भी देश को बार-बार उसी मस्जिद का वास्ता देकर भावनाओं के ज्वार में झोंका जाता और जिस मरगिल्ली हालत में आज भाजपा पहुँच रही है वह नहीं होने पाता. सच तो ये है नरसिंहराव ने भाजपा के हाथ से तुरुप का पत्ता गिरवा लिया. जिसकी वजह से आज उनकी हालत ये है कि उनके पास कोई मुद्दा नहीं है.
कुछ लोग मानते हैं कि मस्जिद गिर जाने से पुरातत्व और विज्ञान के बड़ी हानि हुई. मैं ऐसा नहीं सोचता. मैं भाजपा का विरोधी हूँ इसलिए नहीं कि उन्होने बाबरी मस्जिद गिराई. मस्जिद गिरे और मन्दिर बने, मन्दिर गिरे और मस्जिद बने.. मुझे कोई फ़र्क नहीं पड़ता, मेरी आस्था पर कोई फ़र्क नहीं पड़ता, मेरे भगवान पर कोई फ़र्क नहीं पड़ता. ईंट-पत्थर गारा है.. और क्या है.
पर भाजपा ने अडवाणी के नेतृत्व में इस देश में जो हिन्दुओं और मुसलमानों को एक दूसरे के खिलाफ़ खड़ा किया मुझे उस से परेशानी है. जिस नफ़रत, गुस्से और डर का संचार किया गया मुझे उस से तक़्लीफ़ है. इस बेबात के मुद्दे को लेकर आपसी हिंसा में जो सैकड़ो निर्दोष लोगों का खून बहाया गया मुझे उस से दर्द होता है.
और दर्द इस बात से होता है कि बहुत सारे मित्र धोखे में हैं कि ये मामला राम मन्दिर बनाने का है.. अगर उन्हे मन्दिर बनाना होता तो वो बातचीत के रास्ते से कब का बन गया होता.. पर वे मन्दिर नहीं चाहते, धर्म नहीं चाहते, शांति नहीं चाहते.. वे बातचीत नहीं चाहते.. वे लड़ाई चाहते हैं.. दंगा चाहते हैं.. और मुझे दंगाईयों से परेशानी है..
नोबेल पुरुस्कार विजेता मशहूर लेखक वी एस नइपॉल ने कभी नए लेखकों को अच्छा लिखने के लिए कुछ सूत्र बताए थे, जिसका ज़िक़्र अमित वर्मा ने अपने ब्लॉग पर किया था.. सूत्र कुछ यूँ हैं:
१. लम्बे वाक्य न लिखें. एक वाक्य में दस या बारह से अधिक शब्द नहीं होने चाहिये.
२. हर वाक्य एक सीधा बयान होना चाहिये. पिछले वाक्य में इस वाक्य को कुछ जोड़ना चाहिये. एक अच्छा पैराग्राफ़ सिलसिलेवार बयानों की एक कड़ी है.
३. बड़े शब्द ना इस्तेमाल करें. अगर आप का कॅम्प्यूटर बताता है कि आप का औसत शब्द पाँच अक्षरों से अधिक लम्बा है, तो ठीक नहीं है. छोटे शब्दों का इस्तेमाल आप को आप के विषय के बारे में सोचने को मजबूर करता है. कठिन शब्दों को भी छोटे शब्दों में तोड़ा जा सकता है.
४. ऐसे शब्दों का इस्तेमाल कभी न करें जिनके अर्थ के बारे में आप को पक्का नहीं पता. अगर आप यह नियम तोड़ते हैं तो आप कोई और धंधा तलाश लें.
५. नए लेखक को रंग, मात्रा और अंक को छोड़ विशेषणों के इस्तेमाल से बचना चाहिये. क्रियाविशेषणों का कम से कम इस्तेमाल करें.
६. अमूर्तन से बचें. ठोस बातें करें.
७. कम से कम छै माह तक रोज़ इस तरह लिखने का अभ्यास करें. छोटे शब्द; छोटे, सीधे, ठोस वाक्य. थोड़ा तक़्लीफ़ होगी , पर इस से आप भाषा के उपयोग में अभ्यस्त हो जायेंगे. हो सकता है विश्वविद्यालय में आप ने लेखन की जो बुरी आदतें विकसित कर लीं थीं, उन से भी छुटकारा मिल जाय. एक बार इन नियमों को अच्छी तरह समझ लेने और अधिकार पा लेने के बाद आप इन्हे पार कर आगे बढ़ सकते हैं.
