मेरे घर में एक अंग्रेज़ी का दैनिक आता है डी.एन.ए. .. एक हिन्दी दैनिक हमारा महानगर.. और एक उर्दू का दैनिक इंक़लाब.. हिन्दी के दैनिक हमारा महानगर के छठे पन्ने पर युवा रंगकर्मी असीमा भट्ट की आत्मसंघर्ष कथा की दूसरी कड़ी प्रकाशित हुई है.. ऐसी थी मेरी सुहागरात.. यह कथा सबसे पहले हिन्दी साहित्य की सम्मानित पत्रिका कथादेश में छप चुकी है.. उसके बाद हाशिया नाम के ब्लॉग के मालिक रियाज़ उल हक़ साहिब भी इसे आभासी दुनिया के लिए शाया कर चुके हैं..
जो लोग नहीं जानते उनके लिए बता दूँ कि असीमा जी हिन्दी के प्रख्यात और प्रखर कवि आलोक धन्वा की पत्नी हैं.. उनकी उमर में खासा फ़र्क भी है.. इस कथा में अपने सम्बंध के ऐसे तमाम अंतरंग मसलों पर असीमा जी ने खुल कर चर्चा की है जिन्हे जानने में किसी भी गॉसिप पसन्द महिला/ पुरुष की दिलचस्पी होती है..
दो व्यक्तियों के बीच का हर सम्बन्ध परिभाषा से एक सामाजिक सम्बन्ध है.. और समाज के हर गुण-लक्षण उसमें परिलक्षित होंगे.. मगर स्त्री पुरुष का सम्बन्ध एक सामाजिक सम्बन्ध होने के साथ साथ एक निजी सम्बन्ध भी होता है.. और व्यक्ति की निजता की एक गरिमा भी होती है.. एक मालिक मजदूर के बीच के सामाजिक सम्बन्ध जितनी सरलता की अपेक्षा एक स्त्री पुरुष के वैवाहिक सम्बन्ध में भी करना बचकाना होगा.. उनके बीच एक आदिम पशुता की स्वार्थी हिंसा भी होती है और उच्च मानवीय प्रेम और बलिदान की संवेदना भी..
यह उम्मीद पाल लेना कि उच्च सौन्दर्य बोध की रचनाएं करने वाला कवि अपने निजी जीवन के हर क्षण में उसी उच्च संवेदना से संचालित होगा और एक अतिमानव की भाँति सारे क्लेश-द्वेष से मुक्त होगा.. ऐसी कल्पना ही कवि की मनुष्यता के साथ अन्याय है.. आखिर कवि मनुष्य ही तो है.. कोई संत तो नहीं.. और ईसा ने तो कहा ही है कि पहला पत्थर वह मारे जिसने कोई पाप न किया हो..
स्त्री पुरुष सम्बन्ध में अपराध को आप कैसे परिभाषित करेंगे.. ? सहज रूप से सामने आने वाले अपराध तो स्थूल हिंसा से जुड़े होंगे.. मगर कुछ अपराध सूक्ष्म हिंसा के भी होंगे.. जैसे विश्वासघात और उपेक्षा.. एक स्त्री और पुरुष के बीच क्या घटता है, क्या पकता है.. उस के बारे में मोटी राय बना लेना आसान तो बहुत है.. मगर न्यायशील नहीं..
असीमा जी जिस प्रकार से निजी प्रसंगो में आलोक जी की अमानवीयता को उजागर करके उनकी मान-प्रतिष्ठा और धवल छवि को आघात पहुँचा रही हैं.. वो कितना ठीक है मैं नहीं जानता?.. मैं ये भी नहीं कह सकता कि ये आलोक जी का निजी मामला है.. क्योंकि ये असीमा जी का भी निजी मामला है.. और उन्हे पूरा हक़ है कि वे अपने अति निजी प्रसंगो को समाज के बीच सुलझायें..
