कभी सोचा आप ने क्यों इन दो शब्दों का साथ में इस्तेमाल होता है हमेशा? मनोवैज्ञानिक, फ़िल्ममेकर्स और रॉकस्टार्स हों या कोई और इन दो वृत्तियों के इर्द—गिर्द ही घूमते हैं। जहाँ सेक्स आता है वहाँ वायलेंस भी घुसा चाहता है और वायलेंस को तो सेक्स चाहिये ही। ऐसा लगता है कि ये दोनों जोड़ीदार हों जैसे। जबकि वास्तविकता इसके ठीक विपरीत है। वायलेंस जहाँ मृत्युकामी है वहाँ सेक्स जीवनोन्मुखी है (असल में मृत्युकामी कहना विरोधाभास है.. क्योंकि काम का एक अर्थ स्वयं सेक्स है। काम का मूल अर्थ इच्छा है) तो कहना चाहिये कि वायलेंस मृत्योन्मुखी है और सेक्स जीवनोन्मुखी।
अब ये बात अलग है कि हमारे समाज में सेक्स को इतना लतिया दिया गया है कि उसके स्मरण मात्र से किसी भी नैतिक मनुष्य के मन में ग्लानिभाव पसीज जाता है। पर सेक्स या कामभाव जीवन की रचना का पूर्वगामी है। इसी बात को अलग तरह से कहें कि जीवन के प्रति मनुष्य (या फिर किसी भी जीव) की आस्था सेक्स के ज़रिये भी अभिव्यक्त होती है।
मगर फिर भी ये सेक्स वायलेंस के साथ वैसे ही जुड़े रहता है जैसे प्रकाश के साथ अँधेरा जुड़ा रहता है। मैंने अक्सर पाया है कि मृत्यु से बेहद घबराए लोग सेक्स की गोद में जा गिरते हैं। गाँधीजी ने जो अपनी आत्म कथा में लिखा है वो कोई अपवाद नहीं है – वे अपनी पिता के मृत्यु के ठीक पहले अपनी पत्नी के साथ सहवास कर रहे थे। मैं नहीं जानता कि गाँधी जी ने ‘शुद्ध वासना’ में ऐसा किया या मृत्यीले अँधेरे से घबरा कर? पर मैं कई दूसरे ऐसे लोगों को जानता हूँ जिन्होने ऐसा सिर्फ़ जीवन को कस कर पकड़ने की चेष्टा में किया होगा। वैसे ‘शुद्ध वासना’ भी जीवन के प्रति एक लोभ से अधिक और क्या है?
सेक्स और वायलेंस का सबसे भयंकर रूप हमें युद्ध में सुनने को मिलता है। मनुष्य जाति का इतिहास जीतती हुई सेना के हिंसा के ताण्डव के बाद हारे हुए लोगों की स्त्रियों के साथ बलात्कार का इतिहास है। मृत्योत्सव में लिप्त सिपाही भी जीवन को पकड़े रखना चाहता है.. और अपनी इस पकड़ को वो मारे गए सिपाहियों की स्त्रियों पर आरोपित करता है। बिना यह विचारे कि वह स्त्री भी क्या जीवन की रचना में उसका सहयोग करना चाहती है या नहीं? वह सिर्फ़ पशुवृत्ति से संचालित होता है।
विडम्बना यह है कि प्रकृति भी उन स्त्रियों की असहमति की पूरी तरह से अनदेखी करती है और जीवन रचने को तैयार रहती है। क्योंकि अधिकतर स्तनपायी पशुओं में तो अक्सर इस तरह की हिंसा के बाद ही सहवास सम्भव होता है।
अगर इस दृष्टि से देखें तो हिंसा भी जीवन की कामना के सहयोगी-वृत्ति के रूप में काम कर रही है.. और महज़ प्रतिद्वन्द्वी को हटाने के लिए ही मूलरूप से अभिव्यक्त हो रही है।
तो फिर क्या हिंसा को मृत्युकामी कहना ठीक ही है?
15 टिप्पणियां:
इस तरह कभी सोचा नहीं था मैने,पर अच्छा विषय चुना आपने इस पर और लिखिये ना...
अभय जी बड़ी अच्छा विश्लेषण किया है. सच में बेहतरीन
-राजेश रोशन
आप तो जो भी लिखेगे, अच्छा ही लिखेगे जी,ये एक विश्लेषक का ब्लोग जो है :)
सूक्ष्म अध्ययन व अवलोकन है।
यह भी महत्वपूर्ण है कि सेक्स व हिंसा का यह विवाह पूरी तरह 'पौरुष' की ही निर्मिति है।
आप ने तो अनेक सवाल छोड़ दिए हैं, बहस के लिए।
mai nhi khungi kbhi aisa nhi soncha bahut bar soncha hai.aapke sabdon ne sonch ke prawah ko bdaya hai.sadhuvad
दुनिया में ये दोनों चीजें भले ही कितने भी दूर की दिखें लेकिन दिमाग में ये काफी पास की हैं। दोनों का मूल भाव बचाने का है- खुद को, अपनी जाति को या संतान के रूप में अपनी निरंतरता को। अभी जनवरी में लाइवसाइंस पर छपी एक रिपोर्ट बताती थी कि इन्सान हिंसा के लिए भी वैसी ही क्रेविंग (तड़प) महसूस करते हैं, जैसी सेक्स के लिए। धीरोदात्त प्रेम इस दृष्टि से एक अवास्तविक अवधारणा मालूम पड़ती है। सेक्स और हिंसा का यह गठबंधन सिर्फ बाजार या पुरुषसत्ता की बनाई चीज नहीं है, बल्कि इसका एक गहरा एनाटॉमिकल पक्ष है। अभयानंद जी, इसे एक दार्शनिक सुर्रे की तरह छोड़कर भूल मत जाइए। हो सके तो इस बारे में दबाकर कुछ काम कीजिए।
पस्चिम मेँ सेक्स और वायोलँस, Sex & violence ( which usually is entwined with some forms of Crime ) का खुला उपयोग, बाजार्वाद ने किया है
जो हर इन्सान को मनोवैज्ञानिक तौर पर भी स्पर्श कर जाता है.
