ये नन्हा विचार जिसे आम तौर पर हिन्दी की दुनिया में कविता भी कह दिया जाता है काफ़ी पहले किसी डायरी में दर्ज पाया गया.. शायद १९९० के किसी दिन पर अंकित.. तब प्यार , ईर्ष्या, द्रोह, विद्रोह आदि अनुभूतियां भभक कर हृदय को ग्रसती थीं.. काल के प्रभाव में अब सब कुछ ठण्डेपन की एक वैचारिकता के अन्तर्गत हो गया है.. बस विस्मृति का दोष पहले की तरह आज भी का़यम है..
ये विचार भी स्मृति की रिसाइकिल बिन में ही पड़ा हुआ था.. मगर चिट्ठाजगत पर अपने चिट्ठे को अधिकरण करने की अकुलाहट के चलते.. कि क्या चढ़ाऊँ.. दो घण्टे पहले तो एक बाल कविता चढ़ाई है.. अचानक यह टुकड़ा हाथ आ गया.. चिपका रहा हूँ..
प्यार एक भूली हुई चिट्ठी..
जिसे खोजने में गँवा दिया..
फ़ुर्सत का एक अमूल्य दिन..
विस्मृति ... क्षुद्रतम हथियार..
2 टिप्पणियां:
जनाब इस ड़ायरी को रोज़ खोल, कुछ चिपकाते रहिए. हम भी कुछ रसपान कर लेंगे।
यहां ससुरी समूची ज़िन्दगी गों-गां हुई पड़ी है और आप घटा एक दिन गंवाने को रो रहे हैं? हिंदी साहित्य से ऐसे ही नहीं परेशानी होती रहती लोगों को..
एक टिप्पणी भेजें