रविवार, 22 जुलाई 2007

बीमारी का प्रतिबिम्ब?

मेरे एक बेनाम मित्र ने पूछा है कि मैंने फ़ारसी का पीछा क्यों छोड़ दिया.. कलॉम-ए-रूमी पर रुक क्यों गए मित्र. ..कौन है जो फ़ारसी सीखे और उसके बाद फिर अनुवाद की कोशिश भी करे? कोई नहीं. इसलिए इस काम को छोड़िए मत.. मैं अपने इस अनाम मित्र का बड़ा आभारी हूँ.. अपनी इस ब्लॉग की दुनिया में जब कि लोग बेनामों से आक्रांत हैं.. मुझे एक ऐसे बेनाम भाई से प्रेम मिल रहा है.. मगर इस एक अकेले बेनाम के सहारे में अपनी फ़ारसी की साधना नहीं कर सकता..

मेरे बेनाम भाई.. आप तो हिन्दुस्तानी हैं.. अपने समाज के हाल-चाल से आप परिचित हैं.. मेरे इस काम की मेरे समाज को ज़रूरत नहीं.. हो सकता है मेरे लिए ये अमूल्य हो.. पर मेरे समाज के लिए यह मूल्यहीन है.. रूमी को अपनी भाषा में अपने समाज के बीच ले जाने के जुनून की शिद्दत इतनी नहीं कि वो मेरे अपनी जीवन को एक आर्थिक असुरक्षा के घेरे में धकेल कर मेरे अस्तित्व पर काबिज हो सके..

दूसरी रुचियाँ भी हैं जो इस से भी अधिक तीव्रता से अनुभूत होती हैं.. जैसे भारत के इतिहास में शोध करने की इच्छा.. हिन्दी में एक व्युत्पत्ति कोष बनाने की इच्छा.. इस काम को अजित वडनेरकर जी बखूबी कर सकते हैं.. वे योग्यता व रुचि दोनों रखते हैं.. हो सकता है इसे करने की एक गहरी इच्छा भी रखते हों.. पर न वे इस पर कोई ठोस काम कर रहे हैं.. और न मैं.. वे भोपाल में किसी भूत-प्रेत या हत्या-डकैती या ऐसी ही किसी ठोस सामाजिकता रखने वाले मसले का पत्रकारी पीछा कर रहे होंगे.. मैं मुम्बई में टीवी सीरियल्स के ज़रिये समाज के मनोरंजन की सामाजिकता निभा रहा हूँ.. जिसके बदले समाज हमारे अस्तित्व के लिए आर्थिक सुरक्षा मुहय्या करा रहा है..

तो समझने की बात यह है मेरे बेनाम मित्र कि हम कितना भी धूमिल के विचारों पर श्रद्धा सुमन चढ़ाते रहें कि यदि जीवन जीने के पीछे कोई सही तर्क नहीं है तो रामनामी बेच कर और रंडियों की दलाली कमा कर रोज़ी कमाने में कोई फ़र्क नहीं है.. मगर व्यवहारिक दुनिया में.. आजकल के बाज़ारी लोकतंत्र में यदि आप के पास संख्या की शक्ति नहीं है तो फ़ारसी सीख कर रूमी का अनुवाद करने और उड़ीसा के किसी गाँव में कुपोषण का शिकार हो जाने के बीच ज़्यादा फ़र्क नहीं है..

आज प्रमोद जी मुझ से कह रहे थे कि बी बी सी ने कुछ ज़बरदस्त टी वी सीरीज़ बनाई हैं.. विज्ञान, भाषा, कला, राजनीति, समाज, भूगोल, चिकित्सा.. ऐसा काम किया गया है कि आप आत्मिक रूप से गदगद हो जायं..अपने देश के सैटेलाइट टी वी की बात मैं नहीं करूँगा.. मगर हमारे दूरदर्शन के किस कार्यक्रम के प्रति आप ऐसी भावना रख सकते हैं.. भारत एक खोज ? तमस ? मालगुडी डेज़ ?.. या यू जी सी की दोपहर को प्रसारित होने वाली ज्ञानवर्धक एपीसोड्स.. जिन्हे बनाने में मेरे एम सी आर सी से शिक्षित जनता अग्रणी रही है.. जिनमें मैं भी हूँ.. वो बात अलग है.. कि मैं रोज़ी रोटी के लिए उस दुष्चक्र का हिस्सा बनने के बजाय मुम्बई के बड़े गटर में आ गिरा हूँ..

मैं पूरा दोष समाज को देकर मुक्त नहीं हो जाना चाहता .. कुछ गलती तो व्यक्ति की भी है.. मेरी गलती ये है कि मैं रास्ते तलाशने के पहले ही हार मान के बैठा हुआ हूँ.. अगर कुछ पराक्रम किया जाय तो सम्भव है कि कुछ खिड़कियां खुल जायं.. इस बाज़ारी लोकतंत्र में अभी भी कुछ कल्याण राज्य के अवशेष शेष हैं.. उन के द्वारा दी जा रही सुविधाओं का लाभ उठाया जा सकता है.. मगर काल के वेग ने मेरे और उन संस्थानों के बीच दूरी पैदा कर दी है.. टीवी चैनल मेरे लिए करीब है.. मगर यहाँ की दुनिया में कुछ भी सार्थक करना असम्भव है.. फिर भी रवीश जैसे कुछ लोग टी वी न्यूज़ की दुनिया में सार्थक कर ले जा रहे हैं.. मगर आज उन्होने भी यह भ्रम तोड़ दिया और अपनी सफ़लता का काफ़ी श्रेय अपनी संस्था एन डी टी वी को दे डाला..

