शनिवार, 21 जुलाई 2007

भारत के 'भ' में कुछ खास है..

ज्ञानदत्त जी अक्सर अपने नौकर को भृत्य कहकर उल्लिखित करते हैं.. और हर बार मेरे मन में भृत्य शब्द की व्युत्पत्ति की बात कौंध जाती.. आज उसी से बात शुरु करता हूँ.. भृत्य की व्युत्पत्ति संस्कृत की भृ धातु से है.. जिसका अर्थ है.. भरना, पूर्ण करना, पोषण करना.. भरत, भारत, भृगु, भारद्वाज इसी भृ से निकले है.. इसी भृ धातु से बने दूसरे शब्द हैं भ्रातृ और भर्तृ.. जिसके तद्भव रूप हैं भाई और भरतार.. दोनों को शाब्दिक अर्थ पोषण करने वाला ही होगा.. पर रिश्ते के तौर पर एक भाई हो जाता है और एक पति.. खैर.. भार्या भी भूलने योग्य नहीं क्योंकि वह भरण करने योग्य है..

ये 'भ' एक ऐसी ध्वनि है जो 'ध' और 'घ' के साथ अन्य किसी इंडो-यूरोपियन भाषा में नहीं है.. न केंतुम वर्ग की और न सतम वर्ग की.. डा० रामविलास शर्मा अपनी पुस्तक "पश्चिमी एशिया और ऋग्वेद" में लिखते हैं, "..'भ' ध्वनि भारत से बाहर न पहले कहीं थी, न आज है। आदि इंडो-यूरोपियन भाषा में सघोष महाप्राण ध्वनियाँ थीं, सब विद्वान मानते हैं। वे भारत में ही क्यों बच रहीं, इसकी कैफ़ियत कोई नहीं देता.."(अध्याय ८, पृष्ठ २३६)

या ये ध्वनियां आदि इंडो-यूरोपियन भाषा में थी ही नहीं.. ? लेकिन भारत की ओर आने वाली आर्य शाखा ने ये ध्वनियां भारत आ कर विकसित कर लीं..? जन समूहों के भीतर ऐसे भाषाई विकास दूसरे भाषाई समुदाय के संसर्ग में आने से होते हैं.. भारत में ऐसा दूसरा भाषाई समूह द्रविड़ जनो का था.. उन द्रविड़ जनों की प्रतिनिधि भाषा तमिल में 'भ' ध्वनि नहीं है.. 'ख' नहीं है.. 'घ' नहीं है 'ध' नहीं है.. 'थ' नहीं है..

अगर एक पल के लिए मान भी लिया जाय कि 'भ' की यह ध्वनि आर्यों ने द्रविड़ों के प्रभाव में न सही किसी अन्य कारणवश या प्रभाव में विकसित कर ली.. चलिए एक बिरादर को बदल कर भ्रातृ कर लिया.. फिर उसके बाद भ का विस्तृत संसार सिर्फ़ भृ धातु और उसके बच्चे कच्चो पर ही समाप्त नहीं हो जाता.. 'भ' से शुरु होने वाली दूसरी धातुओं पर भी एक बार नज़र डाल ली जाय..

भज.. भक्ति, भगवान, विभाजन आदि..
भक्ष.. भक्षण,भूखा आदि..
भञ्ज.. भंग, भग्न, भंगुर आदि..
भट.. भट्ट, भट्टार आदि
भण.. भणित आदि..
भण्ड.. भाण्ड, भण्डार आदि..
भन्द.. भद्र, भद्दा आदि..
भी.. भय, भयानक आदि..
भृ.. भाई, भरण आदि..
भू.. भव, भवन, भवानी, भविष्य, भूत आदि..
भा.. आभास, भाल.. आदि..
भाष.. भाषा, भाषण.. आदि..

ये सूची और लम्बी है.. और जितने मूलभूत शब्दों का ज़िक्र यहाँ पर हो रहा है उन्हे देख कर ये विश्वास करना कठिन है कि उनके उच्चारण में परिवर्तन हुआ होगा.. तो फिर कैसे ये ध्वनियां संस्कृत में मौजूद है और दूसरी इंडो-यूरोपियन भाषाओं से गायब हैं.. यदि इन सब शब्दों में आर्य जनों ने किसी प्रभाव में परिवर्तन किया है तो फिर सोचने की ज़रूरत है.. कि 'प' और 'ब' के स्वतंत्र शब्दों के अस्तित्व के बाद किन शब्दों की ध्वनियों को 'भ' में परिवर्तित कर देने का निर्णय लिया गया होगा..? और किस आधार पर.. ?

