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शुक्रवार, 1 अक्टूबर 2010

अमन के लिए फ़ैसला.. इंसाफ़ नहीं है!



साठ साल बाद एक जटिल मसले पर फ़ैसला आया है। इस देश में न्यायिक प्रक्रिया की धीमी निष्क्रिय गति को देखते हुए तमाम लोग शुक्र मना सकते हैं कि वे अपने जीवनकाल में न्यायालय को एक फ़ैसला सुनाते हुए देख पा रहे हैं। बार-बार बताया जा रहा है कि यह एक नया भारत है, और नया भारत आगे बढ़ गया है, और नए भारत के आगे बढ़ जाने का ये भी एक लक्षण है कि वह कठिन फ़ैसले सुनाने में घबराता नहीं है तो यह अच्छी बात है।

लेकिन जो फ़ैसला आया है, मैं उस से मुतमईन नहीं हूँ। ऐसा नहीं लगता है कि यह किसी न्यायालय का फ़ैसला है। लगता है कि जैसे किसी सदय पिता ने अपने झगड़ते बच्चों के बीच खिलौने का बँटवारा कर दिया है- लो तीनों मिलकर खेलो! मैं कोई न्यायविद नहीं हूँ और न ही मैंने सम्पूर्ण फ़ैसले का अध्ययन किया है। लेकिन निर्णय का संक्षेप पढ़ने से जो बात समझ आती है वह ये है कि चीज़ों का फ़ैसला ताथ्यिक आधार पर नहीं बल्कि मान्यताओं के आधार पर किया गया है।

अब जैसे विवादित स्थल पर मन्दिर था या नहीं, इस को तय करने में मान्यता का सहारा लिया गया है। दूसरी ओर कई सालों से खड़ी मस्जिद पर से वक्फ़ बोर्ड के अधिकार को इस क़ानूनी पेंच के आधार पर ख़ारिज कर दिया गया कि उन्होने मुक़द्दमा करने में छै साल की देरी कर दी। और अगर वक़्फ़ बोर्ड का अधिकार उस ज़मीन पर है ही नहीं तो उन्हे एक तिहाई हिस्सा दिया ही क्यों जा रहा है? क्या यह अदालत के द्वारा उदारता का प्रदर्शन है? या समाज में व्यापक शांति बनाए रखने के लिए एक सौहार्दपूर्ण कोशिश?

हाँ यह ठीक है कि अगर फ़ैसला यह आता कि ज़मीन वक़्फ़ बोर्ड की है मस्जिद की फिर से तामीर हो, तो हिन्दू सेनाएं फिर से जूझने लगतीं और देश फिर से बेकार के टंटो में उलझ जाता। और अगर यह फ़ैसला आता कि विवादित ज़मीन पर वक़्फ़ बोर्ड का कोई हक़ नहीं और वहाँ पर पहले भी मन्दिर था और आगे भी मन्दिर बने तो मुस्लिम मानस निराशा के अँधेरों में डूबकर किसी भयानक नकारात्मकता का शिकार हो जाता। एक तरह से देखा जाय तो ये फ़ैसला दोनों के बीच एक मध्यमार्गी फ़ैसला है, जो अमन व शांति के लिए शायद बेहतर है।

पर क्या यह अदालत का काम है कि वह ज़मीन की मिल्कियत से जुड़े एक मामले पर अमन और शांति की परवाह के नज़रिये से अपना फ़ैसला सुनाए? तथ्यों के आधार पर फ़ैसला एक होना चाहिये लेकिन कहीं आस्थाएं न आहत हो जायं तो दूसरा फ़ैसला बता दे? यह काम तो सामाजिक संगठनों और राजनैतिक दलों का होना चाहिये! लेकिन अफ़सोस! सामाजिक संगठन और राजनैतिक दल समाज को जोड़ने का नहीं तोड़ने का काम कर रहे हैं। और उनके घोर अपराधों की बहुमत का समर्थन होने की आड़ में छिपाया जा रहा है!