मैं ने पूरी कहानी नहीं पढ़ी है.. और मैं नहीं जानता कि सच्चाई क्या है..मैं जानना भी नहीं चाहता.. मगर इस विषय पर जिस तरह से आलोक जी ने अभी तक चुप्पी साधी है .. और वे एक आरोप लगाती स्त्री पर प्रत्यारोप कर के उस की छीछालेदर करने के बजाय मौन रहकर अपनी, उसकी, और रिश्ते की गरिमा बनाए हुए हैं.. मैं फ़िलहाल उस मौन से ज़्यादा प्रभावित हूँ..
15 टिप्पणियां:
abhay jee,
apko alok dhanwa behtar lagte hain to mujhe apki samajh par taras aata hai. nishit taur par vivah manav ka niji mamla hai lekin jab nijta mein kroorta ka pravesh ho jaye to ashima bhatt ki kahaniyan sarwajanik hoti hain. phir bhi apke man par kewal aur kewal apka hak hai, esliye ap jo chahe likh ya samajh sakte hain. mera agarh hoga ek baar woh apbiti padh lein.
अभय भाई,
बड़ी बारीक़ रेखा होती है, प्रेम और घृणा के बीच, हिंसा और सेवा के बीच, कब कौन किस रेखा को पार कर जाए कहना मुश्किल है. जजमेंटल होना बड़ा जोखिम का काम है, मैंने पूरा पढ़ा है और मुझे लगता है कि यह असीमा जी का पक्ष है, शादी जैसे रिश्तों में एकतरफ़ा सच कभी सच होता ही नहीं, कुछेक आपराधिक मामलों को छोड़कर.
हम हर आदमी से आदमी होने की उम्मीद तो करते ही हैं, लेकिन किसी रचनाकार से उससे अधिक की उम्मीद करना ज़्यादती है मगर आदमी होने की उम्मीद करना नहीं. ऐसे सच कभी सामने नहीं आते क्योंकि वे हमेशा कहीं बीच में, ग्रे एरिया में होते हैं. आलोकधन्वा हमारी पीढ़ी के प्रिय कवि हैं इसलिए धचका तो लगा ही है उनके निजी जीवन के आचरण के बारे में पढ़कर, लेकिन वह पूरी तरह सही हो, यह ज़रूरी नहीं है.
फिर वही बात. जन सेवक को काहे भड़काते हैं? अरे फारसी इसलिए छोड़ देंगे कि आपके समाज को उसकी ज़रूरत नहीं है ?
फारसी तो दूर की चीज़, आपके समाज को तो उर्दू की भी ज़रूरत नहीं है, भोजपुरी की ज़रूरत नहीं है, मगही, अंगिका, वज्झिका और बुंदेली या गढ़वाली की जरूरत नहीं है. गाँवों-कस्बों की जरूरत नहीं है, रामचरित मानस की जरूरत नहीं है, शब्दों की जरूरत नहीं है, असफल लोगों की जरूरत नहीं है, बाजार में नाकाबिल लोगों की जरूरत नहीं है.
आपके समाज को तो जरूरत है इन चीजों की -- मोबाइल फोन, शॉपिंग मॉल, शेयर बाज़ार, बंगले, कार, बैंक बैलैंस. तो पकड़ लीजिए इन्हीं सबको.
समाज की जरूरत से ही तय कीजिएगा कि क्या किया जाए और क्या छोड़ा जाए? समाज तो अपने बच्चों को भविष्य का मैनेजर बनाने की होड़ में जुटा है. तो ?
हाँ अगर सिर्फ ब्लॉग के लिए फारसी शुरू की थी तो जितने दिन पहले छोड़ा, उससे काफ़ी पहले छोड़ देनी चाहिए थी.
आप तो *तिया बना रहे है.
