पिछले काफ़ी दिनो से बढ़ रही दाढ़ी कटा दी.. कुछ लोग कह भी रहे थे कि कटवा दो कटवा दो.. उनके दिलोदिमाग में मेरी एक खास छवि थी जो मेरी दिनोदिन लम्बी हो रही दाढ़ी से लगातार आहत हो रही थी.. यूं तो मैं किसी भी प्रकार की हिंसा के विरुद्ध हूँ.. पर इस प्रकार का मानसिक बदलाव मैं हिंसा में नहीं गिनता.. गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर गिनते थे.. ओशो ने कहीं ज़िक्र किया है.. कि वो एक दफ़े गाँधी के साथ टहलने जाने के लिए निकले तो घंटो आईने के सामने बैठे अपने आप को संवारते रह गए.. उन्हे डर था कि कहीं कोई देखने वाला उनकी वृद्धावस्था की कुरूपता से आहत न हो जाय..
मेरे पास अपनी दाढ़ी को कुरूपता में गिनने का कारण अभी पैदा नहीं हुआ है.. मेरी दाढ़ी से लोगों के आहत होने की वजह उनके भीतर बदलती मेरी छवि थी.. बदलाव हिंसक हो सकते हैं पर सभी बदलाव हिंसक होंगे कोई ज़रूरी है.. बल्कि बदलाव ज़रूरी हैं.. लेकिन मनुष्य स्वभाववश बदलाव का प्रतिरोध करता है..
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मगर मैंने आहत हो रहे लोगों के दबाव में दाढ़ी नहीं कटाई.. तो फिर क्यों कटाई ? कुछ लोग मुझे बाबा कहने लगे थे, कुछ स्वामी.. मेरे अभिन्न मित्र प्रमोद सिंह भी बार बार मुझे स्वामी कह कर अपनी पोस्टों में हवाला देने लगे थे.. मेरे अन्दर भी एक स्वामी का उदय होना शुरु हो गया था.. किसी भी विशेषण की प्राप्ति होते ही आप उसकी सीमाओं में कै़द हो जाते हैं.. उसके गुण अवगुण और दुर्गुण से बँध जाते हैं.. किसी भी स्वतंत्रता प्रेमी व्यक्ति के लिए ये वांछनीय स्थिति नहीं है.. मगर विशेषण के मोह और लिप्सा में लोग अपनी स्वतंत्रता को कभी गिरवी रख, कभी क़ुरबान कर अपनी निजता को विशेषण के साथ एकाकार कर लेते हैं.. और भविष्य के सारे बदलावों की सम्भावना से स्वयं को वंचित कर देते हैं..
इस परिघटना का क्लासिक उदाहरण फ़िल्म स्टार्स होते हैं.. एक काल विशेष में जनता उनके अभिनय को इतना पसन्द करती है कि उनकी अदाओं की नकल करना शुरु कर देती है.. फ़िल्म स्टार जनता के इस प्रेम से आह्लादित रहता है.. मगर जीवन सदा तो एक सा तो रहता नहीं.. तुलसी बाबा भी लिख गए हैं.. हर दिन होत न एक समाना.. उस काल खण्ड के बीत जाने के बाद फ़िल्म स्टार एक नए बदलाव से गुज़रता है.. उसके अन्दर एक नए व्यक्ति और नए व्यक्तित्व का जन्म होता है.. मगर अपनी छवि के मोह में उस बदलाव को लगातार प्रतिरोध करता है स्टार.. और पहले वाली पर्सनैल्टी को पूरी तरह न प्राप्त कर सकने की विवशता में अपनी अदाओं की नकल करना शुरु कर देता है.. जैसे उसके प्रशंसक करते हैं.. और स्वयं अपने आप का कैरीकेचर बन जाता है.. अपनी ही छवि के गुलाम बन जाता है.. देव साहब से देवानन्द का बेहतर कैरीकेचर कई दूसरे लोग करते हैं.. चार्ली चैपलिन के बारे में प्रसिद्ध है कि एक बार चार्ली चैपलिन क्लोन प्रतियोगिता में वह खुद भी भाग लेने पहुँचे और बुरी तरह हार गये.. पहले पाँच में भी न आ सके..