युध्ध के बाद यही Kesovo / किसावो मेँ हुआ जिसका इतिहास गवाह है.
सँस्कृति की स्थापना , हमेँ इसी पशु अवस्था से उपर उठाने की चेष्टा करने का प्रयास है --
कौन सी सभ्यता इसका निरुपण कितने अँश तक कर पाती है उसी पर, समाज की शाश्वतता का आधार सँभव होता है.
वील ड्युरान्ट ने इसी को लक्षित करते, भारत का इस्तक्बाल किया था.
-- लावण्या
आप ने तर्क तो बड़िया दिये लेकिन निष्कर्श जरा विवादास्पद हैं। क्या हर प्रकार की हिंसा जीवनोमुखी है जैसे सेक्स्। जब एक आदमी को फ़ांसी दी जाती है तो क्या ये सोच कर दी जाती है कि इसकी स्त्री को हासिल करना है, क्या न्यायाधीश के आदेश पर दी फ़ांसी को सिर्फ़ कर्तव्य पालन ही कहेगें हिंसा न कहेगें।
हां ये सच है कि युद्ध के बाद जो कुछ भी स्त्रियों के साथ होता है उसमें मौत के खौफ़ से निजाद पाए सिपाही जिन्दगी का उत्सव मनाना चाह्ते हैं ।
कुछ दिन पहले एक वनस्पति वैज्ञानिक ने हमें बताया था कि अगर तुम चाह्ती हो कि पेड़ फ़ूलों से लद जाए तो उसे पानी देना बंद कर दो यहां तक कि वो मौत के कगार तक पहुंच जाए, तब देखो वो फ़ूलों से लद जाएगा, क्युं? पेड़ भी मरने से पहले अपनी नसल बचाने की कौशिश करता है, फ़ूल होगें तो उसके बीज जर्मिनेट होने के चांस ज्यादा होगें। evolutionary psychology कहती है कि दुनिया में हर जीवित वस्तु एक ही ध्येय से जन्म लेती है कि अपनी नस्ल आगे बड़ानी है। और हमारा हर काम इसी से प्रेरित है। सोच कर देखिए
सुन्दर! चंद्रभूषण जी की बात का ख्याल किया जाये-दार्शनिक सुर्रे की तरह छोड़कर भूल मत जाइए। हो सके तो इस बारे में दबाकर कुछ काम कीजिए।
बहुत बेहतरीन तरीके से अपनी बात रखी है मगर विमल भाई से सहमत होते हुए निवेदन है कि और आए बढ़ाये-अभी बहुत सी संभावनाऐं हैं इस पर आगे लिखने की. शुभकामनाऐं.
अरे ये तो कमाल की थियरी ले आए आप।
बहुत बढिया !आपकी पोस्ट और चन्द्रभूषण ,अनिता जी व लावण्या जी के कमेंट्स पढकर दिमाग की खुजली दूर हुई ।ऐसे भारी विषय मिलते रहें तो हम मूर्खों के लिए ब्लॉगिंग करना सार्थक हो जाए ।
आपने एक बार फिर एक अत्यंत जटिल विषय की गहराइयों में उतरने की उम्दा कोशिश की है। बहुत अच्छी लगी यह पोस्ट, अत्यंत विचार-प्रेरक।
सेक्स और वायलेंस सचेतन मानस की आदिम प्रवृत्तियाँ हैं। ये प्रवृत्तियां प्राण ऊर्जा के उद्दाम संवेग से संचालित होती हैं। मगर इनके मूल में अनिवार्य रूप से एक संकल्प-शक्ति क्रियाशील होती है। यह संकल्प-शक्ति सत् है या असत्, इसी से सेक्स और वायलेंस की शुभ या अशुभ प्रकृति निर्धारित होती है।
सेक्स और वायलेंस मन की असहज, असंतुलित और आसक्त अवस्था के व्युत्पन्न हैं। सहजता, संतुलन और साक्षीभाव के निरंतर अभ्यास से मन सेक्स और वायलेंस की ओर अनियंत्रित विचलन से बचा रहता है।
आपने सही कहा है। लेकिन इस तरह से विवेचन करने पर बाक़ी के शास्त्रीय दोष जैसे क्रोध, लोभ, मोह आदि भी जीवनकामी ही लगते हैं। शायद हैं भी।
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