हिन्दुस्तानी मुसलमानों में सय्यद कौन हैं.. ?..जी बाभन हैं.. पठान बाबूसाब यानी राजपूत हैं.. शेख कायस्थ हैं.. और अंसारी जुलाहे हैं.. अब मुसलमान होने के नाते ये सब रोटी भले साथ में खा लें.. मगर बेटी.. न-न.. बेटी जात में ही दी जाती है.. आप को लग रहा होगा कि चलो यहाँ तक तो बात मानी पर ईसाईयों में कौन सा बाभन होता है..? कुछ दिन पहले तक हमारा भी यही ख्याल था कि ईसाई धर्म में सब बराबर होते हैं.. कोई जात पाँत नहीं.. पर हमारी प्राचीन संस्कृति.. बड़े गहरे संस्कार बोती है.. और फिर अहिर, जुलाहे, तेली अपनी जात छोड़ दें तो छोड़ दें.. हम बाभन अपनी श्रेष्ठता का गरिमामय बड़प्पन सब जगह साथ ले कर जाते हैं.. धर्म बदल जाने के बाद भी.. ईसाई हो जाने के बाद भी..
देखिये एक नज़र यहाँ..
देख रहे हैं.. ये मेरे द्वारा नेट पर GRC Brahmin के लिए की गई सर्च के नतीजे हैं.. और जो मिला है वो शादी के क्लासीफ़ाईड विज्ञापन हैं.. यहाँ पर ब्राह्मिन तो साफ़ है.. मगर जी आर सी क्या है..? जी आर सी है.. गोवन रोमन कैथोलिक.. तो पूरा नाम हुआ गोवन रोमन कैथोलिक ब्राह्मण.. और गोवा में सिर्फ़ रोमन कैथोलिक ब्राह्मण ही नहीं होते.. रोमन कैथोलिक अछूत भी होते हैं.. ये वर्ग आपस में ही शादियां करते हैं.. और उनके चर्च भी अलग अलग होते हैं.. गोवन मछुआरों की पुरानी हिन्दू जाति कुनबी, ईसाई हो जाने के बाद भले ही अछूत नहीं रही.. मगर सबसे निम्न वर्गीय बनी हुई है..
मेरे भाई संजय तिवारी गोवा में सपरिवार मौज कर रहे थे.. ब्लॉगर संजय तिवारी नहीं, वैसे वो भी मेरे भाई ही हैं.. सरयू पारी हैं तो क्या.. हैं तो बाभन हीं ..पर मैं उनकी नहीं अपने सहोदर.. बड़े भाई की बात कर रहा हूँ.. उन पर यह रहस्य उदघाटित हुआ.. वे हिल गये.. फिर उन्होने मुझे हिलाया.. अब आप भी हिले रहिये.. और अपने धार्मिक और जातीय संस्कारों को ज़रा परखते रहिये.. हो सकता है आप उनके प्रति पूरी तरह अचेत हों.. मैं अपने बारे में पूरी तरह आश्वस्त नहीं.. अपने मित्रों की सूची में मुझे बहुत सारे सुकुल, मिसिर और पांड़े दिखाई दे रहे हैं..अहिर एक भी नहीं..
10 टिप्पणियां:
केरल में दलित इसाइयों की कब्र कब्रिस्तान के आखिरी छोर पर रहती हैं।अब्दुल बिस्मिल्लाह ने बनारस के अन्सारियों में 'गोरकऊ','डोमरऊ' भेद का जिक्र किया है।
नहीं नहीं आपने ध्यान से पढ़ा ही नहीं संजय तिवारी आपके वाले नही इधर के, ने घोषणा की है कि आजकल की दुनिया में जाति पाति मिट गई है- अब यह ब्राह्मण वाक्य है- ब्रह्म वाक्य हुआ। तो हम कुछ निम्नतर प्राणियों के लिए आप लोग- शुक्लजी, तिवारीजी, पांडेयजी...तय करके बता दें कि सच क्या है। जाति है कि गई...
आपका जाति विमर्श अच्छा था.. कुछ नयी जानकारी मिली..लेकिन दोस्ती जाति या धर्म देख कर नहीं की जाती ..विचार और उनका मर्म देख कर की जाती है...