आपने लिखा-यह उम्मीद पाल लेना कि उच्च सौन्दर्य बोध की रचनाएं करने वाला कवि अपने निजी जीवन के हर क्षण में उसी उच्च संवेदना से संचालित होगा और एक अतिमानव की भाँति सारे क्लेश-द्वेष से मुक्त होगा.. ऐसी कल्पना ही कवि की मनुष्यता के साथ अन्याय है.. आखिर कवि मनुष्य ही तो है.. कोई संत तो नहीं.. यही बात असीमाजी के बारे में भी लागू होती है। उम्र का इतना अंतर अपने आप में इतना बड़ा कारक कि वह् अपने साथ तमाम दूसरी चीजें जोड़ता रहता है। वैसे इस् बारे में आलोक धन्वा और उनकी निजी जिंदगी के नजदीक रहे लोग बेहतर बता सकते हैं।
अभय जी ,पता नही हम कितना जानते है ।क्योन्कि दो के बीच की हर बात को समझना कठिन है ।पर स्त्री-पुरुष के बीच बहुत सा ऐसा भी है जिसका सामने आना निहायत ज़रूरी है ।क्यो ?क्योन्कि”पर्सनल इज़ पोलीटिकल’।पर्सनल कहकर बहुत सी बाते ऐसी छिपा ली जाती हैं ,बहुत सी ऐसी बातों के स्पष्टीकरण से बचा जाता है जिनका सामने आना समाज की आंखे खोलने के लिए बहुत ज़रूरी है ।शायद आपने मुझे एक पोस्ट लिखने के लिए प्रेरित कर दिया है ।देखियेगा बहुत कुछ कहते भी नही बन पड रहा यहां ।हां आलोक जी शान्त नही है ,उनके मित्र उनकी पैरवी कर रहे हैं ।असीमा को धमकिया कर ।ऐसा मैने पढा है ।
हां ठीक लिखा गुरु.
अभय भाई मैंने असीमा जी के आत्म संघर्ष की हाशिया वाली तीनों कड़ियाँ पढ़ी हैं। महानगर वाला अंश भी देखा है पर कथा देश नहीं पढ़ पाया हूँ। मुझे धक्का लगा । हिंदी का एक सबसे संवेदनशील कवि और उस पर ऐसे आरोप। भाई इन आरोपों में कितनी सच्चाई है और कितनी आलोक जी के मान-हनन की कोशिश यह कहना मुश्किल है। आलोक जी ऐसे हैं यह कौन तय करेगा। यह तो असीमा जी का पक्ष है और सिर्फ एक के पक्ष को सुन कर किसी नतीजे पर पहुचना थोड़ी जल्दबाजी होगी। जितना असीमा जी का दुख हैं उतना ही आलोक जी का भी हो सकता है। मामला दाम्पत्य में दरार का है। पर मुझे नहीं लगता कि आलोक जी इस पर कुछ बोलेंगे। इस प्रसंग में नतीजा जो भी निकले सब कुछ है दुखद । यह सुन कर उलझन हुई कि आलोक जी और उनके लोग असीमा को धमका रहे हैं ।
अभी तो मामला शुरू ही हुआ है हिंदी साहित्य और समाज को एक नई कहानी मिल गई है। अभी दिल्ली से पटना तक और बनारस से मुंबई तक इसमें इसमें हजारों बातें और हजारों किस्से जुड़ेंगे। दोनो को जानने वाले कुछ ना कुछ फुस फुसाएंगे बस चलता रहेगा मान अपमान यह प्रकरण।
यहां अनामदास जी की टिप्पणी से सहमत हूं! कवि आम आदमी नहीं होता उसकी संवेदना शक्ति और सत्य के अनुभव की विशिष्टता उसे आम से अलगाती है ! वह अतिमानवीय नहीं होता किंतु वह एक स्वप्न दृष्टा संवेदनक्षम रागमय प्राणी होता है ! वह देख सकता है अन्याय अनाचार पीडा ! जिस खामोशी की आप तारीफ कर रहे हैं वह स्ट्रेटेजिकल है दबाव तो भीतर से डलवाया जाता है ! शोषण यदि इतना ही मिखर होता तो आप मैं उसे रोक न लेते