मेरे विचार में यह तर्क ही निहायत हवाई और खोखला लगता है.. कि 'भ' ध्वनि की वे सारे शब्द जो अन्य इंडो-यूरोपियन भाषाओं में 'ब' ध्वनि से हैं.. मूल आर्य भाषा में 'ब' ध्वनि से थे परंतु भारतीय आर्यों ने उन्हे 'भ' ध्वनि में परिवर्तित कर लिया.. ऐसे शब्दों की सूची में भ्रातृ का brother और भू का be.. सहज तौर पर देखे जाने वाले उदाहरण है..

अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम। होतारं रत्नधातमम॥ संस्कृत भाषा के प्राचीनतम साहित्य ऋग्वेद का यह पहला सूक्त है.. इसके पहले शब्द अग्निमीळे में जो 'ळ' अक्षर का प्रयोग हुआ है.. मराठी में इस का प्रचलन आम है.. तमिल और अन्य दक्षिण भारतीय भाषाओं में भी इस का जम कर इस्तेमाल होता है.. लेकिन इस अक्षर की ध्वनि को उत्तर भारत में इस तरह से लिपिबद्ध नहीं करते.. पर उत्तर भारतीय लोग इस 'ळ' को 'ड़' की तरह लिखते हैं.. मेरी जानकारी में किसी सी इंडो यूरोपियन भाषा में 'ड़' या 'ळ' का प्रयोग नहीं होता है.. और यदि ये द्रविड़ प्रभाव है.. तो इसे ऐसा समझा जाना चाहिये कि आर्य भाषा व संस्कृति किसी आदि इंडो-यूरोपियन भाषा और संस्कृति से अधिक द्रविड़ भाषा व संस्कृति के अन्दर गुँथ कर विकसित हुई हैं..उन को एक दूसरे से अलग-अलग कर पाना असंभव है..

डा० अम्बेदकर, जिन्होने प्राचीन भारतीय साहित्य और इतिहास घोट के पी रखा था, अपने लेख शूद्र और प्रतिक्रांति में लिखते हैं कि, "..इस बात का कोई प्रमाण नहीं मिलता कि आर्य भारत में बाहर से आए. और उन्होने यहाँ के निवासियों पर आक्रमण किया था। इस बात की पुष्टि के लिए प्रचुर प्रमाण है कि आर्य भारत के मूल निवासी थे.." (सम्पूर्ण वाङ्मय, खण्ड ७,शूद्र और प्रतिक्रांति, पृष्ठ ३२१)

और डा० रामविलास शर्मा लिखते हैं, "..विद्वानों ने कल्पना की है कि आर्यगण स्लाव प्रदेशों से चले और ईरान होते हुए भारत आ पहुँचे।सघोष महाप्राण ध्वनियाँ कहीं भी उनके साथ न रहीं, सिंधु पार करते ही भारत में प्रगट हो गईं। अथवा आर्य अनातोलिया से चले,हित्ती मितन्नी क्षेत्रों में कहीं भी वे ध्वनियाँ उनके साथ न रहीं, जब भारत आए तो वे प्रगट हो गईं। दोनों ही स्थितियों में मूल ध्वनियाँ भारत में हैं, पूर्वी-पश्चिमी शाखाओं में उनके रूपान्तर मात्र हैं। उल्टी गंगा बहाने के बदले एक बार मान लें कि 'घ', 'ध', 'भ', इन सघोष महाप्राण ध्वनियों का स्रोत देश भारत है, तो एक धारा पूर्व को और एक पश्चिम को सहज भाव से बहती दिखाई देगी, आर्येतर प्रभावों से भारत के बाहर ये ध्वनियाँ अपना रूप बदलती जायेंगी.." ( वही, पृष्ठ २४१)

