शाम को मैं और प्रमोद भाई यूँ ही टहलते हुए आरे में छोटा कश्मीर नामक एक पिकनिक स्थल पर निकल गए तो वहाँ भी हम ने कई परिवारों को छुट्टी मनाते पाया. उनमें से कुछ ने सफ़ेद परिधान धारण किए थे. देश के एक बहुसंख्यक समुदाय के लिए छै दिसम्बर के जो मायने हैं हम (सवर्ण जन) उस से अपरिचित हैं. दिलीप मण्डल आज कल इन्ही मुद्दो पर एक ज़बरदस्त बहस छेड़े हुए हैं.
मगर शिवसेना वाले मेरे मित्र के समर्थक नहीं निकले. ये समझते ही कि डॉक्टर साब उत्तर भारतीय हैं उनके गाल पर एक करारा तमाचा जड़ दिया गया...
पर आज देख रहा हूँ कि हमारा हिन्दी ब्लॉग संसार इतना बड़ा हो गया है कि कल हुई एक दूसरी गरमागरम बहस की हमें कुछ हवा भी नहीं हुई. मैं उस बहस का ज़िक्र कर रहा हूँ जिसके केन्द्र में अनुनाद सिंह है. वो हैरान हैं कि राही मासूम रज़ा बाबरी मस्जिद के गिराए जाने पर खुश क्यों न हुए. उधर भूमण्डलीकरण के खिलाफ़ आवाज़ बुलन्द करने वाले हमारे जुझारु मित्र संजय तिवारी भी कुछ ऐसी ही भावनाओं में उतरा रहे थे. और वे अकेले नहीं हैं जो इस मन्दिर-मस्जिद विवाद के नाम से ही भावुक हो जाते हैं. सर्वप्रिय और अतिसंवेदनशील बड़े भाई ज्ञानदत्त जी भी इस विषय पर अपनी बेबाक राय रखते हैं.ये आज की स्थिति है.. मुझे याद है १९९२ के साल के उन अन्तिम दिनों में मैं दिल्ली में था. पूरा देश अडवाणी जी की रथयात्रा के चलते एक अनोखे बुखार में तप रहा था. इस बुखार में लोग अपने आम व्यवहार को भूल कर कुछ का कुछ हो जा रहे थे. हमारी मित्र मण्डली में हिन्दू-मुस्लिम सभी तरह के लड़के-लड़कियाँ थे. और हमें इस बात का एहसास भी न था कि कौन हिन्दू और कौन मुस्लिम है. मगर अन्दर-अन्दर भावनाएं और विचार एक भयावह शकल में गड्ड-मड्ड हो चुके थे. एक मौका ऐसा भी आया कि एक सामान्य बातचीत एक ऐसी गन्दी बहस में तब्दील हो गई जिसके अन्त में मेरी एक मुस्लिम सहेली आहत हो कर रोते हुए वहाँ से चली गई. ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था.
सच तो ये है नरसिंहराव ने भाजपा के हाथ से तुरुप का पत्ता गिरवा लिया. जिसकी वजह से आज उनकी हालत ये है कि उनके पास कोई मुद्दा नहीं है...
कड़वी बात कहने वाला मित्र कोई अनपढ़ मूर्ख नहीं ऎम्स में उच्च शिक्षा प्राप्त कर रहा एक डॉक्टर था. उसके चले जाने के बाद बचे हुए दोस्तों में बहस में गरमी और बढ़ गई और होते-होते बात शब्दों से उतर कर हाथ-पैरों तक पहुँच गई. ऐसा भी पहले कभी नहीं हुआ था.कुछ रोज़ बाद बाबरी मस्जिद गिर गई. दोस्तों से साथ धीरे-धीरे छूट गया. मैं काम की तलाश में मुम्बई आ गया. जब मैं आया तो मुम्बई में पहले दौर के दंगे हो चुके थे और दूसरे दौर के दंगे मेरे आने के बाद हुए. शहर में ज़बरदस्त तनाव रहता. दिन में ये तनाव दोपहर की नमाज़ के वक़्त अपने चरम पर पहुँचता. जब बड़ी संख्या में नमाज़ियों के मस्जिद के आगे जुट जाने से रास्ता जाम हो जाता. शिवसेना ने इसके जवाब में महाआरती का अभियान चलाया हुआ था. दिन का ये तनाव कम होता भी न था कि शाम ढलते ही लोग घर लौटने के लिए हड़बड़ाने लगते. सब तरफ़ शिवसेना के लोग गश्त लगाते रहते.