मैं पूछना चाहता हूँ कि इस देश में क्या क़ानून एक निरपेक्ष वस्तु है या वह आदमी की आर्थिक, सामाजिक, और राजनैतिक हैसियत देखकर तय होता है? क्या सीवान में कौमरेड चन्द्रशेखर के हत्यारे शहाबुद्दीन को इसलिए सजा नहीं मिलनी चाहिये क्योंकि उसे वहाँ की जनता का लोकप्रिय समर्थन प्राप्त है? क्या कश्मीर से पण्डितों की सुनियोजित ढंग से हत्या करने वाले व्यक्तियों को इसलिए खुले तौर पर राजनीति करते रहने की अनुमति इसलिए मिलती रहनी चाहिये क्योंकि उन्हे छेड़ने से घाटी में शांति लाने की प्रक्रिया को ठेस पहुँचती है? गुजरात में मोदी ने जनता से दोबारा पाँच साल राज करने का लाइसेंस हासिल कर लिया है क्या इसी बिना पर उसके १२०० निर्दोष मुसलमान नागरिकों की सुनियोजित हत्याकाण्ड चलाने का अपराध माफ़ हो जाता है?

अगर ऐसा नहीं है तो जिस आदमी ने देश के कोने-कोने में जा कर एक महत्वहीन मस्जिद को हिन्दू सम्मान के अतिक्रमण का प्रतीक बनाकर और उस के आधार पर देश के बेरोज़गार नौजवानों की बेकार ऊर्जा को पूरे मुसलमान समुदाय के खिलाफ़ प्रेरित करने का जो ऐतिहासिक अपराध किया था, उसे उन सारी हत्याओं का ज़िम्मेदार मानकर सजा क्यों नहीं मिलनी चाहिये, जो बाबरी मस्जिद गिराये जाने के बाद उस कारण इस देश में हुई हैं, और दूसरे देशों में भी हुई हैं। अगर हत्या करना अपराध है तो हत्या करने के लिए उकसाना भी अपराध है!

ये बात हमें साफ़-साफ़ समझ लेनी चाहिये कि बाबरी मस्जिद मुद्दा नहीं है। और न ही राम मंदिर मुद्दा है। मुद्दा कुछ और है! हिन्दुओं की ओर से मुद्दा है बरसों से हुए पराजय और अपमान के इतिहास के बोझ से मुक्ति पाना, और मुसलमानों की ओर से मुद्दा है एक हिन्दूबहुल देश में असुरक्षा और आत्मसम्मान का। रामजन्मभूमि और बाबरी मस्जिद का ज़मीनी झगड़ा चल रहा था बहुत सालों से। १८५५ तक के तो रिकार्ड भी मौजूद हैं। अंग्रेज़ों को इस मामले को सुलझाने में कितनी दिलचस्पी रही होगी, कहना मुश्किल है। लेकिन ग़ौर करने योग्य बात ये है कि आज़ादी मिलने के बाद लोगों ने इस मसले को सुलझाने का प्रयास नहीं किया, बल्कि हाथ आई नई ताक़त और सत्ता के ज़रिये इस ज़मीन को क़ब्ज़ियाने का काम किया। धिक्कार है इस देश के नेतृत्व पर जो आज़ादी के तुरंत बाद के उस आंशिक आदर्शवादिता के दौर में भी न तो किसी तरह के न्यायिक आस्थाओं का मुज़ाहिरा कर सका और न ही समुदायों के बीच मन-मुटाव मिटा कर उनके बीच झगड़े सुलझाने का!