इन विद्वानों के तार्किक विचारों के बावजूद ये सहज तौर पर सत्य की तरह से प्रचारित है कि आर्य बाहर से आए १५०० ईसा पूर्व में.. और उन्होने सिन्धु घाटी सभ्यता को नष्ट किया.. जबकि न आर्यों के कहीं से आने के प्रमाण मिलते हैं.. और न ही सिंधु घाटी सभ्यता में किसी संघर्ष के और न ही उस सभ्यता को किसी आक्रमण द्वारा नष्ट करने के.. आर्य कहीं न कहीं से तो आए ही होंगे.. या कहीं से न भी आए हों.. ऐतिहासिक गवेषणा से जो भी सत्य उद्घाटित होता हो वो समझा जाय, जाना जाय, पढ़ाया जाय.. मगर परेशानी की बात यह है कि एक नितान्त काल्पनिक अवधारणा, जो अधिकतम तौर पर एक सिद्धान्त कही जा सकती है.. एक आर्य सत्य की तरह पीढ़ी दर पीढ़ी देश के एक-एक स्कूल में दाल रोटी की तरह परोसी जा रही है.. क्यों?

इस विषय पर लम्बी बहस है.. और इस से जुड़े हुए दूसरे मामले हैं.. कुछ हिन्दूवादी दल आर्यों के आक्रमण का सिद्धांत का बुरी तरह विरोध करते हैं बावजूद इसके कि बाल गंगाधर तिलक और विनायक दामोदर सावरकर इस सिद्धांत के पक्षधर थे.. जबकि आर्यों के आक्रमण के सिद्धांत को मानने वाले वामपंथी विद्वान अपने विरोधियों के छिपे हुए एजेण्डे की धार को ये साबित कर के कुंद करना चाहते हैं कि वे खुद इस भूमि पर एक आक्रमणकारी विदेशी की हैसियत से हैं.. और उनके पावन ग्रंथ की रचना किसी अन्य देश में हुई थी..

ये कोशिश नितान्त बचकानी और खोखली है कि सिर्फ़ इसलिए यह सिद्धांत सही सिद्ध हो जाय क्योंकि विरोधी पूर्वाग्रह ग्रस्त है और गलत तर्क का इस्तेमाल कर रहा है.. दूसरे शब्दो में कहें तो क्या आर्यों के आक्रमण का सिद्धांत सिर्फ़ इसलिए सही सिद्ध हो जाता है क्योंकि आर्यों के भारत के मूल निवासी होने के सिद्धांत की पैरवी एक धार्मिक पूर्वाग्रह से ग्रस्त दल कर रहा है.. ? क्या सिर्फ़ इसीलिए एक झूठ को लगातार ढोया जाता रहेगा..?

13 टिप्‍पणियां:

अनिल रघुराज ने कहा…

आर्यों के मसले पर दूध का दूध और पानी का पानी होना जरूरी है। इसलिए उस पर अलग से लिखा जाए।
वैसे, आज सचमुच पता चल गया कि आपको भाषानंद क्यों कहते हैं। भ को लेकर मैं अभी तक एक ही सवाल से उलझा था कि पहाड़, बिहार और बंगाल वाले वॉल्यूम को भॉल्यूम क्यों बोलते है। आपने दूसरे पहलुओं की भी झलकियां दिखा दीं।

बोधिसत्व ने कहा…

भाई
आप तो जीने न देंगे, कल खोए आदमी की खोज में थे तो आज आर्यों के पीछे पड़ गये। खैर
भ अक्षर का अर्थ तो बताया नहीं आपने। बिना भ का अर्थ जाने भारत को कैसे समझें हम ।
भारत ही नहीं भगवान और भाग्य में भी यह भ भरा है भासमान है।
मिडिल में मेरे एक मास्टर थे भूलेश्वर पंडित जी । वे कभी-कभी शव्दों की अनूठी व्याख्या करते थे। उन की माने तो भ का अर्थ प्रकाश होना चाहिए, भगवान वह होगा जो निरंतर प्रकाशित होता रहे। भारत भी एक तरह से प्रकाश में लगा हुआ है, भा में रत । वे भाग्यशाली को तेजवंत कहते थे। भागने को तेज चलना। अब वे कहां तक ठीक थे आप ही बताएँ।
आर्यों के संबंध में उत्तर प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री सम्पूर्णानन्द जी के मत पर भी विचार होना चाहिए। उन्होने आर्यों का आदि देश नाम से एक पूरा शोध ग्रंथ लिखा है। जिसमें वे स्थापित करते हैं कि आर्य बाहर से नहीं आए। अविनाश चंद्र दास का भी यही मत रहा है। वे अपनी पोथी ऋगवैदिक इंडिया में यह साबित करते हैं कि आर्यों का आदि देश भारत ही है।

ePandit ने कहा…

बहुत अच्छा लिखा अभय भाई!

