व्यक्ति ने कैसा भी लिखा हो अगर कोई ये कहने वाला मिल जाय कि अच्छा लिखा/ लिखते रहें/ आभार तो लिखने का बल बना रहता है..
आप का डर है कि ये प्रवृत्तियाँ हिन्दी साहित्य की दुनिया की हैं जिसने साहित्य की दुनिया को बरबाद कर रखा है। मैं आप की यह बात भी मान लेता हूँ, बावजूद इसके कि हिन्दी साहित्य की दुनिया को मैं ठीक से नहीं जानता। पर अपने समाज को जानता हूँ जिसमें भाई-भतीजावाद, जुगाड़वाद खूब चलता है। मेरा मानना है कि चूँकि इस बुराई की जड़ हमारे उस समाज में हैं जिस से हम आते हैं तो इस से पूरी तरह बच पाना असम्भव होगा।अंग्रेज़ी ब्लॉगस की दुनिया में ये प्रवृत्ति इस तीव्रता से नहीं मिलती.. पर मिलती है। अतनु डे के ब्लॉग पर आप उन्ही पाठकों को बार-बार आते हुए देख सकते हैं.. पर वे ‘पीठ नहीं खुजाते’.. बहस करते हैं। फिर हमारे हिन्दी ब्लॉगस की दुनिया में ऐसा क्यों है? इस का विरोध करने से पहले इसे समझा जाय ! मेरे समझ में ये पाठकों की सीमा के चलते हैं.. जो चिट्ठाकार हैं वही पाठक भी हैं। ऐसे लोग बहुत ही कम हैं जो शुद्ध पाठक हैं- जैसे जैसे वे आएंगे.. चिट्ठाकार टिप्पणी पाने के लिए साथी चिट्ठाकारों पर निर्भरता से स्वतंत्र हो जाएगा।
चमचागिरी/ चाटुकारिता गन्दी चीज़ें हैं.. समझदार व्यक्ति इनसे जितना दूर रहे उतना ही वह वास्तविकता के करीब रहेगा। पर दुनिया के सभी लोगों को अपनी तारीफ़ अच्छी लगती है.. यह भी एक वास्तविकता है! ..
इस बारे में समीर लाल जी ने मुम्बई के ब्लॉगर मिलन में बड़ी अच्छी बात बताई। उन्होने बताया कि हिन्दी चिट्ठाकारिता के शुरुआती दिनों में बहुत सारे चिट्ठे सिर्फ़ इसलिए बंद हो गए क्योंकि कोई टिप्पणी नहीं मिली। उन्होने बताया कि खुद अपनी कई पोस्ट को उन्होने कई बार दुबारा चढ़ाया ताकि टिप्पणी आए। अपने भीतर टिप्पणी की ऐसी चाह देखकर उन्हे टिप्पणी के संजीवनी होने का एहसास हुआ और उन्होने घूम-घूम कर उत्साहवर्धक टिप्पणी बाँटना शुरु कर दिया। व्यक्ति ने कैसा भी लिखा हो अगर कोई ये कहने वाला मिल जाय कि अच्छा लिखा/ लिखते रहें/ आभार.. तो लिखने का बल बना रहता है- ऐसा कहा समीर भाई ने। जब कि हिन्दी चिट्ठाकारिता अपने शैशव काल में थी.. ऐसे उत्साहवर्धन की ज़रूरत थी। अब कितनी ज़रूरत है और आगे कितनी ज़रूरत पड़ेगी ये दूसरे सवाल हैं..सवाल ये भी है कि टिप्पणी क्यों चाहिये हमें या लिखने वाले को? जैसे कवि को श्रोता चाहिये.. गाने वाले को सुनने वाला चाहिये.. अभिनेता को देखने वाला चाहिये.. वैसे ही ब्लॉगर को टिप्पणी करने वाला चाहिये.. मेरे विचार से तो इसे आर्यसत्य मान लिया जाय! चमचागिरी/ चाटुकारिता गन्दी चीज़ें हैं.. समझदार व्यक्ति इनसे जितना दूर रहे उतना ही वह वास्तविकता के करीब रहेगा। पर दुनिया के सभी लोगों को अपनी तारीफ़ अच्छी लगती है.. यह भी एक वास्तविकता है!
मेरे एक मित्र हैं जो सालों तक क्रांतिकारी राजनीति से जुड़े रहे। उनका अपना ब्लॉग भी है। और टिप्पणी के बारे में उनकी राय आप से ज्यादा अलग नहीं है। पहले तो करते नहीं और करते हैं तो साधुवादी टिप्पणी कभी नहीं.. असहमति की अभिव्यक्ति या बहस में योगदान के लिए ही बस। यही साथी अपने चिट्ठे पर टिप्पणी के अभाव में बेचैन हो कर चिट्ठा बंद कर देने जैसे विचार से भी दो चार होने लगते हैं।
मेरी समझ में सामाजिक तौर पर हिन्दी समाज एक हीनग्रंथि से ग्रस्त समाज है.. जिसका आत्मविश्वास झूला हुआ रहता है.. टिप्पणियाँ हमारे आत्मविश्वास का सहारा बनती हैं। जिस दिन हम अपनी इस ग्रंथि से मुक्त हो जाएंगे तो टिप्पणी की हमारी भूख पूरी तरह शांत भले न हो कम ज़रूर हो जाएगी..