ये कोई ढकी-छिपी बात नहीं है, सब जानते हैं कि इस्लाम में बुतशिकनी का एक इतिहास है, एक परम्परा है। मक्का से लेकर भारत तक मुसलमान मूर्तियों को तोड़ते आए हैं। भारत में भी साढ़े छै सौ साल के इतिहास में बहुत से शासक ऐसे भी हुए हैं जिन्होने बहुसंख्यक समुदाय की आस्थाओं को समझते हुए मन्दिरों का निर्माण भी करवाया है लेकिन मुख़्तलिफ़ मुस्लिम शासक बुतशिकनी में मुलव्वस भी होते रहे हैं।

मन्दिरों के तोड़े जाने की बात को स्वीकार करने में बड़ी परेशानी है। एक पक्ष इस अतिचार से इस हद तक आहत हो जाता है कि उस की ज़िम्मेवारी आज के सारे मुसलमानों पर थोपने लगता है, और मुसलमान घबरा कर ऐसे किसी भी अतिचार को मानने से ही इंकार करने लगता है, और उन आक्रांताओ से अपना अलगाव करने के बजाय उनसे चिपटता जाता है। और तीसरा पक्ष, सामाजिक सौहार्द के नाम पर, सिर्फ़ क़ानूनी पहाड़े याद करने लगता है।

जो काम आज अदालत ने किया है – कि आस्था ही प्रमाण है – यह काम बहुत पहले सामाजिक संगठनो और राजनैतिक दलों को करना चाहिये था; और इस्लाम में मस्जिद का कोई महत्व नहीं है, वह सिर्फ़ नमाज़ पढ़ने की एक जगह है। इस्लामी राज्यों में मस्जिद को एक जगह से दूसरे जगह पर विस्थापित कर देना कोई बड़ी बात नहीं है। अगर हमारे नेता चाहते तो मुस्लिम समाज को विश्वास में लेकर इस दिशा में क़दम बढ़ा सकते थे, लेकिन हमारे देश के किसी भी राजनैतिक दल में ये साहस नहीं था, न ही है।

अदालत ने आज जो सामाजिक सौहार्द की पुनर्स्थापना का जो क़दम उन्होने उठाया है, उन्होने ऐसा कुछ नहीं किया, उन्होने उलटा किया। हिन्दुओं के भीतर के इस पराजय बोध, और मुसलमानों के भीतर बैठी असुरक्षा और अपने आत्मसम्मान की रक्षा की भावना का इस्तेमाल किया- सत्ता को हासिल करने के लिए। राजीव गाँधी, लाकॄ आडवाणी, लालू और मुलायम.. सब ने एक या दूसरे समुदाय का राजनैतिक इस्तेमाल करने के दोषी हैं।

लेकिन सारे दोषियों का सिरमौर, लालकृष्ण आडवाणी है। पराजय की भावना एक रोग है, उस से प्रेरित होकर सिर्फ़ और सिर्फ़ पाप किया जा सकता है। और आडवाणी ने देश के नौजवानों को किसी स्वस्थ भाव की प्रेरणा नहीं दी, एक रुग्ण कुण्ठा को कुरेद कर एक राक्षसी आन्दोलन पैदा किया था इस व्यक्ति ने। अपने आन्दोलन के तेवर से उसने सुझाया था कि मस्जिद गिरा देने से हमारे भीतर के पराधीनता की जातीय स्मृति का  निराकरण  हो जाएगा। लेकिन ऐतिहासिक तथ्य क्या कुछ तोड़-फोड़ करने से मिट जाते हैं? और वैसे भी दूसरे को अपमानित करने से अपना सम्मान नहीं होता, न हुआ! स्वाधीनता, आत्मविश्वास और सफलता के उगने की ज़मीन कुछ और ही होती है, कुण्ठा नहीं। 

