पिछले दो हफ़्तो में जिस तरह से हिन्दू साधु और साध्वी आतंकवाद के सिलसिले में पकड़े गए हैं उसे लेकर मुझे कुछ अच्छा नहीं लग रहा है। मैं जानता हूँ कि मेरी ही तरह तमाम अन्य मित्र भी ऐसा महसूस कर रहे हैं। ये ऐसा मामला है कि बुरा लगना स्वाभाविक है.. आप की आस्थाएं जहाँ से जुड़ती हों उस इमारत के कुछ लोग यदि गम्भीर आरोपों के घेरे में आ जायं तो धक्का तो लगता है। खासकर और, जब वही आरोप हम दूसरे समुदाय के लोगों पर लगाते रहे हों।
अपने हिन्दू समुदाय के लोगों को मेरा मशवरा हैं कि वे बौखलाए नहीं, संयम से काम लें। यदि आप को लगता है कि आरोपी निर्दोष हैं, और उन्हे महज़ फँसाया जा रहा है, तो देर-सवेर सच सामने आ ही जाएगा।
लेकिन अगर आप मानते हैं कि हिन्दू धर्म को बदनाम करने की इस तथाकथित साज़िश में कांग्रेस पार्टी, केन्द्रीय सरकार, और पुलिस के साथ-साथ न्याय-प्रणाली भी शामिल है तो इस पर गु़स्सा नहीं अफ़सोस करने की ज़रूरत है कि हमारे देश के बहु-संख्यक हिन्दू जन अपने ही धर्म को बदनाम करने की इस तथाकथित साज़िश में खुशी-खुशी सहयोग कर रहे हैं? और जिस समाज के इतने सारे पहलू इस हद तक सड़-गल गए हों उसके साधु-संत और महन्त बन कर घूमने वाले लोग क्या निष्पाप होंगे?
आम तौर पर माना जाता है कि धर्म की भूमिका मनुष्य और ईश्वर के बीच एक स्वस्थ सम्बन्ध स्थापित करने की है। पर यह सच नहीं है.. असल में दुनिया के अधिकतर धर्म अपने स्वभाव में आध्यात्मिक से अधिक सामाजिक हैं। इस भूमिका के सन्दर्भ में एक छोर पर इस्लाम जैसा धर्म है जो सामाजिक जीवन के बारे में सब कुछ परिभाषित करने का प्रयास करता है तो दूसरे छोर पर बौद्धों और जैनों की श्रमण परम्परा जो समाज को त्याग देने में ही धर्म का मूल समझते थे।
इन दो छोरों के बीच हिन्दू धर्म के तमाम सम्प्रदाय जो अलग-अलग वक़्त पर अलग-अलग भूमिका निभाते रहे हैं। आप को हिमालय की कंदराओं में तपस्या करने वाले साधकों की परम्परा भी मिलेगी, शुद्ध पारिवारिक जीवन जीने और तिथि-वार के अनुष्ठानों से दैनिक जीवन को अर्थवान करने वाली वैष्णव परम्परा भी है, घोर अनैतिक समझे जाने वाले वामाचारी तांत्रिक भी हैं, और अपने सम्प्रदाय के हितों के लिए हथियार ले कर युद्ध करने वाले अखाड़ों के सन्यासी भी हैं।
अपने धर्म के सामाजिक पहलू के पोषण के लिए इस्लाम में एक लम्बी परम्परा रही है जिसे लोकप्रिय रूप से जेहाद का नाम दिया जाता रहा है। ईसाईयत ने भी अपनी धर्म-स्थानों पर क़ब्ज़े के लिए चार-पाँच सौ साल तक क्रूसेड्स का सिलसिला जारी रखा। इसके अलावा ईसाईयों में पेगन्स के खिलाफ़ हिंसक गतिविधियों में भी उनके भीतर वैसा ही उत्साह जगाया जाता रहा जैसे कि इस्लाम में समय-समय पर क़ाफ़िरों के नाम पर भावनाएं भड़काने का काम होता रहा है।
सनातन धर्म भी इस तरह की सामाजिक हिंसा से अछूता नहीं रहा है। शैव-वैष्णव संघर्ष, बौद्ध-ब्राह्मण संघर्ष का स्वरूप भी बेहद क्रूर और हिंसक रहा है। पुष्यमित्र का अपने ही राजा बृहद्रथ की हत्या कर राज्य हथियाने के पीछे एकमात्र कारण बौद्ध-ब्राह्मण संघर्ष ही था। फिर गुरु नानक जैसे परम ज्ञानी की सिख परम्परा को अपना अस्तित्व बचाने के लिए सैन्य रूप लेना पड़ा (हालांकि विडम्बना ये है सैन्य रूप लेते ही नानक की परम्परा का अस्तित्व गहरे तौर पर बदल गया)।
