
लेकिन जो फ़ैसला आया है, मैं उस से मुतमईन नहीं हूँ। ऐसा नहीं लगता है कि यह किसी न्यायालय का फ़ैसला है। लगता है कि जैसे किसी सदय पिता ने अपने झगड़ते बच्चों के बीच खिलौने का बँटवारा कर दिया है- लो तीनों मिलकर खेलो! मैं कोई न्यायविद नहीं हूँ और न ही मैंने सम्पूर्ण फ़ैसले का अध्ययन किया है। लेकिन निर्णय का संक्षेप पढ़ने से जो बात समझ आती है वह ये है कि चीज़ों का फ़ैसला ताथ्यिक आधार पर नहीं बल्कि मान्यताओं के आधार पर किया गया है।
अब जैसे विवादित स्थल पर मन्दिर था या नहीं, इस को तय करने में मान्यता का सहारा लिया गया है। दूसरी ओर कई सालों से खड़ी मस्जिद पर से वक्फ़ बोर्ड के अधिकार को इस क़ानूनी पेंच के आधार पर ख़ारिज कर दिया गया कि उन्होने मुक़द्दमा करने में छै साल की देरी कर दी। और अगर वक़्फ़ बोर्ड का अधिकार उस ज़मीन पर है ही नहीं तो उन्हे एक तिहाई हिस्सा दिया ही क्यों जा रहा है? क्या यह अदालत के द्वारा उदारता का प्रदर्शन है? या समाज में व्यापक शांति बनाए रखने के लिए एक सौहार्दपूर्ण कोशिश?
हाँ यह ठीक है कि अगर फ़ैसला यह आता कि ज़मीन वक़्फ़ बोर्ड की है मस्जिद की फिर से तामीर हो, तो हिन्दू सेनाएं फिर से जूझने लगतीं और देश फिर से बेकार के टंटो में उलझ जाता। और अगर यह फ़ैसला आता कि विवादित ज़मीन पर वक़्फ़ बोर्ड का कोई हक़ नहीं और वहाँ पर पहले भी मन्दिर था और आगे भी मन्दिर बने तो मुस्लिम मानस निराशा के अँधेरों में डूबकर किसी भयानक नकारात्मकता का शिकार हो जाता। एक तरह से देखा जाय तो ये फ़ैसला दोनों के बीच एक मध्यमार्गी फ़ैसला है, जो अमन व शांति के लिए शायद बेहतर है।
पर क्या यह अदालत का काम है कि वह ज़मीन की मिल्कियत से जुड़े एक मामले पर अमन और शांति की परवाह के नज़रिये से अपना फ़ैसला सुनाए? तथ्यों के आधार पर फ़ैसला एक होना चाहिये लेकिन कहीं आस्थाएं न आहत हो जायं तो दूसरा फ़ैसला बता दे? यह काम तो सामाजिक संगठनों और राजनैतिक दलों का होना चाहिये! लेकिन अफ़सोस! सामाजिक संगठन और राजनैतिक दल समाज को जोड़ने का नहीं तोड़ने का काम कर रहे हैं। और उनके घोर अपराधों की बहुमत का समर्थन होने की आड़ में छिपाया जा रहा है!
मैं पूछना चाहता हूँ कि इस देश में क्या क़ानून एक निरपेक्ष वस्तु है या वह आदमी की आर्थिक, सामाजिक, और राजनैतिक हैसियत देखकर तय होता है? क्या सीवान में कौमरेड चन्द्रशेखर के हत्यारे शहाबुद्दीन को इसलिए सजा नहीं मिलनी चाहिये क्योंकि उसे वहाँ की जनता का लोकप्रिय समर्थन प्राप्त है? क्या कश्मीर से पण्डितों की सुनियोजित ढंग से हत्या करने वाले व्यक्तियों को इसलिए खुले तौर पर राजनीति करते रहने की अनुमति इसलिए मिलती रहनी चाहिये क्योंकि उन्हे छेड़ने से घाटी में शांति लाने की प्रक्रिया को ठेस पहुँचती है? गुजरात में मोदी ने जनता से दोबारा पाँच साल राज करने का लाइसेंस हासिल कर लिया है क्या इसी बिना पर उसके १२०० निर्दोष मुसलमान नागरिकों की सुनियोजित हत्याकाण्ड चलाने का अपराध माफ़ हो जाता है?
