इस बार जब लगभग दो साल के अन्तराल के बाद मुम्बई से बाहर निकला तो अपने जीवन की सीमाओं को मस्तक में भरे हुए और जड़ताओं को बैग्स में ढोते हुए निकला। ताकि जहाँ भी जाऊँ उसी मुम्बीय जीवन को वहाँ भी रच सकूँ। उसी तौलिया से मुँह पोँछने और उसी चप्पल को घसीटने के अलावा वैसा ही खा सकूँ और उसी समय पर सो सकूँ जैसे नियमों का पालन भी करता रह सकूँ, जैसा मुम्बई में करता रहा हूँ। और इसमें नियमित रूप से ब्लॉग लिखना और दूसरे मित्रों के ब्लॉग्स देखना भी शामिल रहा है, जीवन के नए विकास के रूप में। लेकिन दिल्ली और उसके बाद कानपुर पहुँचकर मैं अपने इस प्रिय शग़ल को जारी नहीं रख सका। जिसके लिए मैं सभी मित्रों से माफ़ी चाहता हूँ, खास तौर पर भाई बोधिसत्व और उनके परिवार से।
इस आई हुई रुकावट के पीछे पहले तो किसी अच्छे इन्टरनेट कनेक्शन का अभाव था और बाद में एक सचेत निर्णय भी था जो मैंने नए हालात के आगे समर्पण करते हुए किया। अगर कोशिश करता तो लड़-भिड़कर रोज़ एक पोस्ट डाल सकना ऐसा कोई कठिन पहाड़ न होता, मगर फिर घर से निकलने का मक़सद अलग खड़ा मुझ पर हँसता होता।
क्योंकि घर से निकलना अपने जमे-जमाये जीवन से निकलना होता है, उसके ठोस हो गए आकार की सीमाओं से बाहर निकलना होता है। घर से काम पर जाना, काम से निकल कर घर को आना, ज़रूरत पड़ने पर बाज़ार जाना और ज़रूरत की ही तरह मनोरंजन की दुकानों पर जाना- इन्ही जड़ताओं में फँसता जाता है रोज़मर्रा का ढर्रा। सभ्यता ने जहाँ एक तरफ़ मनुष्य के जीवन में अनन्त सम्भावनाओं के रंग भरे हैं वहीं दूसरी ओर ऐसी निहायत उबाऊ एकरसताओं का भी उत्पादन किया है, बड़े पैमाने पर। हम सब अपनी-अपनी एकरसताओं के शिकार हुए पड़े रहते हैं अपने-अपने कोटरों में - कल्पना में, किताबों में और अब के इन्टरनेटीय जीवन में एक आभासी दुनिया में एक समान्तर जीवन की रचना करते हुए।
मैंने चाहा था अपनी एक ओर ठोस हो चुकी मगर सीमित, और दूसरी ओर विस्तृत मगर वायवीय और आभासी दुनिया से निकलकर एक सच्ची, वास्तविक, तरल दुनिया में बहना। दिल्ली और कानपुर में पुराने और नए मित्रों के साथ समय गुज़ारते हुए और ढर्रे से कुछ अलग तरह समय को जीते हुए वह कुछ हद तक किया भी गया, जिसका विवरण एक अलग पोस्ट में दिया जायेगा। फ़िलहाल तो इतना ही कहना चाहता हूँ कि घुमक्कड़ी सम्भावनाओं के अनोखे द्वार खोल विविधताओं के अद्भुत दर्शन कराती है तो आदमी से एक लचीलापन भी माँगती है मगर आदमी नियम के नियंत्रण से नियति को बाँध रखने का इच्छुक रहता है।
इस खींचतान पर ग़ालिब का एक शेर याद आता है; आशिक़ी सब्रतलब और तमन्ना बेताब, दिल का क्या रंग करूँ खूने जिगर होने तक।
इसी अन्तरविरोध पर एक ज़ेन मास्टर ने अलग तरह से टिपियाया कि जब भूख लगती है खा लेता हूँ और जब नींद आती है सो जाता हूँ।
13 टिप्पणियां:
'घर से निकलते हि कुछ दूर चलते ही,रस्ते में है उसका घर्………' सुना था।लगे रहो,मंजिल जल्द मिलेगी।
'घर से निकलते हि कुछ दूर चलते ही,रस्ते में है उसका घर्………' सुना था।लगे रहो,मंजिल जल्द मिलेगी।
भाई इसके लिए माफी मांगने की जरूरत नहीं है...हो सके तो घुमक्कड़ी के किस्से सुनाओ....
स्वागत है आपका. अपनी घुमक्कड़ी के अनुभव लिखें हम प्रतीक्षा में हैं.
मुझे लगता है कि घुमक्कड़ी नए अनुभवों के साथ आदमी को उदार भी बना देती है. जिस लचीलेपन की आप बात कर रहे हैं अगर घुमक्कड़ उसे ना अपनाये तो शायद सब बेकार चला जाए.
आपकी घुमक्कड़ी के किस्सों का इंतजार है।
(घुम्मक्कड़ी) आदमी से एक लचीलापन भी माँगती है
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कितना लचीला बने हम जैसे की सोच के प्रति! :-)
या हमारे छाप के लोग नहीं मिले?
स्वागत है आपका । किस्सों की प्रतीक्षा है ।
घुघूती बासूती
क्षमा क्यों मांग रहे हैं.....हमें तो आपकी पोस्ट का इंतजार था सो खत्म हुआ।
इन्तजार के बाद पुनः वापसी पर स्वागत. अब घुमक्कड़ी के किस्से बयां किये जायें.
ताज़ा हवा और अनुभवों के साथ मुंबई लौटे हैं। स्वागत है। दोनों का कॉन्ट्रास्ट अब कुछ दिन तक ज्यादा साफ नजर आएगा।
यह टिप्पणी तो नहीँ है फिर भी, जन्म दिवस की बधाईयाँ
अगली पोस्ट से यहां पहुंचा। अब उसे पढ़ता हूं।
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