धर्म के नाम पर होने वाली इस तरह की सारी सामाजिक हिंसा को करने वाले लोग किसी प्रकार के नैतिक दुविधा का सामना नहीं करते क्योंकि वे इस हिंसा का हेतु सीधे अपनी आस्था और नैतिकता के स्रोत अपने धर्म से ग्रहण करते हैं। वे राज्य की न्याय-व्यवस्था से इतर और उससे स्वतंत्र एक न्याय-प्रणाली में विश्वास करते हैं।
किसी ने अपराध किया या नहीं इसका फ़ैसला वो किसी नौकरीपेशा न्यायाधीश पर नहीं छोड़ते, खुद करते हैं। और उसे क्या दण्ड दिया जाना चाहिये ये भी स्वयं ही तय करते हैं और स्वयं ही निष्पन्न भी कर डालते हैं। उनकी अपनी नज़र में वे अपराधी नहीं होते बल्कि उस न्याय—व्यवस्था के रखवाले होते हैं जिस पर उनका पक्का यक़ीन है।
तमिलो के हितों की लड़ाई लड़ने वाला प्रभाकरन भी अपनी नज़र में न्याय की लड़ाई लड़ रहा है। भूमिहीन किसानों के हितों के लिए हथियार बन्द संघर्ष करने वाले नक्सली भी न्याय के पक्ष में खड़े हैं। ओसामा बिन लादेन और अफ़ज़ल गुरु भी इंसाफ़ के सिपाही हैं। और साध्वी प्रज्ञा और दयानन्द पाण्डे पर भी यही आरोप है कि उन्होने क़ानून को अपने हाथ में लेने की कोशिश की है।
राज्य का अस्तित्व तभी तक है जब तक वो अपने द्वारा परिभाषित क़ानून को लागू करा सके। इसके लिए ऐसे सभी लोग जो न्यायप्रणाली में दखल देने की कोशिश करते हैं उन्हे राज्य, अपराधी की श्रेणी में रखता है। मगर राज्य चाह कर भी अपनी न्याय की परिभाषा को हर व्यक्ति के भीतर के न्याय बोध पर लागू नहीं कर पाता।
अब जैसे साध्वी प्रज्ञा और दयानन्द पाण्डे के मामले में ही लोगों ने अपने-अपने न्याय-बोध से फ़ैसले कर लिए हैं। कुछ लोग तो अवधेशानन्द तक को आतंकवादी घोषित कर चुके हैं। और कुछ लोग आरोपियों के अपराधी साबित हो जाने पर भी उन्हे अपराधी नहीं स्वीकार करेंगे.. क्योंकि उनके न्यायबोध से उन्होने किसी को मार कर कोई अपराध नहीं किया। ऐसे न्याय-बोध के प्रति क्या कहा जाय?
फ़िलहाल मामला अदालत में है और अभी कुछ भी साबित नहीं हुआ है। वैसे तो आधुनिक क़ानून यह कहता है कि कोई भी व्यक्ति तब तक निर्दोष है तब तक उसका जुर्म साबित नहीं हो जाता। मगर आजकल इसका उलट पाया जाता है। जैसे परसों ही मैंने कांगेस की प्रवक्ता जयंती नटराजन को टीवी पर बोलते सुना कि let them prove their innocence.. । मेरा ख्याल था कि आप अदालत में जुर्म साबित करने की कोशिश करते हैं.. मासूमियत नहीं।
मज़े की बात ये है कि उस पैनल डिसकशन में मौजूद विहिप के लोगों ने भी इस बयान पर कोई ऐतराज़ नहीं किया। क्योंकि इस बात पर तो वे खुद भी आज तक विश्वास करते आए हैं और इस समझ की पैरवी करते आए हैं। तभी तो एक बड़ा तबक़ा आतंकवाद के नाम पर पकड़े जाने वाले हर मुस्लिम युवक को अपराधी ही समझता रहा है। यहाँ तक कि कुछ शहरों का अधिवक्ता समुदाय एक स्वर से आरोपी की पैरवी तक करने से इंकार करते रहे हैं और उस मुस्लिम युवक के वक़ील बनने वाले के साथ मारपीट तक करते पाए गए हैं। ये है हमारे समाज का न्यायबोध?
