दो सौ साल के अंग्रेज़ो के शासन के दौरान भारत के सांस्कृतिक चरित्र में कई गहरे बदलाव हुए जो आज भी जारी हैं। हम उनकी भाषा बोलते हैं, उनकी तरह कपड़े पहनते हैं, उनके खेल खेलते हैं। हमारा लोकतंत्र, हमारी न्याय व्यवस्था, नौकरशाही, शिक्षा सभी कुछ अंग्रेज़ो के मॉडल पर आधारित है। वास्तव में तो ‘मॉडल पर आधारित’ कहना भी एक रचना प्रक्रिया की भ्रांति देता है.. जबकि हुआ यह कि अंग्रेज़ो द्वारा बनाई संरचना को हम ने बिना किसी छेड़-छाड़ के जस का तस बने रहना दिया और जारी रखा। शायद इसका कारण हमारे नेताओं (राजनैतिक और सांस्कृतिक) के पास किसी वैकल्पिक व्यवस्था के मॉडल का अभाव था।
पुराने सामंती मूल्यों पर आधारित हमारे ग्राम्य समाज का ढाँचा चरमरा कर टूट रहा था पर धराशायी हुआ नहीं था। और अंग्रेज़ो द्वारा लादी गई पूँजीवादी अर्थव्यवस्था अभी आधी-अधूरी अवस्था में थी और कोई शक्ल अख्तियार नहीं कर सकी थी। ऐसे में गाँधी जी जैसे विचारकों का मत था कि हम अंग्रेज़ी मूल्यों को पूरी तरह नकार कर अपने पुराने ढाँचे को पुनः खड़ा करें। पर सत्ता पर का़बिज़ नेहरू को पुराने समय में लौटने में कोई दिलचस्पी नहीं थी.. उनका विचार था कि नया हिन्दुस्तान नए मूल्यों पर ही आधारित होगा। ये नए मूल्य क्या थे और कहाँ से आने वाले थे? आज़ादी के साठ साल बाद हम कितना पुराने मूल्यों से दूर आए हैं और कितना उन नए मूल्यों का विकास कर सके हैं जिनकी चिंता एक समय पर नेहरू और उनके समकालीनों को रही होगी, यह एक अलग चिंता का विषय है।
व्यक्तिगत स्तर पर, निजी स्तर पर पुराने मूल्यों के बरक्स नए मूल्यों का मॉडल कहीं-कहीं भारत के ईसाई समुदाय को भी अनजाने में माना गया। एक स्तर पर तो उन्हे पतित और दुष्चरित्र समझा गया तथा दूसरे स्तर पर उन्हे, अपने घुटन पैदा करने वाले सामाजिक मूल्यों से आज़ादी का पर्याय भी समझा गया। मुम्बई की हिन्दी फ़िल्मों में यह भूमिका क्रिश्चियन सेक्रेटरी के रूप में प्रतिबिम्बित होती है, जो मर्दों की दुनिया में अकेली लड़कियों के बतौर प्रवेश करने का साहस रखती है, स्कर्ट पहनती है, गिटपिट इंगलिश बोलती है, गिटार पर गाने गाती है, डान्स करती है और प्रेम सम्बन्धों में ‘उदार’ रवैया रखती है। उसका नाम होता है बॉबी जूली रोज़ी या मेरी.. एंड शी इज़ अ गुडटाइम गर्ल.. या चालू भाषा में चालू गर्ल। तब के बॉम्बे में इसी लड़की को लोकप्रिय रूप से ‘सैन्ड्रा फ़्रॉम बैन्ड्रा’ का नाम और पहचान दी गई।
फ़िल्ममेकर पारोमिता वोहरा की नई डॉक्यूमेन्टरी ‘व्हेयर इज़ सैन्ड्रा’ पड़ताल करती है इसी मिथक का.. आखिर कौन है यह सैन्ड्रा और क्या है उसकी असलियत। पारो का अपनी इस फ़िल्म के बारे में बयान है..