१.एक सम्पूर्ण अजनबी के वक़्त का ऐसे इस्तेमाल करें कि उसे यह न लगे कि समय बरबाद हुआ.
२. अपने पाठक को कम से कम एक ऐसा चरित्र दें जिस के साथ वे जुड़ाव महसूस कर सके.
३. हर चरित्र की कुछ चाहत हो, भले ही वह एक गिलास पानी ही क्यों न हो.
४. हर वाक्य दो में से एक मक़सद ज़रूर पूरा करे- चरित्र को खोले या कहानी को बढ़ाए.
५. कहानी को अन्त के जितने करीब से मुमकिन हो उतने करीब से शुरु करें.
६. पत्थरदिल बनें. आप के चरित्र कितने भी मासूम और अच्छे क्यों न हो, उन्हे भयानक घटनाओं के बीच धकेल दें- ताकि आप के पाठक देख सकें कि वे किस मिट्टी के बने हैं.
७. सिर्फ़ एक व्यक्ति को खुश करने के लिए लिखें. अगर आप खिड़की खोल कर पूरी दुनिया के साथ प्रेम करेंगे, तो आप की कहानी को न्यूमोनिया हो जाएगा. (हमारी परिस्थितियों में लू लगने की भी सम्भावना है)
८. अपने पाठकों को जितनी जल्दी हो सके अधिक से अधिक सूचना दे दें. रहस्य गया तेल लेने. पाठक को पूरी जानकारी होनी चाहिये कि क्या हो रहा है, कहाँ हो रहा है और क्यों हो रहा है और अगर आखिर के कुछ पन्ने कीड़े खा भी जायँ तो पाठक स्वयं कहानी को पूरा कर सकें.
दो सौ साल के अंग्रेज़ो के शासन के दौरान भारत के सांस्कृतिक चरित्र में कई गहरे बदलाव हुए जो आज भी जारी हैं। हम उनकी भाषा बोलते हैं, उनकी तरह कपड़े पहनते हैं, उनके खेल खेलते हैं। हमारा लोकतंत्र, हमारी न्याय व्यवस्था, नौकरशाही, शिक्षा सभी कुछ अंग्रेज़ो के मॉडल पर आधारित है। वास्तव में तो ‘मॉडल पर आधारित’ कहना भी एक रचना प्रक्रिया की भ्रांति देता है.. जबकि हुआ यह कि अंग्रेज़ो द्वारा बनाई संरचना को हम ने बिना किसी छेड़-छाड़ के जस का तस बने रहना दिया और जारी रखा। शायद इसका कारण हमारे नेताओं (राजनैतिक और सांस्कृतिक) के पास किसी वैकल्पिक व्यवस्था के मॉडल का अभाव था।
पुराने सामंती मूल्यों पर आधारित हमारे ग्राम्य समाज का ढाँचा चरमरा कर टूट रहा था पर धराशायी हुआ नहीं था। और अंग्रेज़ो द्वारा लादी गई पूँजीवादी अर्थव्यवस्था अभी आधी-अधूरी अवस्था में थी और कोई शक्ल अख्तियार नहीं कर सकी थी। ऐसे में गाँधी जी जैसे विचारकों का मत था कि हम अंग्रेज़ी मूल्यों को पूरी तरह नकार कर अपने पुराने ढाँचे को पुनः खड़ा करें। पर सत्ता पर का़बिज़ नेहरू को पुराने समय में लौटने में कोई दिलचस्पी नहीं थी.. उनका विचार था कि नया हिन्दुस्तान नए मूल्यों पर ही आधारित होगा। ये नए मूल्य क्या थे और कहाँ से आने वाले थे? आज़ादी के साठ साल बाद हम कितना पुराने मूल्यों से दूर आए हैं और कितना उन नए मूल्यों का विकास कर सके हैं जिनकी चिंता एक समय पर नेहरू और उनके समकालीनों को रही होगी, यह एक अलग चिंता का विषय है।
