सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की यह कविता यूँ तो बच्चो के लिए लिखी गई थी.. मगर हम बड़े भी एक स्तर पर बच्चे ही होते हैं.. कुछ ज़रा.. कुछ थोड़े.. कुछ निहायत.. खेल खेल में रूठ जाते हैं.. धमकाने लगते हैं.. कि अपने बर्थडे पर नहीं बुलाऊँगा.. अपनी साइकिल पर नहीं बैठाऊँगा.. ये बचपना जीवन भर चलता रहता है.. दाढ़ी मूँछ सफ़ेद हो जाती है.. समाज में लोग ताऊ आदि कह कर पुकारने लगते हैं.. मगर हम वही अपने बर्थडे की धमकी के आगे बढ़ ही नहीं पाते.. बिल्डिंग की सोसायटी या स्पोर्ट्ज़ क्लब के स्तर पर अपनी बाल-सुलभता बिखेरते चलते हैं.. हम सब की इन्ही अबोध वृत्तियों को अर्पित यह कविता..
इब्न बतूता पहन के जूता
निकल पड़े तूफ़ान में,
थोड़ी हवा नाक में घुस गई,
घुस गई थोड़ी कान में।
कभी नाक को, कभी कान को
मलते इब्न बतूता,
इसी बीच में निकल पड़ा
उनके पैर का जूता।
उड़ते उड़ते जूता उनका
जा पहुँचा जापान में,
इब्न बतूता खड़े रह गए
मोची की दुकान में।
17 टिप्पणियां:
अगर आपने यह कविता स्मृति के आधार पर लिखी है तो मेरी स्मृति कहती है कि तीसरी लाइन होनी चाहिये- 'थोडी हवा नाक में घुस गई'
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सुबह-सुबह जतिंदर को पहनाने को और कुछ नहीं मिला? पहनाना ही था तो कोई सस्ता वाला पहनाते! दिया भी तो सीधे इब्न बतूता का दे दिया? कोई कनपुरिया सस्ता माल बढ़ा देते! हमारे लिए तो ह्वेनसांग या फाहियान वाला कभी गिफ्ट में लेकर नहीं आए? हद है!..
मेरा ख्याल है कि आप की स्मृति सही है इरफ़ान डियर..
हर इंसान के अंदर एक बच्चा होता है..ये बच्चा जिन्दा रहे तो जीवन जीने का मजा आता रहता है.. हम तो गुजारिश करेंगे कि ये सदा जिन्दा रहे ..जब ताऊ से दादा बन जायें तब भी ..
और हां--
चौथी लाइन शायद ये थी- 'थोडी घुस गई कान में'
"उनके पैर का जूता" नहीं
उनके पैरों का जूता
तुकबंदी में ऐसे तार्किक दोष अनदेखे किये जाते हैं.
मतलब आप पूछें कि पैरों के जूते क्यों नहीं.
वैसे इब्न बतूता की आपने भली चलाई शायद उनके भारत प्रवास की कुछ यादें मैं टूटी पर लाऊं.
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बच्चों के लिये कुछ अच्छी कविताएं एकलव्य भोपाल ने भी निकाली हैं. एक पेश परता हूं-
क्योंजी बेटा रामसहाय
इतनी जल्दी कैसे आये?
अभी तो दिन के तीन बजे हैं
कहो आजकल बडे मज़े हैं!
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ख़ैर हम और आपको तो तीन बजे भी कहीं पहुंचने के क़ाबिल नहीं समझा गया. 'रामसहाय की सरकारी नौकरी' दस बजे कौन पहुंचता है?
काकेश मियाँ.. ताऊ दादा बन के भी बच्चा बना रहे.. बड़ी अच्छी बात है.. बस उसके बच्चों और नाती पोतों को थोड़ा समझदार होना पड़ेगा.. और उस्तरा आदि उसकी पहुँच से लगातार दूर रखना होगा..