I searched for a way to explore the stereotype of Christians more gently - through the aspects of fantasy that exist in the idea of the sexy, supposedly available but actually unattainable Christian woman. I've tried to stay away from dismantling stereotypes in the film, tending instead to create my own notion of this figure by taking my own and others' ideas of Sandra, and weaving in Bollywood imagery and interviews with women actually named Sandra living in Bandra.
पारो इस पूरे बदलाव की ऐतिहासिकता में नहीं घुसती, वे अपने आप को सिर्फ़ इस मिथक की परख तक ही सीमित रखती हैं, जिसके बहाने हम बैन्ड्रा के क्रिश्चियन समुदाय के रहन-सहन की एक रूपरेखा देख पाते हैं। ये सीमाएं शायद उनकी फ़ंडिंग एजेन्सीज़ के चरित्र और फ़िल्म की छोटी अवधि के कारण उत्पन्न हुईं होंगी। पर वे ये भी कहती हैं कि.. In a time of so many stereotypes about feminism, more mischievous stories are needed and are being told with greater ease. And the way in which this story is told is an exercise of that sort.
मेरा अपना मानना है कि भले ही पारो को ये मायावी सैन्ड्रा भले ही बैन्ड्रा में कहीं न मिली हो पर आज बदलते हुए हिन्दुस्तान की हर शहरी लड़की के भीतर (मौजूद दूसरे प्रतिमानों के साथ-साथ) एक सैन्ड्रा भी मौजूद है.. अ गर्ल हू जस्ट वान्ट्स टु हैव फ़न!
पारो मेरी पुरानी मित्र हैं और उनकी मेधा से मैं हमेशा प्रभावित रहा हूँ.. यह फ़िल्म अच्छी है पर मेरा मानना है कि पारो इस से कहीं बेहतर करने की सामर्थ्य रखती हैं।
इस फ़िल्म को ऑनलाइन देखने के लिए बाएँ दिख रहे फ़िल्म के पोस्टर पर क्लिक करें.. फ़िल्म की अवधि है अठारह मिनट।
6 टिप्पणियां:
"मेरा अपना मानना है कि भले ही पारो को ये मायावी सैन्ड्रा भले ही बैन्ड्रा में कहीं न मिली हो पर आज बदलते हुए हिन्दुस्तान की हर शहरी लड़की के भीतर (मौजूद दूसरे प्रतिमानों के साथ-साथ) एक सैन्ड्रा भी मौजूद है.. अ गर्ल हू जस्ट वान्ट्स टु हैव फ़न!"
अभय जी मैं आपकी बात से सहमत हूँ. और ये परिणाम है बदलती हुई वैश्विक परिस्थितियों का, बढ़ते हुए ग्लोब्लाईसेशन का पर कुछ अर्थो मे शायद बुरा भी नही है. फ़िल्म अच्छी लगी. बीच-बीच मे नए पुराने हिन्दी गीतों का अच्छा मिश्रण किया गया है.
पारो और आपको बधाई.......लीक से हट कर किया गया काम कभी भी अच्छा ही होता है.....
यह काम भी लीक से हट कर ही है....
अच्छी फिल्म है....पारोमिता बोहरा जी को बधाई....आपको भी एक बढ़ियाँ फिल्म दिखाने के लिए
फिल्म अच्छी लगी । १९८० में हम बम्बई रहने गए । बान्द्रा भी बहुत बार गए । वहाँ की कई यादें इस फिल्म को देखकर ताजा हो गईं व अपने कई क्रिस्चियन मित्र परिवारों की याद आ गई ।
घुघूती बासूती
पारोमिता जी को फिल्म के लिए अच्छा विषय चुनने के लिए और आपको यह फिल्म दिखाने के लिए बधाई...
पुराने का मोह और नए का आकर्षण सदा मन में रहता है. सैंन्ड्रा मोहक भी है और आकर्षक भी है. पानी का बहाव हमेशा आगे को बढ़ता रहता है.... होना भी यही चाहिए..
So darm familier ...!
Good effort by Paromita !
Kudos !!
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