आखिर में साध्वी प्रज्ञा और दयानन्द पाण्डे को आतंकवादी मानने वालों से मैं गुज़ारिश करूँगा कि वे याद कर लें कि आतंकवादे के मामलों में पुलिस द्वारा गिरफ़्तार मुस्लिम नौजवानों के विषय में उनकी क्या राय होती थी? जो लोग मालेगाँव जैसे मुस्लिम बहुल इलाक़ों में बम विस्फोट करना न्यायसंगत समझते हैं उनसे कोई क्या कह सकता है? मगर साध्वी प्रज्ञा और दयानन्द पाण्डे को निर्दोष क़रार देने वालें मत भूलें कि गाँधी जी की हत्या का षडयन्त्र करने वाले हिन्दू नौजवान अपनी एक स्वतंत्र नैतिकता और उच्च(!) न्याय-बोध से ही प्रेरित थे।
10 टिप्पणियां:
अच्छा लिखा है, हमें देश के कानूनो पर विश्वास करना चाहिए. निजी कानून अराजकता फैलाएगें.
"हिन्दू साधु और साध्वी आतंकवाद के सिलसिले में पकड़े गए हैं उसे लेकर मुझे कुछ अच्छा नहीं लग रहा है।" यह वाक्य थोड़ा अजीब लगा. आगे लिखे से मेल नहीं खाता.
अभय जी; कांग्रेसी सरकार की मुम्बई एटीएस जिस तरह बर्ताव कर रही है वह निन्दनीय है. इस समय तो एसा लगता है कि मालेगांव के अलावा न तो कभी कोई विस्फोट हुआ है न कोई कभी पकड़ा गया. प्रग्या के बारे में सौ बाते बताईये लेकिन कभी दस प्रतिशत बाकी के बारे में तो बताईये!
प्रग्या ठाकुर का चार चार बार नार्को टेस्ट कराया गया लेकिन तलगी को छोड़कर किसका इतनी बार कराया गया? नार्को के लिये बंगलूर की प्रतिष्ठित लैब को छोड़कर मुम्बई को क्यों चुना गया? क्यों?
पिछले महीने विप्रो से जिस संदिग्ध आतंकवादी को पकड़ा गया था उसने कोर्ट में हलफनामा दायर करके सरकार से पेशकश की थी कि उसे वायदामाफ गवाह बनने का अवसर दिया जाय लेकिन सरकार ने सिर्फ बुरी नियत से एसा जानने की कोशिश नही की, क्यों?
समझौता एक्सप्रेस के बारे में सफदर नागौरी ने अपने नार्को टैस्ट में खुद कबूल किया है सीबीआई इस की जांच पिछले 2 सालों से कर रही है लेकिन उस सब का क्या हुआ? यदि पुरोहित और प्रग्या ने ये किया तो सफदर नागौरी ने अपने नार्को में कैसे कबूला? जनता को कुछ भी जानने का हक नहीं है क्या? सफदर नागौरी की सारी की सारी नार्को टैस्ट का कबूलनामा लगभग सारे मीडिया वालों के पास है लेकिन सभी अपने अपने स्वार्थों के वश चुप हैं.
आम आदमी अगर ये सब करे तो सहन किया जा सकता है. यदि कोई हिन्दू ग्रुप हिन्दू की पैरवी करे तो सहन किया जा सकता है, यदि कोई मुस्लिम समूह मुस्लिम की करे तो सहन की जा सकती है लेकिन यदि राज्य सत्ता सिर्फ वोटों के लालच में ये सब करे तो एक भयावह नतीजों का संकेत देते हैं.
इस समय तो यही लग रहा है कि कांग्रेस, एनसीपी, समाजवादी और राजद का गठजोड़ सिर्फ आने वाले चुनावों के मद्दे नजर ये सब खेल खेल रहा है. इसी खेल के तहत मुम्बई में राजठाकरे को आगे करके बालठाकरे को लगभग निपटा दिया गया है. अब बाल ठाकरे और राज ठाकरे के वोट बंटेंगे और कांग्रेस एनसीपी युति फिर काबिज हो जायेगी, लेकिन क्या आम मुम्बई का जनमानस आपस में उतना सहज हो पायेग? राजठाकरे का भस्मासुर रूप बतर्ज भिंडरावाला फिर क्या करवटें लेगा ये भी देखेंगे हम लोग.
न्याय सिर्फ हो ही नहीं, न्याय होते दिखना भी तो चाहिये.
हमारे कुछ वक्ती फायदे हमें लंबे अरसे में भयानक चूक साबित होते हैं.
"...गाँधी जी की हत्या का षडयन्त्र करने वाले हिन्दू नौजवान अपनी एक स्वतंत्र नैतिकता और उच्च(!) न्याय-बोध से ही प्रेरित थे..." बात कुछ स्पष्ट नहीं हो पाई, क्या आप कहना चाहते हैं कि विश्व में आज तक हुई सभी "राजनैतिक हत्यायें" और बम विस्फ़ोट जैसी आतंकवादी हरकतें एक समान हैं? सवाल यह भी उठता है कि हम "किस तरफ़" हैं? तत्कालीन अंग्रेज भगत सिंह को आतंकवादी मानते थे, हम अफ़ज़ल गुरु को मानते हैं, ऐसे में यह सवाल महत्वपूर्ण हो जाता है कि हम "किस तरफ़" हैं और हम किसे आतंकवादी मानना चाहते हैं या मानते हैं…
संजय जी,
जो लगा वो लिखा है.. क्या मेरे लिखने में कुछ ऐसा है जिस से आप को लगे कि साधु-साध्वी की गिरफ़्तारी से मुझे खुशी होगी?