इसीलिए हिन्दू समुदाय को कुण्ठा से प्रेरित कर रहे आडवाणी  और उस के उस हिंसक आन्दोलन ने प्रतीकों और मूर्तियों में आस्था न रखने वाले मुस्लिम समुदाय को एक ऐसे भय और असुरक्षा के भाव में धकेल दिया जिस में वे एक मस्जिद को ही अपनी आस्था और पहचान का मूर्तिमान स्वरूप समझने लगे! पूरे देश में दंगे हुए, हज़ारों लोग मारे गए। देश में दोनों समुदायों के बीच एक ऐसी दीवार खिंच गई जिसे पाटना पहले से अधिक मुश्किल हो चला है।

ये फ़ैसला ठीक है लेकिन इसी के आधार पर अपने मुसलमान भाईयों के बीच  एक सहजता की उम्मीद करना बेकार है। वे स्वेच्छा से, आपसी बातचीत से, क़ानूनी फ़ैसले के आधार पर, उस स्थान को राममन्दिर बनने के लिए दे देते तो कोई बात नहीं थी। लेकिन ये स्वेच्छा से नहीं हुआ है। सुनियोजित तरह से, जगह-जगह भड़काऊ भाषण कर के मुस्लिमों को नीचा दिखाने के लिए इस मस्जिद को दंगाईयों ने तोड़ा था। इसके पहले कि ऐसा अपमान, ऐसा पराजयबोध, उनके भीतर भी एक रुग्ण-कुंठित मानसिकता को जन्म दे, हमें चाहिये कि इस अपमान के असली अपराधियों पर मुक़द्दमा चलायें। अभी जो हुआ है ये इंसाफ़ नहीं है; उन अपराधियों को दण्डित करना ही असली इंसाफ़ होगा।

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सोमवार, 4 मई 2009

उनके जीवन का सब से दुखद दिन

ये नेता जनता को कितना मूर्ख समझते हैं, न तो इसकी कोई हद है और न इनकी मक्कारी की कोई सीमा। भूतपूर्व रामभक्त और वर्तमान मुलायम भक्त कल्याण सिंह का कहना है कि भाजपा ने उन्हे धोखा दिया, उनकी आँखों में धूल झोंककर बाबरी मस्जिद गिरा दी। वास्तव में तो वे मुसलमानों के सच्चे मित्र हैं।

इस बयान से मुझे बरबस लाल कृष्ण अडवाणी के उस बयान की याद आ गई जिसमें वे फ़रमाते हैं कि ६ दिसम्बर १९९२ उनके जीवन का सब से दुखद दिन है। अडवाणी जी की फ़ित्रत के अनुसार तो यह बयान भी उतना धूर्ततापूर्ण है जितना के उनके पूर्व चेले कल्याण सिंह का। पर मुझे लगता है कि अडवाणी साहब झूठ नहीं बोल रहे हैं। वाक़ई वो दिन उनके जीवन का सब से दुखद दिन हो सकता है जिस दिन उनकी सोने की मुर्ग़ी हलाल कर दी गई हो।

ये उसी दुखद दिन का नतीजा है कि आज लगभग बीस साल बाद जबकि वे क़ब्र में पैर लटका कर बैठे हैं और प्रधानमंत्री की गद्दी उनके पहुँच से दूर और दूर होती जा रही है। जनता को बहकाने के लिए उनके पास एक मुद्दा भी नहीं; और राम मन्दिर तो इतना फीका हो चुका है कि मोदी भी उसका ज़िक्र करने से क़तरा रहे हैं।

अगर बाबरी मस्जिद नहीं गिरी होती तो आज भी वो विवादित स्थल पर वहीं शोभायमान होती जहाँ आजकल रामलला विराजमान हैं। और बार-बार मुस्लिम आक्रमणकारियों के मूर्तिभंजक इतिहास की दुहाई दे-दे कर हिन्दुओं के खून को खौलाया जा रहा होता। हिन्दू और मुसलमानों के बीच वैमनस्य को रोज़ भड़काया जा रहा होता। आज वो कुछ सम्भव नहीं क्योंकि बाबरी मस्जिद के गिर जाने से हिन्दुओं की प्रतिशोध की भूख पूरी हो गई.. मगर मुसलमानों के भीतर जाग गई। जिसका प्रमाण हमें मुम्बई सीरियल बम विस्फोट जैसी घटनाओं में मिला।