पाश्चात्य एवं वामपंथी इतिहासकारों के मुताबिक आर्य भारत में १५०० ईसा पूर्व आए थे यानि कि आज से लगभग ३५०० साल पहले।

अब हजारों वर्ष पुराने वेदों तथा अन्य भारतीय साहित्य (जिसे कि आधुनिक इतिहासकार भी कम से कम ५००० साल पुराना तो मानते ही हैं) में आर्यों का वर्णन मिलता है।

तो कोई यह बताए कि आर्य बाहर से आए थे तो विभिन्न ग्रंथों में उनका वर्णन पहले ही कैसे हो गया?

अनामदास ने कहा…

भाई भ भाख्यान भाया.

बेनामी ने कहा…

कलॉम-ए-रूमी पर रुक क्यों गए मित्र. मुझे वैसे भी गालियाँ पड़ ही रही हैं -- विमल उखड़े हुए हैं -- तो कुछ आपसे भी खा ही लूँ.

कौन है जो फ़ारसी सीखे और उसके बाद फिर अनुवाद की कोशिश भी करे? कोई नहीं. इसलिए इस काम को छोड़िए मत.

फ़ारसी ज़बान-ए-अमोज़िश अस्त !

नॉम-ए-मन एनॉनिमस अस्त, मन हिंदुस्तानी अस्तम.

Gyan Dutt Pandey ने कहा…

अभय, भरतलाल के साथ भृत्य - भ-भ की जुगलबन्दी लगता है. सो मैं प्रयोग करता हूं. कोई भाषाई तर्क नही है उसमें :)

अनूप शुक्ल ने कहा…

अच्छा है। इस् तरह् के लेख नेट् पर् हिंदी को समृद्ध करने में सहायक् होंगे। :)

Sunil Deepak ने कहा…

अभय जी, भ, ध, घ ध्वनियों के बारे में यह विवेचना बहुत अच्छी लगी. आर्य कहाँ से आये, या कहाँ गये, और किस तरह से इँडो यूरोपियन भाषाओं में समानताँए आयीं या बनी, इसके बारे में आप ने अच्छे प्रश्न उठाये हैं. दुर्भाग्यवश इन सब बातों पर बहस अन्य धार्मिक मुद्दों से जुड़ गयी है जिसकी वजह से अक्सर बातें तर्क तक सीमित नहीं रहतीं. आशा है कि आप इस विषय पर और भी लिखेंगे.

Pratik Pandey ने कहा…

उत्तम लेख।

eSwami ने कहा…

भेतरीन लेख!

Udan Tashtari ने कहा…

भ शब्द पर इतना कुछ..बड़ा अच्छा लगा पढ़कर.

अजित वडनेरकर ने कहा…

भढ़िया है अभय जी। आपके और हमारे बीच कुछ टेलीपैथी काम कर रही होगी तभी गुरूवार शुक्रवार की दरम्यानी रात जब मैं भ्रत्य पर काम कर रहा था तब शायद आप भी भ के फेर में होंगे। आर्य आए या यहीं के थे ये बात बेमानी है। खास बात ये भाषा सफर करती है और करती रहेगी। कौन कहां का है ये उन पर छोड़ दीजिए जिन्हें ऐसा सोचकर सुख मिलता है।
आप और हम तो अभयानंद-अजितानंद बन निर्मल-आनंद में गोते लगाएं। सही है न ?

Smart Indian ने कहा…

अभय भाई,

आपका संदेश मिलने के बाद पूरा पढ़ डाला, बहुत अच्छा लिखा है! बहुत प्रतिभाशाली हो, ज्ञान बांटते रहो इसी तरह.

शुभ कामनाएं!

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