फ्रांसीसी साहित्यकार ज्यां जेने चोर-उचक्का था। अपने समाज में उसकी गजब थू-थू थी। लेकिन सार्त्र ने उसे अपने वक्त में सामाजिक मान्यता दिलवायी। लेकिन ज्यां जेने के साहित्य में उनका कंफेशन अद्भुत है। मैंने एकाध जगह छिटपुट पढ़ा है, पूरा पढ़ने की जोड़-तोड़ में हूं। आलोकधन्वा अपनी कुछ कविताओं के चलते हिंदी के बड़े कवि हैं, लेकिन वे मुक्तिबोध और निराला नहीं हैं। आलोक मुलाक़ातों में अच्छे इंसान भी जाहिर होते हैं- लेकिन कई मुलाक़ातों में उनकी पोल खुल जाती है- और वे उतने एक साधारण इंसान नज़र आने लगते हैं। लेकिन शब्द और जीवन में बड़ा आदमी वो होता है- जिसका अपना जीवन और अपना समाज पूरी ईमानदारी से उसकी अभिव्यक्ति का हिस्सा बने। आलोक जी इस मामले में छोटे शब्दकार हैं।
असीमा भट्ट के कुछ नाटक हमने देखे हैं। पटना में रक्त कल्याण में उन्होंने छोटी और अच्छी अदाकारी की थी। उनके संघर्ष मैंने देखे हैं। "आज" अख़बार और "पाटलिपुत्र टाइम्स" में नौकरी और मंच पर नाटक करते हुए एनएसडी में दाखिला और लगातार अपनी सोची हुई ज़िंदगी जीने के लिए विद्रोह की छोटे-छोटे दृश्यों के गवाह कई लोग रहे हैं।
बहरहाल, मुझे लगता है कि क्रांति (असीमा) ने जो लिखा, उसे आलोकधन्वा के चरित्रहनन के रूप में देखना चाहिए। नहीं तो दुनिया की तमाम स्त्रियों ने जो लिखा है, उसको भी इसी रूप में देखना होगा।
अंत में: आलोक जी का मौन आपको ज़रूर प्रभावित कर रहा होगा, लेकिन आपकी सूचना के लिए बता दूं कि वे मौन नहीं हैं। प्रतिवाद का उनका तरीक़ा ज़्यादा शर्मिंदगी से भरा हुआ है, जिसकी धमक आप तक नहीं पहुंची है।
एक वाक्य ग़लत लिख गया: मुझे लगता है कि क्रांति (असीमा) ने जो लिखा, उसे आलोकधन्वा के चरित्रहनन के रूप में देखना चाहिए की जगह मुझे लगता है कि क्रांति (असीमा) ने जो लिखा, उसे आलोकधन्वा के चरित्रहनन के रूप में नहीं देखना चाहिए पढ़ें।
एक वाक्य ग़लत लिख गया: मुझे लगता है कि क्रांति (असीमा) ने जो लिखा, उसे आलोकधन्वा के चरित्रहनन के रूप में देखना चाहिए की जगह मुझे लगता है कि क्रांति (असीमा) ने जो लिखा, उसे आलोकधन्वा के चरित्रहनन के रूप में नहीं देखना चाहिए पढ़ें।
आलोक के पक्षधरों का नाश हो. स्त्री विरोधियों का नाश हो।
अविनाश आप मोहल्ले में आलोक के घृणित पक्ष को रखें। ऐसे लोगों को बेनकाब होना ही चाहिए। हम क्रांति के साथ हैं।
पहलू पर जो मैंने टिप्पणी की, उसे ही यहां दोहरा रहा हूं-