12 टिप्पणियां:
aje hum kya mar gayein hain jo aap aisee munaadi karwaa rahein hain aap likte jaaye hum aapki chippiyon par ek se ek tippiyan lagaayenge.
aapka
jholtanma
मैं समीर जी के विचारो से सहमत हूँ यदि ब्लागर को प्रोसाहित न किया जाए तो ब्लागर की रूचि नही रहती है और ब्लॉग बंद होने की कगार पर आ जाते है. इसीलिए ब्लागर को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए
दिलीप जी ने लिखा वो भी ठीक था और और आप ने जो कहा वो तो बहुत ही अच्छा है,पर टिप्पणी का सिर्फ ये मतलब निकाल लेना कि सिर्फ टिप्पणी चाटुकारिता के लिए ही की जाती है गलत है,टिप्पणी करने से पढना भी जरूरी है मतलब कि आपने जो भी बङा सोच समझकर लिखा वह किसी ने पढा तो सही.यहां सब स्थापित लेखक नहीं है मेरे जैसे लोग जो लेखक नहीं पर सोचते बहुत हैं उनके लिए चिटठा लेखन अपने को अभिव्यक्त करने का एकमात्र साधन है,टिप्पणियां आपको सुधरने का और अपने विचारों को और अधिक तरीके से अभिव्यक्त करने का मौका देती है
भाई, ब्लॉगर को टिप्पणी संजीवनी है। गाली भी चलेगी। आप मेरे ये आलेख पढें तो शेष टिप्पणी पूरी हो जाएगी।
आलेख http://anvarat.blogspot.com/पर मिल जाऐंगे।
सही कहा आपने ...अंदाज भी अच्छा लगा ...बधाई
चमचागिरी की परिभाषा आज तक सर्व मान्य इस लिए नही बन पायी कि अपने द्वारा ख़ुद के लिए पाये शब्द
सम्मान ,आदर और सही करार दिया जाता है .दूसरे के लिए यही शब्द अतिशयोक्ति दिखती है . जिसे एक
साधारण आदमी चमचागिरी ,या चाटुकारिता कह जाता है. टिपण्णी जारी रहे . ब्लोगर मीट भी हो .
किसी का थोपा हुआ सिधांत , विचार को कैसे मान लेगा . जरूरी है केवल साफ सुथरे विचार उकेरे जाएँ पढेंगे अच्छा लगेगा टिपण्णी देंगे ही . अच्छा नही लगेगा तब भी टिपण्णी देने कि हिम्मत रखनी होगी . क्योंकि साहित्य अगर समाज का दर्पण है . तो दर्पण साफ रहे इसी बात कि दरकार है . समीर साहेब से सहमति
है. मिहिर भोज साहेब पेशे से डॉ. हैं उनतक टिपण्णी के माध्यम ही जाना हुआ . बथुआ और रूसी फटी एडियों
सब पढ़ पाया जो काफ़ी लाभ प्रद लगा . बिना टिपण्णी के आ गए . पर ये मेरी चमचागिरी मे ही गिना जाएगा
तो भी कोई बात नही . अच्छे को अच्छे ही कहा जाना चाहिए बुरा को बुरा . ये टिपण्णी द्वारा ही सम्भव है
टिप्पणीयाँ प्रेरणा स्वरुप होती हैं।और शायद किसी हद तक लेखन को सार्थकता का आभास देती है।
टिप्पणियाँ चाहिए भाई....बिना इसके लिखते रहना मुश्किल होता है...
अपन तो जी एक ही टिपण्णी करना चाहते है कि
" टिपण्णी है तो ब्लाग, ब्लागियर और पोस्ट है वरना कुछ नही."
अभय जी, टिप्पणियों का हमारी विधा में महत्व है और इससे इनकार मुझे भी नहीं है। लेकिन एक ब्लॉगर उठता है, एक एक कर कुछ ब्लॉग पर जाता है, एक-एक लाइन में जोई सोई कछु लिख देता है, तो ऐसी टिप्पणियां किसी को क्या सुख दे सकती है, ये मेरी समझ से परे है। किसी ब्लॉगर की एक पंक्ति से प्रेरणा लेकर कह रहा हूं कि जब हिंदी में लाखों ब्लॉग होंगे तो न ऐसी टिप्पणियों की जरूरत होगी न ही ब्लॉग मिलन की। अभय भाई, मुझे खुशी है और इस बात का सुख भी, कि हमारा संवाद बिना किसी कड़वाहट के पूरा हो रहा है और आगे संवाद की गुंजाइश बनी हुई है। नमस्ते।
अभय जी आपकी ये पंक्तियां सार है, और खोजें तो समाधान भी-
मेरी समझ में सामाजिक तौर पर हिन्दी समाज एक हीनग्रंथि से ग्रस्त समाज है..
दिलीप भाई की ये बात बढ़िया रही कि-हमारा संवाद बिना किसी कड़वाहट के पूरा हो रहा है ।
अब खुद की बात। अभयजी , ऐसा कब तक चलेगा कि मेरे मन की बातें आप लिखते रहेंगे और मै कमबख्त, बदबख्त सिर्फ सफर की कड़ियां लिखता रहूंगा...कब तक... आखिर कब तक।
टिप्पणी लिखवा लेती है पोस्ट । समय का तोड़ा न हो तो बिना अपेक्षा के सिर्फ टिप्पणियां ही करता रहूं में।
एक टिप्पणी भेजें