अगर ऐसा नहीं है तो जिस आदमी ने देश के कोने-कोने में जा कर एक महत्वहीन मस्जिद को हिन्दू सम्मान के अतिक्रमण का प्रतीक बनाकर और उस के आधार पर देश के बेरोज़गार नौजवानों की बेकार ऊर्जा को पूरे मुसलमान समुदाय के खिलाफ़ प्रेरित करने का जो ऐतिहासिक अपराध किया था, उसे उन सारी हत्याओं का ज़िम्मेदार मानकर सजा क्यों नहीं मिलनी चाहिये, जो बाबरी मस्जिद गिराये जाने के बाद उस कारण इस देश में हुई हैं, और दूसरे देशों में भी हुई हैं। अगर हत्या करना अपराध है तो हत्या करने के लिए उकसाना भी अपराध है!
ये बात हमें साफ़-साफ़ समझ लेनी चाहिये कि बाबरी मस्जिद मुद्दा नहीं है। और न ही राम मंदिर मुद्दा है। मुद्दा कुछ और है! हिन्दुओं की ओर से मुद्दा है बरसों से हुए पराजय और अपमान के इतिहास के बोझ से मुक्ति पाना, और मुसलमानों की ओर से मुद्दा है एक हिन्दूबहुल देश में असुरक्षा और आत्मसम्मान का। रामजन्मभूमि और बाबरी मस्जिद का ज़मीनी झगड़ा चल रहा था बहुत सालों से। १८५५ तक के तो रिकार्ड भी मौजूद हैं। अंग्रेज़ों को इस मामले को सुलझाने में कितनी दिलचस्पी रही होगी, कहना मुश्किल है। लेकिन ग़ौर करने योग्य बात ये है कि आज़ादी मिलने के बाद लोगों ने इस मसले को सुलझाने का प्रयास नहीं किया, बल्कि हाथ आई नई ताक़त और सत्ता के ज़रिये इस ज़मीन को क़ब्ज़ियाने का काम किया। धिक्कार है इस देश के नेतृत्व पर जो आज़ादी के तुरंत बाद के उस आंशिक आदर्शवादिता के दौर में भी न तो किसी तरह के न्यायिक आस्थाओं का मुज़ाहिरा कर सका और न ही समुदायों के बीच मन-मुटाव मिटा कर उनके बीच झगड़े सुलझाने का!
ये कोई ढकी-छिपी बात नहीं है, सब जानते हैं कि इस्लाम में बुतशिकनी का एक इतिहास है, एक परम्परा है। मक्का से लेकर भारत तक मुसलमान मूर्तियों को तोड़ते आए हैं। भारत में भी साढ़े छै सौ साल के इतिहास में बहुत से शासक ऐसे भी हुए हैं जिन्होने बहुसंख्यक समुदाय की आस्थाओं को समझते हुए मन्दिरों का निर्माण भी करवाया है लेकिन मुख़्तलिफ़ मुस्लिम शासक बुतशिकनी में मुलव्वस भी होते रहे हैं।
मन्दिरों के तोड़े जाने की बात को स्वीकार करने में बड़ी परेशानी है। एक पक्ष इस अतिचार से इस हद तक आहत हो जाता है कि उस की ज़िम्मेवारी आज के सारे मुसलमानों पर थोपने लगता है, और मुसलमान घबरा कर ऐसे किसी भी अतिचार को मानने से ही इंकार करने लगता है, और उन आक्रांताओ से अपना अलगाव करने के बजाय उनसे चिपटता जाता है। और तीसरा पक्ष, सामाजिक सौहार्द के नाम पर, सिर्फ़ क़ानूनी पहाड़े याद करने लगता है।
जो काम आज अदालत ने किया है – कि आस्था ही प्रमाण है – यह काम बहुत पहले सामाजिक संगठनो और राजनैतिक दलों को करना चाहिये था; और इस्लाम में मस्जिद का कोई महत्व नहीं है, वह सिर्फ़ नमाज़ पढ़ने की एक जगह है। इस्लामी राज्यों में मस्जिद को एक जगह से दूसरे जगह पर विस्थापित कर देना कोई बड़ी बात नहीं है। अगर हमारे नेता चाहते तो मुस्लिम समाज को विश्वास में लेकर इस दिशा में क़दम बढ़ा सकते थे, लेकिन हमारे देश के किसी भी राजनैतिक दल में ये साहस नहीं था, न ही है।