यहाँ एक बात साफ़ कर देना और ज़रूरी है। मेरे जैसे आस्तिक मगर ग़ैर-कर्मकाण्डी हिन्दू के लिए न तो किसी मन्दिर का कोई अर्थ है और न किसी मस्जिद में कोई श्रद्धा। मुझे बाबरी मस्जिद के वहाँ खड़े रहने से न तो कोई सुकून मिलता था और न ही उसके गिरने से मेरे मानसिक संसार में कोई अभाव आ गया है।

इस देश के बहुत सारे सेकुलरपंथी इस बात से भाजपा और विहिप से खौरियाये नज़र आते हैं कि उन्होने एक ऐतिहासिक महत्व की इमारत को गिरा दिया! इस देश में हज़ारों ऐसे ऐतिहासिक स्थल हैं जहाँ जा कर मूतने में सेकुलरपंथियों को कोई गुरेज़ नहीं होगा। आम जनता वक़्त पड़ने पर उसकी ईंट उखाड़ कर क्रिकेट का विकेट बनाने में इस्तेमाल करती रही हैं। मुझे उनकी इस पुरातत्व-प्रियता में राजनीति की बू आती है।

मुझे इस तरह के शुद्ध, रुक्ष पुरातत्वी इतिहास में कोई आस्था नहीं; मेरे लिए वो ऐतिहासिक स्मृतियाँ अधिक मह्त्व की हैं जो मनुष्य के मानस में क़ैद रहती हैं। वही स्मृतियों जिनके नासूर में उंगलियाँ घुसा कर लाल कृष्ण अडवाणी ने इस देश में नफ़रत की राजनीतिक फ़सल काटी है।

एक और दूसरी बात साफ़ करने की ज़रूरत है कि यह सच नहीं है कि इस देश में हिन्दू और मुसलमान हमेशा शान्तिपूर्ण ढंग से रहते आए हैं। सेकुलर इतिहासकार सिर्फ़ एक साझी संस्कृति की छवि को ही उभारते आये हैं ऐसे तमाम तथ्यों पर परदा डालकर जो उनकी इस निष्पत्ति के विरोध में हों। साझी संस्कृति की बात पूरी तरह ग़लत नहीं है मगर वो अधूरा सच है। उसका पूरक सच - एक आपसी संघर्ष का सच और समय-समय पर हिन्दुओं के दमन का सच है।

बाबरी मस्जिद राम मन्दिर को तोड़कर बनी थी या नहीं इस बात का प्रमाण माँग कर हम अडवाणी जैसे मक़्कार राजनीतिज्ञों के क़दम कुछ देर के लिए तो रोक सकते हैं मगर हिन्दू मानस में दबी, मन्दिरों के तोड़े जाने की उस जातीय स्मृति को मेट नहीं सकते जो निराधार नहीं है। खुद मुस्लिम इतिहासकारों ने ऐसे अभियानो का विस्तार से वर्णन किया है।

हमारे सामने दो तरह के झूठे इतिहास रखे जाते हैं। एक इतिहास समाज में भाई़चारा बना रहे इसलिए झूठ बोलता है तो दूसरा अपने पराजय बोध को घटाने के लिए और समाज में साम्प्रदायिक तनाव बढ़ाने के लिए झूठ बोलता है। कोई सत्य की शक्ति में यक़ीन नहीं करना चाहता और न ही समय के स्वाभाविक प्रवाह से जातीय स्मृतियों के सुलझ जाने में विश्वास रखना चाहता है। एक उन्हे नकारता है तो दूसरा आग से आग बुझाना चाहता है।