मैं आलोक जी को 25 साल से देखता आया हूं। जानने की जहां तक बात है तो वह भी 18-20 साल तो हो ही गया होगा। हमारे क्रांतिकारी साथियों ने ही आलोक जी की छवि लार्जर दैन द लाइफ बना कर रखी। उन्हें हमेशा नक्सलबाड़ी का जीता जागता उदाहरण बनाकर पेश किया गया। लेकिन हमें उनके बारे में कतई कोई भ्रम नहीं था। पटना में वो सिर्फ दो शख्स से नियंत्रित रहते थे और आज भी रहते हैं, वे लोग भी कभी भ्रम में नहीं रहे। क्रांति ने यानी अबकी असीमा ने पटना में नाटक किये हैं और इप्टा के साथ किये। गिरीश कार्नाड का लिखा रक्त कल्याण में अभिनय किया। ...मैंने हाशिये पर क्रांति की आप बीती पढ़ी। यकीन जानिये, मुझे कहीं कोई बात गलत नहीं लग रही। क्रांति ने बहुत सारी बातें फिर भी नहीं लिखी, जिसे हमारे जैसे लोगों ने पटना और फिर एनएसडी में उसके रहने के दौरान देखे। यह दुखद है लेकिन कड़वी सचाई है। एक कामरेड का अंतत: पति ही होना। आमतौर पर कोई भी स्त्री जब अपना निजी लिखती है तो हमें उस पर सहज यकीन नहीं होता। खासकर तब जब वो उस मर्द के बारे में लिखें, जिसे हम जानते हैं और जिसकी एक खास छवि हमारे दिमाग में रहती है। लेकिन यह भूलना नहीं चाहिए कि स्त्री का जो निजी है, उसे साझा किये बगैर उसकी लड़ाई मुमकिन नहीं। इसे समझने के लिए एक क्रांतिकारी को पहले एक नरम दिल इंसान होना होगा।
न गुल अपना न खा़र अपना न जालिम वाग़बाँ अपना|
बनाया आह किस गुलशन में हमनें आशियाँ अपना||
जनता का आदमी,, जैसी कवितायें लिखने वाले शख्श की भर्तसना करना बड़ा अजीब सा लग रहा है,साब कवितायें किसके लिये लिखते है, अय्यासी के लिये|
अशीमा भट्ट जी की व्यथा वाकयी में सुनी नहीं जाती-
कैसे कह दूँ कि मुझे छोड़ दिया है उसनें|
बात तो सच है मगर बात है रूसवाई की||
अभय जी आसीमा वाले मामले मे मुझे लगता है की जो कुछ लिखा गया है वह पूरा सच नही है.
हम सब जानते है की तलाक़ के लिए अदालत मे कैसे कैसे सच और झूठ बनाए जाते है.
यह सब जो कथित रूप से एक कवि का पर्दाफ़ाश की शक्ल मे लिखा गया है उस प र कुछ शक भी किया जाना चाहिए.
मैं जनता हूँ की विवेक की बात करते ही लोग आपको महिला विरोधी कहकर हल्ला बोल देंगे.
कुछ ऐसा ही हो भी रहा है दिल्ली मे. जैसा मैने सुना है. लोग
बाक़ायदा आसीमा के समरथन मे हस्ताक्चर अभियान चला रहे है दरअसल इस खेल को संचालित करने वाले
कुछ ऐसे लोग भी होंगे जो इस बहाने आलोक धनवा से अपना हिसाब किताब भी चुका रहे होंगे साहित्य मैं भी
ऐसे लोग की कमीं नही है जिन्हे परपीरा मे आनंद आता हैं. अशक जी को तो ऐसे मामलो मे महारत ही थी. आज भी ऐसे घर तौरक बहुत है. मुझे इसमे कई बाते बनावती और झूठ भी लग रही है मानो इस आत्मकथा
को किसी वकील से सलाह मशविरा करके लिखा गया हो. मामला काफ़ी कुछ तलाक़ और प्रोप्रती मे हिस्सेदारी का है वरना तो दोनो काफ़ी समय से अलग रह ही रहे थे. आसीमा योग्य और प्रतिभाशाली है मगर इतनी भोली नही है. कही आलोक पर चरित्र हीनता का आरोप इसीलिए तो नही लग रहा. आत्मकथा के पाठ मे ही इसके कुछ संकेत मिल भी रहे है. इसीलिए इस मामले मे किसी टिप्पणी से पहले तनिक धर्य जरूरी है.
शशि भूषण द्विवेदी
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