अदालत ने आज जो सामाजिक सौहार्द की पुनर्स्थापना का जो क़दम उन्होने उठाया है, उन्होने ऐसा कुछ नहीं किया, उन्होने उलटा किया। हिन्दुओं के भीतर के इस पराजय बोध, और मुसलमानों के भीतर बैठी असुरक्षा और अपने आत्मसम्मान की रक्षा की भावना का इस्तेमाल किया- सत्ता को हासिल करने के लिए। राजीव गाँधी, लाकॄ आडवाणी, लालू और मुलायम.. सब ने एक या दूसरे समुदाय का राजनैतिक इस्तेमाल करने के दोषी हैं।
लेकिन सारे दोषियों का सिरमौर, लालकृष्ण आडवाणी है। पराजय की भावना एक रोग है, उस से प्रेरित होकर सिर्फ़ और सिर्फ़ पाप किया जा सकता है। और आडवाणी ने देश के नौजवानों को किसी स्वस्थ भाव की प्रेरणा नहीं दी, एक रुग्ण कुण्ठा को कुरेद कर एक राक्षसी आन्दोलन पैदा किया था इस व्यक्ति ने। अपने आन्दोलन के तेवर से उसने सुझाया था कि मस्जिद गिरा देने से हमारे भीतर के पराधीनता की जातीय स्मृति का निराकरण हो जाएगा। लेकिन ऐतिहासिक तथ्य क्या कुछ तोड़-फोड़ करने से मिट जाते हैं? और वैसे भी दूसरे को अपमानित करने से अपना सम्मान नहीं होता, न हुआ! स्वाधीनता, आत्मविश्वास और सफलता के उगने की ज़मीन कुछ और ही होती है, कुण्ठा नहीं।
इसीलिए हिन्दू समुदाय को कुण्ठा से प्रेरित कर रहे आडवाणी और उस के उस हिंसक आन्दोलन ने प्रतीकों और मूर्तियों में आस्था न रखने वाले मुस्लिम समुदाय को एक ऐसे भय और असुरक्षा के भाव में धकेल दिया जिस में वे एक मस्जिद को ही अपनी आस्था और पहचान का मूर्तिमान स्वरूप समझने लगे! पूरे देश में दंगे हुए, हज़ारों लोग मारे गए। देश में दोनों समुदायों के बीच एक ऐसी दीवार खिंच गई जिसे पाटना पहले से अधिक मुश्किल हो चला है।
इसीलिए हिन्दू समुदाय को कुण्ठा से प्रेरित कर रहे आडवाणी और उस के उस हिंसक आन्दोलन ने प्रतीकों और मूर्तियों में आस्था न रखने वाले मुस्लिम समुदाय को एक ऐसे भय और असुरक्षा के भाव में धकेल दिया जिस में वे एक मस्जिद को ही अपनी आस्था और पहचान का मूर्तिमान स्वरूप समझने लगे! पूरे देश में दंगे हुए, हज़ारों लोग मारे गए। देश में दोनों समुदायों के बीच एक ऐसी दीवार खिंच गई जिसे पाटना पहले से अधिक मुश्किल हो चला है।
ये फ़ैसला ठीक है लेकिन इसी के आधार पर अपने मुसलमान भाईयों के बीच एक सहजता की उम्मीद करना बेकार है। वे स्वेच्छा से, आपसी बातचीत से, क़ानूनी फ़ैसले के आधार पर, उस स्थान को राममन्दिर बनने के लिए दे देते तो कोई बात नहीं थी। लेकिन ये स्वेच्छा से नहीं हुआ है। सुनियोजित तरह से, जगह-जगह भड़काऊ भाषण कर के मुस्लिमों को नीचा दिखाने के लिए इस मस्जिद को दंगाईयों ने तोड़ा था। इसके पहले कि ऐसा अपमान, ऐसा पराजयबोध, उनके भीतर भी एक रुग्ण-कुंठित मानसिकता को जन्म दे, हमें चाहिये कि इस अपमान के असली अपराधियों पर मुक़द्दमा चलायें। अभी जो हुआ है ये इंसाफ़ नहीं है; उन अपराधियों को दण्डित करना ही असली इंसाफ़ होगा।
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