हम मुम्बई में नए-नए आए थे.. सुनते थे कि मुम्बई में नाइटलाइफ़ होती है. हमारा वह डॉक्टर दोस्त भी उन दिनों मुम्बई में मौजूद था. एक दिन ऐसे ही किसी दोस्ताना जश्न का हिस्सा होने के बाद लौटते हुए हमें शिवसेना के कार्यकर्ताओं ने रोक लिया. डॉक्टर साब ने थोड़ी पी रखी थी और हिन्दू होने के नाते वे शिवसेना के समर्थक भी थे इसलिए निर्भीकता से रिक्शे से उतरे मगर शिवसेना वाले मेरे मित्र के समर्थक नहीं निकले.
ये समझते ही कि डॉक्टर साब उत्तर भारतीय हैं उनके गाल पर एक करारा तमाचा जड़ दिया गया. एक ही झटके में हम सब का नशा हिरन हो गया. हमें छोड़ तो दिया गया मगर उस रोज़ के बाद से मेरे अन्दर हमेशा एक डर सा बना रहता.. अपनी दाढ़ी के चलते मुसलमान समझ लिए जाने का डर. वो दाढ़ी मैंने सिर्फ़ इसी डर के चलते निकाल दी. लेकिन वह डर मुझे हमेशा याद दिलाता रहा कि उन दिनों मुम्बई में सचमुच एक मुसलमान होने का मतलब मन में कैसा भाव पैदा करता होगा..
मस्जिद गिरे और मन्दिर बने, मन्दिर गिरे और मस्जिद बने.. मुझे कोई फ़र्क नहीं पड़ता..
मुम्बई में ही क्यों अडवाणी साहब ने तो पूरे देश को इस डर में डुबो देने की साज़िश की थी. सच तो ये है कि उन्हे मन्दिर बनाने और मस्जिद गिराने में कोई दिलचस्पी नहीं थी. उन्हे सिर्फ़ एक जज़्बाती माहौल बनाने में रुचि थी जिसमें वह अपनी चुनावी फ़सल काट सकें.वैसे तो मुस्लिम समुदाय नरसिंहराव को अपना बड़ा दुश्मन मानते हैं मगर मुझे कभी-कभी लगने लगता है कि वह आदमी मुस्लिम समुदाय और इस देश का हितचिंतक था. क्योंकि अगर वह बाबरी मस्जिद को बचा लेता.. तो आज भी देश को बार-बार उसी मस्जिद का वास्ता देकर भावनाओं के ज्वार में झोंका जाता और जिस मरगिल्ली हालत में आज भाजपा पहुँच रही है वह नहीं होने पाता. सच तो ये है नरसिंहराव ने भाजपा के हाथ से तुरुप का पत्ता गिरवा लिया. जिसकी वजह से आज उनकी हालत ये है कि उनके पास कोई मुद्दा नहीं है.
कुछ लोग मानते हैं कि मस्जिद गिर जाने से पुरातत्व और विज्ञान के बड़ी हानि हुई. मैं ऐसा नहीं सोचता. मैं भाजपा का विरोधी हूँ इसलिए नहीं कि उन्होने बाबरी मस्जिद गिराई. मस्जिद गिरे और मन्दिर बने, मन्दिर गिरे और मस्जिद बने.. मुझे कोई फ़र्क नहीं पड़ता, मेरी आस्था पर कोई फ़र्क नहीं पड़ता, मेरे भगवान पर कोई फ़र्क नहीं पड़ता. ईंट-पत्थर गारा है.. और क्या है.
पर भाजपा ने अडवाणी के नेतृत्व में इस देश में जो हिन्दुओं और मुसलमानों को एक दूसरे के खिलाफ़ खड़ा किया मुझे उस से परेशानी है. जिस नफ़रत, गुस्से और डर का संचार किया गया मुझे उस से तक़्लीफ़ है. इस बेबात के मुद्दे को लेकर आपसी हिंसा में जो सैकड़ो निर्दोष लोगों का खून बहाया गया मुझे उस से दर्द होता है.
और दर्द इस बात से होता है कि बहुत सारे मित्र धोखे में हैं कि ये मामला राम मन्दिर बनाने का है.. अगर उन्हे मन्दिर बनाना होता तो वो बातचीत के रास्ते से कब का बन गया होता.. पर वे मन्दिर नहीं चाहते, धर्म नहीं चाहते, शांति नहीं चाहते.. वे बातचीत नहीं चाहते.. वे लड़ाई चाहते हैं.. दंगा चाहते हैं.. और मुझे दंगाईयों से परेशानी है..
14 टिप्पणियां:
बहुत सही!!