इरफ़ान डियर.. आप इस तरह हमें कड़ियों में बदलाव बतायेंगे तो हम कहाँ जायेंगे.. एक कर दिया बहुत है.. बाकी आप मान लीजिये कि वही लिखा है जो आप बता रहे हैं..
बढिया ! जरा प्रमोद दा का भी खयाल रखॆं गिफ्ट विफ्ट देकर खुश रखा करें ;)
हवा कहां घुसी इस पर विमर्श जारी रखिये. लेकिन आखिरी पैरा बहुत कुछ कहता है. इब्न बतूता
पंडित जी (आप आजकल मिंय़ाँ कह रहे हैं तो सोचा हम भी कह ही डालें) ..
आपने कहा
"ताऊ दादा बन के भी बच्चा बना रहे.. बड़ी अच्छी बात है.. बस उसके बच्चों और नाती पोतों को थोड़ा समझदार होना पड़ेगा.. और उस्तरा आदि उसकी पहुँच से लगातार दूर रखना होगा.."
इसका ज्ञान तो बच्चों को देना पड़ेगा ना ..बेचारे दादा को क्यों ज्ञान की घुट्टी पिलाते हैं...वैसे भी अन्दर का बच्चा आम बच्चों की तरह नहीं होता कि कोई भी घुट्टी पी ही ले...अन्दर के बच्चे पर कोई घुट्टी असर नहीं करती..यकीन ना हो तो कोशिश कर के देख लें...
Paathak of the day: SANJAY TIWARI
Blogpur ko aap par naaz hai.
nostalgic हो गया मै तो...
बचपन में इस कविता को गाया करता था ...ये नहीं पता था कि ये सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कविता है.
मै अपने एहसास को यहां बयान नहीं कर सकता कि कितना अछ्चा लगा मुझको.
भाई मुझे बहुत मजा आया. सचमुच का निर्मल आनन्द, और संजय की टिप्पणी पर इरफान भाई के कमेंट ने जायका दोगुना बढ़ा दिया। यह कविता मौने भी पढ़ी है और मेरे बेटे मानस को भी याद है। कभी हिंदी में बील साहित्स की दुर्दशा पर भी कुछ कहिए भाई। आज कुछ ही कवि हैं जो बच्चों के लिए भी लिखते हैं बनारस के श्री नाथ सिंह, प्रयाग शुक्ल और सुरेश सलिल को छोड़ दें तो शायद ही कोई कवि बात कविताएं रच रहा हो। मैं भी अपने को अपराधी पाता हूँ।
अच्छा लगा इस कविता को पढ़कर!! बच्चों के लिये ही सही मगर हमको भी बहुत पसंद आई..
इतनी अच्छी कविता पढ़वाने के लिए धन्यवाद
इरफान जी द्वारा बताए गये संशोधन सही हैं। बराएमेहरबानी उन्हें संशोधित कर लें। वैसे सक्सेना जी इस कविता को याद दिला कर आपने मन के किसी कोने में दबी बचपन की यादों को ताजा कर दिया है।
भाई रजनीश, आप की सलाह के बारे में मैंने सोचा पर अगर अब अगर एडिट किया तो पोस्ट आज की डेट में अपडेट हो जाएगी.. और सारे आर्काइव की ऐसी तैसी हो जाएगी.. मेरी बहुत सारी पोस्ट हैं जिनको मैं संशोधित करना चाहता हूँ.. पर इसी कारण नहीं कर पा रहा..उम्मीद है आप समझेंगे..
इरफ़ान के संशोधन गीत के नीचे ही हैं.. पढ़ने वाला उन्हे भी पढ़ेगा जैसे आप ने पढ़ा.. और कवि के साथ कोई अन्याय न होने पाएगा.. इस विश्वास के साथ.. नमस्ते..
पूरी कर देते न। इस कविता को बहुत देर से ढूंढ रहा था।
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