व्यक्तिगत स्तर पर, निजी स्तर पर पुराने मूल्यों के बरक्स नए मूल्यों का मॉडल कहीं-कहीं भारत के ईसाई समुदाय को भी अनजाने में माना गया। एक स्तर पर तो उन्हे पतित और दुष्चरित्र समझा गया तथा दूसरे स्तर पर उन्हे, अपने घुटन पैदा करने वाले सामाजिक मूल्यों से आज़ादी का पर्याय भी समझा गया। मुम्बई की हिन्दी फ़िल्मों में यह भूमिका क्रिश्चियन सेक्रेटरी के रूप में प्रतिबिम्बित होती है, जो मर्दों की दुनिया में अकेली लड़कियों के बतौर प्रवेश करने का साहस रखती है, स्कर्ट पहनती है, गिटपिट इंगलिश बोलती है, गिटार पर गाने गाती है, डान्स करती है और प्रेम सम्बन्धों में ‘उदार’ रवैया रखती है। उसका नाम होता है बॉबी जूली रोज़ी या मेरी.. एंड शी इज़ अ गुडटाइम गर्ल.. या चालू भाषा में चालू गर्ल। तब के बॉम्बे में इसी लड़की को लोकप्रिय रूप से ‘सैन्ड्रा फ़्रॉम बैन्ड्रा’ का नाम और पहचान दी गई।
फ़िल्ममेकर पारोमिता वोहरा की नई डॉक्यूमेन्टरी ‘व्हेयर इज़ सैन्ड्रा’ पड़ताल करती है इसी मिथक का.. आखिर कौन है यह सैन्ड्रा और क्या है उसकी असलियत। पारो का अपनी इस फ़िल्म के बारे में बयान है..
I searched for a way to explore the stereotype of Christians more gently - through the aspects of fantasy that exist in the idea of the sexy, supposedly available but actually unattainable Christian woman. I've tried to stay away from dismantling stereotypes in the film, tending instead to create my own notion of this figure by taking my own and others' ideas of Sandra, and weaving in Bollywood imagery and interviews with women actually named Sandra living in Bandra.
पारो इस पूरे बदलाव की ऐतिहासिकता में नहीं घुसती, वे अपने आप को सिर्फ़ इस मिथक की परख तक ही सीमित रखती हैं, जिसके बहाने हम बैन्ड्रा के क्रिश्चियन समुदाय के रहन-सहन की एक रूपरेखा देख पाते हैं। ये सीमाएं शायद उनकी फ़ंडिंग एजेन्सीज़ के चरित्र और फ़िल्म की छोटी अवधि के कारण उत्पन्न हुईं होंगी। पर वे ये भी कहती हैं कि.. In a time of so many stereotypes about feminism, more mischievous stories are needed and are being told with greater ease. And the way in which this story is told is an exercise of that sort.
मेरा अपना मानना है कि भले ही पारो को ये मायावी सैन्ड्रा भले ही बैन्ड्रा में कहीं न मिली हो पर आज बदलते हुए हिन्दुस्तान की हर शहरी लड़की के भीतर (मौजूद दूसरे प्रतिमानों के साथ-साथ) एक सैन्ड्रा भी मौजूद है.. अ गर्ल हू जस्ट वान्ट्स टु हैव फ़न!