पढ़कर ऐसा लग रहा है कि आपने करीब-करीब मेरे विचारों को ही शब्द दे दिए हों।
सहमत हूं आपके कथन से!!!
उज्जैन में महाकाल के मन्दिर के बारे में जब पता चला कि पुराना मन्दिर तो नष्ट कर दिया गया था और वर्तमान मन्दिर रानोजी शिन्दे का बनवाया है तो ठेस लगी थी। वैसा ही बामियान के बुद्ध के भन्जन पर भी लगा था।
रही बात धार्मिक सौहार्द की, वह तो सभ्य समाज में होना ही चाहिये। बर्बरता चाहे इस्लाम की हो या बजरन्गी की या वर्वर राव के शिष्यों की, जस्टीफ़ाइड नहीं है।
बहुत बदिया लिखा है.
"उन्हे मन्दिर बनाने और मस्जिद गिराने में कोई दिलचस्पी नहीं थी. उन्हे सिर्फ़ एक जज़्बाती माहौल बनाने में रुचि थी जिसमें वह अपनी चुनावी फ़सल काट सकें." यह तो हर राजनैतिक दल की रुचि है, कॉमन इंट्रेस्ट है...
बहुत अच्छे विचार हैं। बहुत अच्छी तरह व्यक्त किये अपने भाव!
अरे इस पर अज़दक की टिप्पणी अभी तक नहीं आयी? लेकिन चलो भई, कमाल का लिखा। वाह वाह। वाह वाह। वाह वाह।
मेरी आस्था पर कोई फ़र्क नहीं पड़ता, .......सैकड़ो निर्दोष लोगों का खून बहाया गया मुझे उस से दर्द होता है.....
यही दर्द बर्फ रगों में दौड़ने लगता है और समूचे आसितत्त्व को जड़ कर देता है.
पूरी तरह सहमत। जब बाबरी मस्जिद ढहाई गई और यह खबर प्रेस में आई तब किसी सोच में गाफिल था। जैसे ही कानों तक पहुंची मुझे अच्छी तरह याद है मेरे मुंह से भद्दी सी गाली निकली थी। बॉस रामभक्त थे। वो नाराज़ हो गए थे। आप समझ सकते हैं गाली किनके लिए निकली होगी।
कुछ लोग मानते हैं कि मस्जिद गिर जाने से पुरातत्व और विज्ञान के बड़ी हानि हुई. मैं ऐसा नहीं सोचता. मैं भाजपा का विरोधी हूँ इसलिए नहीं कि उन्होने बाबरी मस्जिद गिराई. मस्जिद गिरे और मन्दिर बने, मन्दिर गिरे और मस्जिद बने.. मुझे कोई फ़र्क नहीं पड़ता, मेरी आस्था पर कोई फ़र्क नहीं पड़ता, मेरे भगवान पर कोई फ़र्क नहीं पड़ता. ईंट-पत्थर गारा है.. और क्या है.
पर भाजपा ने अडवाणी के नेतृत्व में इस देश में जो हिन्दुओं और मुसलमानों को एक दूसरे के खिलाफ़ खड़ा किया मुझे उस से परेशानी है. जिस नफ़रत, गुस्से और डर का संचार किया गया मुझे उस से तक़्लीफ़ है. इस बेबात के मुद्दे को लेकर आपसी हिंसा में जो सैकड़ो निर्दोष लोगों का खून बहाया गया मुझे उस से दर्द होता है.
आपने पहले पैराग्राफ मे बहुत अच्छी और सही बात लिखी है. मैं इसका समर्थन करता हूँ.
पर दुसरे पैराग्राफ मे लिखी बात पूर्णतया सत्य नही है कि जो कुछ किया भाजपा ने किया. और भी बहुत सी प्रायः सभी पार्टियों ने यही किया है.
एक बात बतादूँ कि मैं कोई भाजपा समर्थक नही हूँ.
दंगाइयों से मुझे भी परहेज है....मैं भी सब कुछ झेल सकता हूँ पर दंगाई नहीं.....
अभयजी, आपकी बात से पूरी तरह सहमत हैं. आपने जिस बेबाकी से अपनी बात रखी है हम उसके कायल हो गए हैं.
बहुत खूब लिखा आपने
बताया नहीं कि आपकी उस मित्र का क्या हुआ दोस्ती सलामत है या फिर इस हिंदू मुसलिम झगडे की भेंट चढ गई।
आप की दुआ से दोस्ती सलामत है दोस्त..!
देर से पढ़ा। लीक से हटकर एक अच्छा विश्लेषण। सोचने पर मजबूर करने वाले बीज तत्व भी हैं।
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