मगर मैं कोई अकेला तो नहीं.. अनोखा तो नहीं.. मेरे ही जैसे अनेकों अनेक अभय, सभय, विभय.. इस देश के अलग-अलग इलाक़ों में साँस लेते हुए ऐसी चिन्ताओं में लिप्त हैं.. कुछ संस्थानों के करीब भी है.. कुछ विश्वविद्यालयों में शोध भी कर लेते हैं... कुछ को राज्य द्वारा आर्थिक सुरक्षा और अनुदान और दूसरी सुविधाएं भी मिल जाती हैं.. तो फिर वो कोई सार्थक योगदान क्यों नहीं कर पाते..? क्या व्यक्ति अन्दर से इतना बेईमान हो चुका है कि अपने हाथ के काम आधे अधूरेपन से निबटाने, पहुँच के बाहर की चीज़ों के बारे में सपनियाने और अपनी निरर्थकता के लिए समाज को गरियाने के अलावा और कुछ नहीं करता..? या ये व्यवहार भी उस के भीतर हमारे समाज की बीमारी का प्रतिबिम्ब है.. ?

4 टिप्‍पणियां:

अनूप शुक्ल ने कहा…

समस्यायें इतनी ज्यादा हैं और् काम् से मिलने वाले फ़ल इतनी देर् में मिलते हैं कि उत्साह् की वाट् लग् जाती है। लेकिन् इसी तरह् के वाकये एक् बार् फिर् हवा भर् देते हैं। आपको करने को बहुत् है। रूमी साहित्य् है,अपनी माताजी की कवितायें हैं और् कानपुर् के बारे में जानकारियीं नेट् पर् उपलब्ध करना हैं। :)

अजित वडनेरकर ने कहा…

खरी बात कही। अपने भी मन की है। अनंत को समझने की चाह के बावजूद अपने परिवेश का यथार्थ ही हमें संचालित या मजबूर करता है कि विविध अभिरुचियों के बावजूद हम उनमें से ज्यादातर को संदर्भों की तरह याद रखें, कुछ को बुराई की तरह अपना लें और एकाध को संतान में रोपने की आकांक्षा पाल लें। मैं तो न संस्कृत सीख पाया और न ही अंग्रेजी। मराठीभाषी होने के बावजूद हिन्दी ही मेरी सबकुछ है। कल तो एक स्वजन ने आरोप ली लगा दिया कि मुझमें मराठी-द्वेष है। बहरहाल, संस्कृत-अंग्रेजी सीखे बिना भाषा की पगृडंडी पर आगे कैसे बढ़ूं ? सोचा की लालटेन लेकर रास्ते पर खड़ा हो जाऊं किसी के काम आ सकूंगा। ठोस काम की बात आपकी एकदम सही है। विद्वानों ने जो लिखा उसे ही ज्यादा लोगों तक , आसानी से पहुंचाऊं सो उसी सफर पर निकला हूं। आपने फारसी छोड़ी यहां तो कुछ जोड़ ही नहीं पा रहा हूं ? रोजी कमानी है तो कुछ जबर्दस्तियां भी झेलनी हैं। भारतभवन जा नहीं सकते, सलीमा देख नहीं सकते, क्राफ्टमेला घूम नहीं सकते । रात को दो बजे घर लौट कर शब्दों के सफर पर तो जा ही सकते हैं ?

Third Eye ने कहा…

फिर वही बात. जन सेवक को काहे भड़काते हैं? अरे फारसी इसलिए छोड़ देंगे कि आपके समाज को उसकी ज़रूरत नहीं है ?

फारसी तो दूर की चीज़, आपके समाज को तो उर्दू की भी ज़रूरत नहीं है, भोजपुरी की ज़रूरत नहीं है, मगही, अंगिका, वज्झिका और बुंदेली या गढ़वाली की जरूरत नहीं है. गाँवों-कस्बों की जरूरत नहीं है, रामचरित मानस की जरूरत नहीं है, शब्दों की जरूरत नहीं है, असफल लोगों की जरूरत नहीं है, बाजार में नाकाबिल लोगों की जरूरत नहीं है.

आपके समाज को तो जरूरत है इन चीजों की -- मोबाइल फोन, शॉपिंग मॉल, शेयर बाज़ार, बंगले, कार, बैंक बैलैंस. तो पकड़ लीजिए इन्हीं सबको.

समाज की जरूरत से ही तय कीजिएगा कि क्या किया जाए और क्या छोड़ा जाए? समाज तो अपने बच्चों को भविष्य का मैनेजर बनाने की होड़ में जुटा है. तो ?

हाँ अगर सिर्फ ब्लॉग के लिए फारसी शुरू की थी तो जितने दिन पहले छोड़ा, उससे काफ़ी पहले छोड़ देनी चाहिए थी.

आप तो *तिया बना रहे है.

Gyan Dutt Pandey ने कहा…

अभय> "क्या व्यक्ति अन्दर से इतना बेईमान हो चुका है कि अपने हाथ के काम आधे अधूरेपन से निबटाने, पहुँच के बाहर की चीज़ों के बारे में सपनियाने और अपनी निरर्थकता के लिए समाज को गरियाने के अलावा और कुछ नहीं करता..? या ये व्यवहार भी उस के भीतर हमारे समाज की बीमारी का प्रतिबिम्ब है.. ?"

असल बीमारी इस तरह के सवाल उपजने की है. मेरे मन में ऐसे सवाल तब उपजते हैं जब रीतने का भाव या अवसाद गहराता है. और उस समय आदमी अपने से ईमानदार नहीं होता. अत: बीमारी अपने में होती है - हम खोजते बाहर हैं.

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