पारो मेरी पुरानी मित्र हैं और उनकी मेधा से मैं हमेशा प्रभावित रहा हूँ.. यह फ़िल्म अच्छी है पर मेरा मानना है कि पारो इस से कहीं बेहतर करने की सामर्थ्य रखती हैं।
इस फ़िल्म को ऑनलाइन देखने के लिए बाएँ दिख रहे फ़िल्म के पोस्टर पर क्लिक करें.. फ़िल्म की अवधि है अठारह मिनट।
फ़रीद खान मेरे मित्र और सहकर्मी हैं, उन्हे आप इस ब्लॉग पर पहले भी पढ़ चुके हैं..आज सुबह मेल में उनका ये लेख मिला इस नोट के साथ कि अगर प्रासंगिक लगे तो छापिये.. और मैं छाप रहा हूँ।
आरंभ करता हूँ ईश्वर के नाम से जो अत्यंत दयावान और कृपालु है।
(बिस्मिल्लाह इर्रहमानिर्रहीम का हिन्दी अनुवाद)
इस दुनिया में जो भी वुजूद में है, उसके पीछे ख़ुदा की एक मस्लेहत है।
(उर्दू शब्दकोश में मस्लेहत का मतलब हिकमत, पॉलेसी या नीति, ख़ूबी या विशेषता, मुनासिब तजवीज़ या उपयुक्त प्रस्ताव और अच्छा मशवरा दर्ज है।)
मेरा सवाल है आज उस अल्लाह से, जिसकी मैं वन्दना करता हूँ , कि अगर तस्लीमा और सलमान रुश्दी ने इतने ही हानिकारक विचार लिखे हैं तो उन्हें उठा क्यों नहीं लेता ... उन मुस्लमानों को क्यों हत्यारा बना रहा है भाई, जो आवेश में आ कर तलवार लिए तस्लीमा या रुश्दी के पीछे भाग रहे हैं।
लेकिन अल्लाह शब्दों में जवाब नहीं देता ... वह संकेत देता है।
संकेत है - आदम और हव्वा के वजूद में आने के पहले ही इब्लीस (शैतान) द्वारा अल्लाह की नाफ़रमानी करने पर भी अल्लाह ने उसे ख़त्म नहीं किया ... ।
अल्लाह ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर , असहमति पर , मतभेद पर रोक नहीं लगाई। और तो और शैतान ने तो नहीं सुधरने की भी ज़िद कर रखी है फिर भी अल्लाह ने उसे छोड दिया... शैतान ने चुनौती भी दे रखी है अल्लाह को, कि वह उसके बन्दों को बहका कर रहेगा, फिर भी अल्लाह ने उसे छोड दिया।
इब्लीस (शैतान) तक के वुजूद को अल्लाह ने ख़त्म नहीं किया फिर हम इंसान कौन होते हैं उसके काम में दख़ल देने वाले, लठ ले के तस्लीमा के पीछे भागने वाले और सलमान रुश्दी के पीछे तलवार ले कर भागने वाले ?
अचंभा तो इस बात का है कि जिन राजनेताओं को देश और संस्कृति की चिंता नहीं होती वे अचानक धार्मिक भावनाओं के रक्षक क्यों बन जाते हैं।
वह इसलिए कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता (चाहे वह अभिव्यक्ति किसी भी तरह की क्यों ना हो) एक राजनीतिक कदम है। आप इतिहास देख लें .... सूफ़ियों से कितने ही बादशाहों को ख़तरा महसूस होता था ....औरंगज़ेब ने तो मंसूर को कुट्टी कुट्टी कटवा दिया था। नाथूराम गोडसे ने गांधी की आवाज़ को हमेशा हमेशा के लिए बंद कर दिया। सफ़दर हाशमी को कांग्रेसियों ने मौत की नींद सुला दी। मराठी नाटक मी नाथूराम गोडसे बोलतोय पर महाराष्ट्र सरकार ने प्रतिबन्ध लगा दिया। एम एफ़ हुसैन पर बजरंगियों का ख़तरा बना ही हुआ है और ताज़ा तरीन हमला फ़िल्म आजा नच ले पर भी हो गया।
हर कोई विचारधारा, देश हित, धर्म और राष्ट्र के नाम पर मारने और आवाज़ बंद करने को तत्पर बैठा है। सरकार चाहे किसी भी पार्टी की हो , सभी भयभीत होती हैं विचारों से। इसीलिए आम लोगों में उनके जो एजेंट होते हैं वह अपनी भावनाओं को हमेशा अपनी हथेली पर लिए सडकों पर फिरते हैं कि किसी भी चीज़ से उन्हें ठेस पहुंचे और मौलिक अधिकारों से हमारा ध्यान हट कर दोयम दर्जे की चीज़ों पर चला जाये।
यहाँ मारने को हर कोई स्वतंत्र खडा है लेकिन बोलने को कोई नहीं।
कोपरनिकस और गैलेलियो ने जिस तरह से चर्च के ख़िलाफ़ जा कर दुनिया के सामने अपना विचार रखा और आज दुनिया उनकी अहसानमन्द है। उसी तरह ......
अब अभिव्यक्ति के सारे ख़तरे उठाने ही होंगे,
तोडने ही होंगे मठ और गढ सब।