देवांग जी,
इस पूरे काण्ड में एक प्रबल राजनैतिक डिज़ाइन से मैं इन्कार नहीं करता.. आप की आशंकाए काफ़ी हद तक सही हैं मगर उस से आरोपी
निर्दोष साबित नहीं होते! रही बात नार्को टेस्ट की तो मैं उसे मानवाधिकार का अतिक्रमण मानता हूँ।
सुरेश जी,
"...गाँधी जी की हत्या का षडयन्त्र करने वाले हिन्दू नौजवान अपनी एक स्वतंत्र नैतिकता और उच्च(!) न्याय-बोध से ही प्रेरित थे..." से मेरा आशय ये है कि साधु होने की उच्च नैतिक स्थिति मात्र से ही कोई अंहिसक, निरपराधी या निर्दोष नहीं हो जाता। हो ये भी सकता है कि अपने उच्च बोध से वह सारे क़ानूनों, सामाजिक मान्यताओ और आम आस्थाओं का भी अतिक्रमण कर जाय जैसे गोडसे ने किया।
और 'हम किस तरफ़ है', ये कैसे तय हो? 'हम' जैसा कुछ तो है नहीं.. आप हैं.. मैं हूँ.. और वो है!
आपकी बातें बेहद खरी हैं और सभी को ध्यान देना चाहिए.
जब तक किसी भी अभियुक्त के विरुद्ध अपराध साबित न हो जाए तब तक उसे अपराधी कहना और उसे दंडित किया जाना किसी भी प्रकार से उचित नहीं है। वकील समुदाय जो इस के विरुद्ध आचरण करता है वह कतई क्षम्य नहीं, अपितु निन्दा के योग्य है।
प्रत्येक अभियुक्त को अपनी प्रतिरक्षा करने का भी अधिकार है और होना ही चाहिए। यदि उसे यह अधिकार नहीं दिया जाता है तो न्याय का कोई अर्थ नहीं है। यदि उस के पास प्रतिरक्षा के साधन नहीं हैं तो भी राज्य और समाज का यह कर्तव्य है कि वह साधन भी उपलब्ध कराए। इन मूल्यों को त्याग देने का अर्थ सीधे सीधे तानाशाह हो जाना है। लगता है हमारा जनतंत्र एक नाटक मात्र है जिसमें पाँच सालों में या उस से कुछ पहले वैसे ही एक नाटक किया जाता है जैसे दशहरे पर रावण मार कर विजयोत्सव मनाया जाता है। वरना न परिवार में न मुहल्ले, गांव, नगर और समाज में, कहीं भी वास्तविक जनतंत्र देखने को नहीं मिलता। जब तक हम जनतंत्र को हमारी आदत में शुमार नहीं करते तब तक वह केवल हवाई ही रहेगा।
अफ़्लातूनजी ने आपका यह पोस्ट पढाया। उन्को तो धन्यवाद दिया,आपको क्या लिखूं?
अपने चशमों की इतनी आदत हो गयी हैं,कि लोग उनके बिना सोच-समझ नहीं सकते।
आपकी लेखनी की धार ऐसी ही बनी रहे,लोग समझेंगे,भले ही थोड़ा वक्त लगे।
अपराध केवल अपराध होता है उसका और कोई रंग नहीं होता । जो भी अपराधी हो उसका अपराध सिद्ध हो जाने पर उसे दंडित किया जाना चाहिए । हाँ, जिस तरह से ये समाचार बन रहे हैं उससे समाचार देने वालों पर से बचाखुचा विश्वास भी उठता जा रहा है ।
घुघूती बासूती
देवांगजी की बातें बिल्कुल सही है। मैं इतना ही कहना चाहूंगा कि अगर साधू संत वाकई में दोषी पाये जाते हैं तो क्या हमें उसके कारणों की खोज नहीं करनी चाहिये कि उन्हें धर्म छोड़ कर ऐसे निन्दनीय काम में जुट जाना पड़ा।
बाकी षड़यंत्र होता तो साफ दीख रहा है।
यदि आप को लगता है कि आरोपी निर्दोष हैं, और उन्हे महज़ फँसाया जा रहा है, तो देर-सवेर सच सामने आ ही जाएगा
आप बताईये कि क्या वास्तव में सच सामने आयेगा? अब तक कितने विस्फोट हुए और कितने सच सामने आये, क्या आप बतायेंगे।
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