जातीय संस्कार बड़े गहरे होते हैं। इनसे बाहर आने के लिए अतिरिक्त रूप से सचेत प्रयास जरूरी होते हैं। अगर इतनी बृहद सामाजिक सोच के बावजूद आप अभी तक अपनी जाति और धर्म से बाहर कोई आत्मीय मित्र नहीं बना पाए तो अपनी पूरी वैचारिक बनावट पर आपको नए सिरे से विचार करना चाहिए। राजकिशोर ने अपने एकमात्र उपन्यास-शीर्षक याद नहीं- में लिखा है कि अगर आप हिंदू हैं तो अपने बंधन ढीले करने के लिए आपको अपने एक-दो किलोमीटर तक के दायरे में कोई मुस्लिम होटल या और नहीं तो चाय की दुकान जरूर तलाशनी चाहिए। यह प्रयोग करने की जरूरत अभी तक मुझे नहीं पड़ी क्योंकि मेरा दायरा भले ही कितना भी छोटा हो, लेकिन इसमें डायवर्सिटी है। अगर आपको लगता हो कि आपके दायरे में यह चीज नहीं है, या कम है तो राजकिशोर जी की सलाह आजमाकर देखने में कोई हर्ज नहीं है।
आपका ध्यान इन बातों की तरफ जा रहा है, ये शुभ लक्षण कहे जा सकते हैं। जाति और वर्ण व्यवस्था के मूल में भी पदानुक्रम (Hierarchy) का शाश्वत सिद्धांत ही है। अमीबा से लेकर ब्रह्मा पर्यंत ऐसा कोई भी जीव नहीं, जो पदानुक्रम में दूसरों की तुलना में अपनी स्थिति को लेकर किसी न किसी प्रकार की ग्रंथिका शिकार न हो। संसार के सारे जीव इसी मनोदशा के शिकार हैं। मनुष्य तो हर देश, काल और परिस्थिति में किसी-न- किसी प्रकार से श्रेष्ठता का पद सोपान जरूर तैयार कर लेता है। धन्य हैं वे जो इन ग्रंथियों के शिकार नहीं हैं, वे या तो निर्जीव हैं या फिर स्वयं ब्रह्म!
सामाजिक समानता की अवधारणा एक यूटोपियन अवधारणा है। इस अवधारणा को धरती पर कभी साकार नहीं किया जा सका, तथाकथित राम-राज्य में भी नहीं। एक व्यवस्था के तौर पर इसे साकार कर पाना असंभव है। फिर भी, जब किसी व्यक्ति के मन में दूसरों के प्रति समानता और साम्यता के भाव उदित हों तो समझना चाहिए कि वह मुक्ति की राह पर है। लेकिन हमारे मन में श्रेष्ठता और हीनता के पूर्वग्रह और संस्कार इतने गहरे होते हैं कि उनसे बाहर निकलने के लिए डिकंडीशनिंग की संपूर्ण प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है।अपने मन से श्रेष्ठता ग्रंथि को समूल नष्ट करना अध्यात्म की राह का पहला कदम है।
धर्म और जाति के भीतर और बाहर इतने भेदभाव और ख़ांचे है कि क्या बताएं । मुझे कुछ मौक़ों पर अहसास दिलाया गया कि मैं ‘अलग’ हूं । ‘उस’ धर्म का हूं । मित्रों ने कभी नहीं पर अजनबियों ने ये अहसास दिलाया, ख़ासकर मुंबई जैसे महानगर में । फ्लैट लेते वक्त बिल्डरों ने । उससे पहले किराये से घर देते वक्त मकान मालिकों ने । और तब बहुत तल्ख़ी पैदा हुई मन में, लगा कि या तो ये शुचिता का कुछ ज्यादा ही आग्रह है या फिर इनके दिमाग़ में दीमक है । आपने हिलाया तो फिर से वो सब बातें याद आ गयीं ।
