..अपनी जवानी में मैं कभी खुश नहीं रहा.. हमेशा लड़कपन की लतों और आदतों में फँसकर बरबाद रहा.. उमर बढ़ने पर मुझे अपनी गलतियों का एहसास हुआ और दिखने लगा कि मेरा क्या अंत होगा अगर मैंने अपने आप को नहीं सुधारा.. तो मैंने दुनिया से अपने को काट लिया और सोचने लगा कि आदमी के शरीर पर उमर चढ़ने के साथ बेस्वाद क्यों होती जाती है ज़िन्दगी...
क्या आप बता सकते हैं कि इतना सब सोचने के बाद मुझे क्या पता चला? ..यही कि ‘हाँ’ से बेहतर जवाब ‘नहीं’ है..
उस वक्त जब मैं इस संजीदा सवालों से जूझ रहा था तो मैंने अपने सारे पाप निकाल कर मेज़ पर रख दिये..अपने पापों को रखने के लिए मुझे एक काफ़ी बड़ी मेज़ की ज़रूरत पड़ी थी.. मैंने उन सब को ग़ौर से जाँचा, उन्हे तौला, ऊपर नीचे सब कोनों से देखा. फिर अपने आप से पूछा कि कैसे मैंने उन पापों को किया.. मैं कहाँ था, किसके साथ था, जब मैं उन्हे कर रहा था..
मैंने देखा कि जो भी हम करते हैं वो अन्दर या बाहर की किसी आवाज़ के उकसावे पर होता है.. कभी कभी ये आवाज़ अच्छी भी होती हैं मगर ज़्यादातर बुरी, बिल्कुल बुरी.. पाप की आवाज़े होती हैं.. आप समझ रहे हैं न?
अच्छी और बुरी आवाज़ों का अनुपात मेरे ख्याल से.. तीन बुरी पर एक अच्छी.. नहीं और भी कम.. छै बुरी पर एक अच्छी.. और इसीलिए मैंने हर आवाज़ पर ‘हाँ’ कहने के बजाय ‘नहीं’ कहना बेहतर समझा.. मुश्किल था.. कलेजा चाहिये था.. पर किसी तरह कर लिया मैंने.. अब हर सवाल के जवाब में मेरे मुँह से ‘नहीं’ ही निकलता है.. ‘हाँ’ बोले कई साल हो गए..
-फ़्लैन ओ'ब्रायन की किताब थर्ड पुलिसमैन पर आधारित एक टुकड़ा-
7 टिप्पणियां:
सोचना पड़ेगा वाकई , हाँ कि ना । दिलचस्प किताब लगती है ।
वाकई अच्छी किताब लग रही है।
चलो "हां" कर ली जाये। हां फ्रिक्शनलेस शब्द है!
पंक्तियाँ तो उत्तम हैं किताब भी उत्तम ही होगी।
कुछ लोग तो एक ही समय में हाँ र ना दोनों कर रहे होते हैं....उनके लिए क्या कह रहे हैं बाबा जी ..
आपने बताया तो पढ़कर देखते हैं.
एक टिप्पणी भेजें