एक स्वस्थ समाज के लिए उसके व्यक्ति को पराजयबोध से मुक्त होना चाहिये। तो क्या हर हिन्दू को विदेशी आक्रमणकारियों के साथ संघर्ष में अपने पूर्वजों की हार का बदला अपने निर्दोष पड़ोसियों से लेना चाहिये? ऐसी सोच और कृत्य को बढ़ावा देना नीचता, कायरता और अपराध है। हिन्दुओं के नाम पर राजनीति करने वाले दल यही करते रहे हैं।

रथ-यात्रा निकाल कर इस देश के गाँव-गाँव में लालकृष्ण आडवाणी ने जो दंगे का माहौल तैयार किया था, उसमें हज़ारों हिन्दू-मुसलमानों की जाने गईं। मैं उसके लिए व्यक्तिगत तौर पर लाल कृष्ण अडवाणी को ज़िम्मेदार मानता हूँ। मेरा सवाल है कि उन्हे बाबरी मस्जिद से सम्बन्धित हर दंगे में होनी वाली मौत के लिए अपराधी क्यों नहीं माना जाय?

कैसे एक लिबेरहान इन्क्वायरी कमीशन महज़ उनके एक अकेले बयान पर बरी कर देता है कि वो मेरे जीवन का सब से दुखद दिन था? क्या उन्हे दिखता नहीं कि वो शख्स गाँव-गाँव नगर-नगर आग लगाता आ रहा था? और जब मस्जिद गिर गई तो रोने लगा कि हमें क्या पता कि कैसे गिर गई? मेरी समझ में तो वही केन्द्रीय रूप से अपराधी हैं।

मैंने पहले भी कहा कि मुझे मस्जिद गिरने से कोई फ़रक नहीं पड़ा। और जहाँ बाबरी मस्जिद थी वहाँ राम मन्दिर बनने में भी मेरी कोई रुचि है। बावजूद इसके कि मैं मानता हूँ कि राम ने उसी अयोध्या में जन्म लिया था जो देश में समुदायों के बीच का क्लेश का कारण बनी हुई है। मुझे राम में श्रद्धा है मगर मेरे राम अपने भक्तों के हदय में रहते हैं किसी हाईली सेक्योर्ड टेंट में नहीं।

फिर भी अगर कभी वहाँ मन्दिर बन गया तो मुझे तकलीफ़ भी न होगी। लेकिन उस के बनने से अगर मेरे मुसलमान दोस्तों के मन में कोई पराजय-भाव घर करता है, कोई चोट लगती है तो ऐसा मन्दिर मुझे सात जन्मों तक भी स्वीकार्य न होगा। मन्दिर ईश्वर से आदमी का योग कराने के अभिप्राय से बनता है, आदमी का आदमी से जो वैर कराए वो मन्दिर आदमी को ईश्वर से मिला देगा इस धोखे में जो रहना चाहता है तो रहे, मैं इतना अबोध नहीं।

और जो लोग इस धोखे में हैं कि भाजपा या अडवाणी कभी कोई मन्दिर बनवा देंगे तो जाग जायें, राम का नाम लेकर राजनीतिक लाभ उठाने वाले अडवाणी और कल्याण सिंह जैसे लोग मन्दिर बनाने में नहीं मस्जिद गिराने में यक़ीन रखते हैं। और फिर मस्जिद गिरा कर एक अपने को दुखी बताने लगते हैं और दूसरे कहते हैं कि उनके साथ धोखा हुआ है। हैरत है कि देश के हिन्दू लोग इन पर भरोसा करते हैं और मुसलमान मुलायम जैसे ढोंगियों पर जो एक तरफ़ तो इन राक्षसों से उन्हे बचाने का वादा करते हैं और फिर वोट के लालच में उन के पैर छू कर धर्म निरपेक्षता का प्रमाण पत्र भी पकड़ा आते हैं।

ये नेता तो धन्य हैं ही, हमारे देश की जनता भी धन्य है।
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