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और इस परिघटना का दूसरा छोर होगा कि व्यक्ति अपनी कोई छवि बनने ही न दे.. बनते ही तोड़ दे.. छवि व्यक्ति नहीं है.. व्यक्ति की काल्पनिक या आभासी अनुकृति है जो दूसरों के मानस में अंकित होते है.. व्यक्ति के द्वारा किए गए कार्यकलापों द्वारा ही इसका निमार्ण होने के बावजूद, इस पर व्यक्ति का अधिकार नहीं होता..मैं अपनी छवि पर अपना अधिकार चाहता भी नहीं.. वह दूसरे का अधिकार क्षेत्र है.. वो वही सम्हाले.. दूसरे मेरे बारे में क्या सोचते हैं इस के प्रति मैं बहुत परेशान नहीं होना चाहता.. मैं उनकी सोच को नियंत्रित नहीं करना चाहता.. और साथ ही साथ इस स्थिति की पलट-स्थिति से भी बचना चाहता हूँ.. जब कि मेरी अपनी छवि मुझे नियंत्रित करने लगे.. दूसरे मेरे बारे में जो सोचते हैं मैं उसी से निर्धारित होने लगूँ.. लोगों ने मेरे बारे में बाबा की स्वामी की छवि बना ली.. मुझे भी अच्छा लगने लगा.. और मैं बाबा हूँ नहीं.. पर छवि के दबाव में बाबा होने की कोशिश करने लगा..
मैं ऐसी किसी भी बाध्यता से बचना चाहता हूँ.. और किसी भी आगामी बदलाव की लहर के लिए.. नए प्रभाव के लिए अपने आप को खुला, लचीला व स्वतंत्र रखना चाहता हूँ.. ताकि नए विचारों, नए जीवन का बिना किसी भय और बोझ के बढ़ कर स्वागत कर सकूँ.. बाबा बनने में कोई तकलीफ़ नहीं.. पर अन्दर की स्फूर्ति से बन गया तो बन गया.. मगर लोगों द्वारा आरोपित छवि के दबाव में बाबा बन जाने से बेहतर है कि ऐसी छवि का विध्वंस कर दिया जाय..
तस्वीरे: सबसे ऊपर मेरी बाबाई छवि की तस्वीर.. बीच में और नीचे अपनी छवि के साथ किए गए कुछ फोटोशॉपाई खेल..
22 टिप्पणियां:
अरे हम तो आपको दाड़ी वाले धर्म गुरू समझते थे। चलो अच्छा है।
मैं नहीं जानता कि महिलायें चिट्टाकार क्या कहती हैं पर मुझे तो आपका बिना दाढ़ी, मूछ वाला चित्र ज्यादा सुन्दर और स्मार्ट लगता है :-)
चलिये देर आये दुरुस्त आये ज्यादा स्मार्ट बन के आये.
अभय ये क्या गडबडी है भाइ...? हमने रात ही तो ये समझा था कि ये मुंबई मे कास्टिंग काउच जैसी किसी परेशानी से बचने के लिये आप दाढी बढाये हो..?,और आपने सुबह सुबह ही दाढी कटवाने के साथ टेलेकास्ट भी कर दिया, मामला पूरी तरह साफ़ करे ..:) वरना हम प्रमोद भाइ से रोशनी डलवायेगे..? :)
ऐसा है कि जब हम आपके घर आये थे तो आपके उस रूप की कल्पना की थी जैसा आपके ब्लॉग पर चढ़ा था । अचानक बाबाजी वाला रूप देखकर हम थोड़ा अचंभित हुए । पर जहां तक हमारा मानना है दूसरे क्या कहते हैं इससे क्या, आपकी मर्जी चाहे बढ़ायें चाहे कटायें
मुबारक हो!
अरे ये मैं हूं.
इरफ़ान
ऐसे डरावने चित्र चिट्ठे पर न लगाया कीजिये :)
मान गए आपको। चेहरा तो देखने लायक है। दाढ़ी वाला और बिना दाढ़ी वाला, दोनों ही। ....आज पहली बार दिखा। मंह दिखाई का क्या लेंगे ?
