स्वामी जी ने अनेको अद्भुत बाते कही हैं मगर सफ़र को नज़र का धोखा कहने की जो चुनौती उन्होने ली है वह सबसे शानदार है..
आदमी के जीवन को स्वामी जी ने बेहद नन्हे-नन्हे ठहरे हुए अनुभवों के एक सिलसिले के बतौर परिभाषित किया है. बताया जाता है कि इस खयाल पर पहुँचने के पहले वे एक पुरानी सिनेमेटोग्राफ़ी रील का मुआइना कर रहे थे. इस प्रस्थान बिंदु से वे जीवन में किसी भी तरह के निरन्तरता या प्रगति की सच्चाई को नकारते हैं. वे ये मानने से इंकार करते हैं कि समय वैसे ही चलता है जैसे कि आम राय है.. और एक स्थान से दूसरे स्थान तक जाने की यात्रा में या आम जीवन में भी जो प्रगति या निरन्तरता का रोज़मर्रा का अनुभव होता है वह सिर्फ़ और सिर्फ़ एक भ्रम है और कुछ नहीं..
अगर कोई व्यक्ति किसी एक बिन्दु ‘क’ पर विश्राम में है और वह किसी दूसरे बिन्दु ‘ख’ पर जा कर विश्राम में होना चाहता है तो ऐसा करने का एक ही तरीका है.. क और ख के बीच के अनगिनत स्थानों पर अनगिनत अन्तरालों पर विश्राम करते हुए ही वह ऐसा कर सकता है..
निरन्तरता के धोखे की जड़ वह मानव मस्तिष्क की अक्षमता में मानते हैं..जो इन अनगिनत विश्रामों के सत्य को देख नहीं पाता.. और उन सबको संगठित रूप में गति का नाम दे देता है.. गति नज़र का एक धोखा है.. और यह बात किसी भी फोटो से सिद्ध की जा सकती है..
-फ़्लैन ओ'ब्रायन की किताब थर्ड पुलिसमैन का एक टुकड़ा-
5 टिप्पणियां:
ओह ! ओह ! तो मैं पूरा जीवन एक धोखे को जी रही थी ।
मुझे तो लगता है कि गति और स्थिरता दोनों ही सच है और एक-दूसरे से ऐसे गुंफित हैं कि इन्हें अलग नहीं किया जा सकता। मास और एनर्जी का फॉर्मूला भी तो यही कहता है कि दोनों को एक-दूसरे में बदला जा सकता है...E=mc.c
हम तो ये सब ऊष्मागतिकी (Thermodynamics) में पहले ही पढ चुके हैं । Quasi-Steady process ही है ये जीवन :-)
एक बार एक दार्शनिक को सपना आया कि वो एक तितली है और पूरी दुनिया में घूम फ़िर रहा है । सुबह उठने पर उसने सोचा कि उसने जो देखा वो सपना था या जो अब देख रहा है वो एक तितली का सपना है :-)
मुझे तो बुद्ध और अंगुलिमाल के बीच हुए संवाद की याद आ गई गुरुदेव आपको पढ़ कर....
सही है।क्या ये कैसे बतायें?
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