रोचक जानकारी दी है आपने। काकेश जी कहते हैं कि जाति देखकर दोस्ती नहीं होती। विचार और मर्म से होती है। दो दिन पहले नई दिल्ली के इलाके में शूट कर रहा था। कैमरे से। एक झा़ड़ूवाले का शाट चाहिए थे। कैमरा देख कर पसीने आ गए। उसने कहा बंद कीजिए। हमने कहा चिंता न करें। ऐसे ही तस्वीर ले रहे हैं। अगर आप मना करेंगे तो नहीं लेंगे। लेकिन कारण तो बता सकते हैं। उसने कहा नहीं बताऊंगा। मैंने कहा दोस्त समझ कर बता दो।
जो बात कही उस पर ध्यान दिया जाना चाहिए।
उसने कहा कि मैं दलित हूं। मैंने कहा तो क्या हुआ। अपनी मेहनत की खा रहे हो। फिर तस्वीर से परहेज़ क्यों? उसने कहा लोग जान जाएंगे। मैंने कहा लोग तो जानते ही होंगे कि तुम दलित हो। उसने कहा मैं बिरादरी की बात नहीं कर रहा हूं। अपने दोस्तों की बात कर रहा हूं। वो टीवी में मुझे झाडूं देते देखेंगे तो जान जाएंगे। कि मैं दलित हूं। मेरी दोस्ती टूट जाएगी। पहले वाली बात नहीं रहेगी।
ये संवाद नई दिल्ली की सड़क पर इंडिया गेट के पास हो रहा था। मेरे पास कोई आदर्शवादी जवाब नहीं था। सिर्फ दोस्तों पर उसके भरोसे की नज़ाकत मुझे परेशान कर रही थी। काकेश जी क्या वाकई दोस्ती विचार और मर्म से ही होती है?
निर्मल जी..जाति पर लेख अच्छा है। नई जानकारी के साथ। एक नई किताब आई है अनटचेबल्स इन रुरल इंडिया। व्यापक सर्वे के साथ। दूधिये के कारोबार में दलितों को दूध नहीं देने से लेकर जातपात के तमाम वर्णन हैं।
भैय्या सभी धर्मो का एक ही हाल है लेकिन ये बताये हम इतने दिन गायब रहे तो आप ये पीली गाडी में बैठ कहाँ के लिये निकलने की तैयारी कर रहे हैं। और भी है लेकिन हम कहाँ हैं ;) हे हे यूँ ही छेड़ रहे हैं आपको हम भी बाभन हैं चाहे गंगा पार के ही सही इतना हक तो बनता है ना :)
अभय जी बढ़िया लिखा है।
चातुर्वर्ण्य व्यवस्था हर जाति के आंतरिक ढांचे में भी अलिखित-अघोषित रूप से लागू है। ब्राह्मणों में भी कितने ही श्रेष्ठ और निम्न के भेद वाले वर्ग हैं। जातीय बोध दान-पुण्य और नेकी जैसे संस्कारों पर भी हावी हो जाता है। मेरे बचपन में एक मुस्लिम फकीर हर हफ्ते भिक्षा के लिए आता था। वो आवाज़ लगाता - दे दे महादेव बाबा के नाम पर,अल्ला अल्ला करते रहो ....परिवार के एक बुजुर्ग महादेव का नाम सुनकर भिक्षा देने के लिए उत्साहित हो जाते मगर अल्ला का नाम सुनते ही। उदासीन हो जाते और किसी के हाथों भिक्षा भिजवा देते । एकाध बार तो कहा भी कि हमारे घर पर अल्ला के नाम पर मत मांगा करो।
इसका क्या किया जाए...हम सिर्फ मुस्कुरा ही सकते हैं न...अपनी बारी आने पर समझदारी दिखाने की ठानी हुई है।
भाई मेरे!
इस देश में धर्म परिवर्तनीय है पर जाति अपरिवर्तनीय . बड़े कवि-दार्शनिक और द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत के जनक और पैरोकार मुहम्मद इकबाल को गर्व था कि वे ब्राह्मणों के वंशज हैं . उनके पूर्वज (दादा) कश्मीरी ब्राह्मण थे .
मैं गोआ में तीन-चार साल रहा हूं . अतः यह तथ्य मेरे जेहन में था . यह देश है मेरा .... यह जो देश है मेरा ......
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