दाढ़ी में मार्क्स को टक्कर देते जान पड़ते हैं। सफ़ाचट्ट अवस्था में वह बौद्धिकता की ख़ूबसूरती तिरोहित हो गई है। :)
फोर ए चेंज, बढ़ाना कटाना चलता रहता है. मगर आपके बाहरी दिखाव का अन्दर के मन पर असर जरूर पड़ता है. तो हेंडसम बने रहें. :)
वा वा, दाढ़ी वाली हो या बिना दाढ़ी वाली पर आंखों मे आपकी निर्लिप्तता झलकती है!!
आप की हर छवि अच्छी है
चाहे ये हो चाहे वो हो।
आपके चंदू के आग्रह को आप के बोधिसत्व ने कल हा पूरा कर दिया था । हो सके तो आप कभी-कभी बोधिसत्व को भी पढ़ लिया करें । वो गरीब है तो क्या आप का अपना है।
एक शुभचिंतक
जैसा ऊपर वाले ने बनाया है वैसे रहें या जैसा हम चाहते हैं वैसे रहें। यह तो व्यक्तिगत मामला है।एक गीत मे कहा है ना...जो अच्छा लगे उसे अपना लो,जो बुरा लगे उसे जानें दो..हरिक चीजं के पैमाने दो...
हम तो भईया एतना ही जानते है कि आप निर्मल आनंद वाले तिवारी जी हो । ठीक ही कहे हो भाई कोई साधुता उगाई जा सकती है वो तो आपमें अंदर से भरी है जो आपके पोस्टों में दिखती ही है फक्कडपन और विषयों में पकड हमारी समझ में साधुपन ही तो है ।
अरे अब आप मिलेंगे तो आपको चीन्हेंगे कैसे? पूरा सफ़ाचट्ट!!!! और उस पर भी कई फ़ोटो साट दिये हैं,कनफ़्यूज़न अभी भी बरकार है कि इनमें से असली वाला निर्मल-आनन्द कौन ह? लेकिन इस धरणा पर तो बहस हो ही जानी चाहिये कि दाढी कटा ले तो उसका असर विचारॊ पर भी पडता है. पड़्ता है क्या? क्या मूंछ के रखने और ना रखने से भी इसका कोई समबन्ध है? बताइयेगा !!
वाकई खुद को छवि का गुलाम नहीं बनने देना चाहिए। कोई छवि रूढ़ हो, इससे पहले ही उसे खचाक से तोड़ देना चाहिए। अच्छा आत्म-निरीक्षण है। चलते रहना चाहिए। 'बाबा' बनने के लिए ऐसा करते रहना ज़रूरी है।
ये तो अपनी खेती है जब चाहो फ़सल उगाओ, जब चाहो काट लो.
हालाँकि मैने तो कुछ ही दिन पहले आपको सफ़ा चट अवस्था में देखा है , इसलिए मुझे ज़्यादा आश्चर्य नहीं हुआ.लेकिन ये लेख बहुत अच्छा लगा.
आपको कोई अंदाज़ा है आप दिख कैसे रहे हैं? स्वामी न दिखने का ये मतलब नहीं कि आप दूसरे छोर पर जाकर गुंडा दिखने लगें? हाल में कभी किसी हवालात के अंदर पैर रखा है? नोटिस बोर्ड में जाली के अंदर दर्ज़ राहजनी और छेड़खानी और पाकेटमारी में लिप्त संदिग्ध चेहरों के मग शॉट देखे हैं? नहीं देखे हैं? ठीक है, उन्हें देखने के लिए किसी हवालात तक के सफ़र की ज़रूरत नहीं है, अपने ब्लॉग पर ही आप उनका दर्शन पा रहे हैं? हद है..
अब हुई न बम्बई टाईप बात-वरना तो हम सोचे थे कि हरिद्वार में कहीं आश्रम होगा-कुछ दिन को मुम्बई आये हैं. बढ़िया भाई. :)
आप् किसी छवि के गुलाम् न् बनें बस् निर्मल बनें रहें आनंद् सहित्!
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