साठ साल बाद एक जटिल मसले पर फ़ैसला आया है। इस देश में न्यायिक प्रक्रिया की धीमी निष्क्रिय गति को देखते हुए तमाम लोग शुक्र मना सकते हैं कि वे अपने जीवनकाल में न्यायालय को एक फ़ैसला सुनाते हुए देख पा रहे हैं। बार-बार बताया जा रहा है कि यह एक नया भारत है, और नया भारत आगे बढ़ गया है, और नए भारत के आगे बढ़ जाने का ये भी एक लक्षण है कि वह कठिन फ़ैसले सुनाने में घबराता नहीं है तो यह अच्छी बात है।
लेकिन जो फ़ैसला आया है, मैं उस से मुतमईन नहीं हूँ। ऐसा नहीं लगता है कि यह किसी न्यायालय का फ़ैसला है। लगता है कि जैसे किसी सदय पिता ने अपने झगड़ते बच्चों के बीच खिलौने का बँटवारा कर दिया है- लो तीनों मिलकर खेलो! मैं कोई न्यायविद नहीं हूँ और न ही मैंने सम्पूर्ण फ़ैसले का अध्ययन किया है। लेकिन निर्णय का संक्षेप पढ़ने से जो बात समझ आती है वह ये है कि चीज़ों का फ़ैसला ताथ्यिक आधार पर नहीं बल्कि मान्यताओं के आधार पर किया गया है।
अब जैसे विवादित स्थल पर मन्दिर था या नहीं, इस को तय करने में मान्यता का सहारा लिया गया है। दूसरी ओर कई सालों से खड़ी मस्जिद पर से वक्फ़ बोर्ड के अधिकार को इस क़ानूनी पेंच के आधार पर ख़ारिज कर दिया गया कि उन्होने मुक़द्दमा करने में छै साल की देरी कर दी। और अगर वक़्फ़ बोर्ड का अधिकार उस ज़मीन पर है ही नहीं तो उन्हे एक तिहाई हिस्सा दिया ही क्यों जा रहा है? क्या यह अदालत के द्वारा उदारता का प्रदर्शन है? या समाज में व्यापक शांति बनाए रखने के लिए एक सौहार्दपूर्ण कोशिश?
हाँ यह ठीक है कि अगर फ़ैसला यह आता कि ज़मीन वक़्फ़ बोर्ड की है मस्जिद की फिर से तामीर हो, तो हिन्दू सेनाएं फिर से जूझने लगतीं और देश फिर से बेकार के टंटो में उलझ जाता। और अगर यह फ़ैसला आता कि विवादित ज़मीन पर वक़्फ़ बोर्ड का कोई हक़ नहीं और वहाँ पर पहले भी मन्दिर था और आगे भी मन्दिर बने तो मुस्लिम मानस निराशा के अँधेरों में डूबकर किसी भयानक नकारात्मकता का शिकार हो जाता। एक तरह से देखा जाय तो ये फ़ैसला दोनों के बीच एक मध्यमार्गी फ़ैसला है, जो अमन व शांति के लिए शायद बेहतर है।
पर क्या यह अदालत का काम है कि वह ज़मीन की मिल्कियत से जुड़े एक मामले पर अमन और शांति की परवाह के नज़रिये से अपना फ़ैसला सुनाए? तथ्यों के आधार पर फ़ैसला एक होना चाहिये लेकिन कहीं आस्थाएं न आहत हो जायं तो दूसरा फ़ैसला बता दे? यह काम तो सामाजिक संगठनों और राजनैतिक दलों का होना चाहिये! लेकिन अफ़सोस! सामाजिक संगठन और राजनैतिक दल समाज को जोड़ने का नहीं तोड़ने का काम कर रहे हैं। और उनके घोर अपराधों की बहुमत का समर्थन होने की आड़ में छिपाया जा रहा है!
मैं पूछना चाहता हूँ कि इस देश में क्या क़ानून एक निरपेक्ष वस्तु है या वह आदमी की आर्थिक, सामाजिक, और राजनैतिक हैसियत देखकर तय होता है? क्या सीवान में कौमरेड चन्द्रशेखर के हत्यारे शहाबुद्दीन को इसलिए सजा नहीं मिलनी चाहिये क्योंकि उसे वहाँ की जनता का लोकप्रिय समर्थन प्राप्त है? क्या कश्मीर से पण्डितों की सुनियोजित ढंग से हत्या करने वाले व्यक्तियों को इसलिए खुले तौर पर राजनीति करते रहने की अनुमति इसलिए मिलती रहनी चाहिये क्योंकि उन्हे छेड़ने से घाटी में शांति लाने की प्रक्रिया को ठेस पहुँचती है? गुजरात में मोदी ने जनता से दोबारा पाँच साल राज करने का लाइसेंस हासिल कर लिया है क्या इसी बिना पर उसके १२०० निर्दोष मुसलमान नागरिकों की सुनियोजित हत्याकाण्ड चलाने का अपराध माफ़ हो जाता है?
अगर ऐसा नहीं है तो जिस आदमी ने देश के कोने-कोने में जा कर एक महत्वहीन मस्जिद को हिन्दू सम्मान के अतिक्रमण का प्रतीक बनाकर और उस के आधार पर देश के बेरोज़गार नौजवानों की बेकार ऊर्जा को पूरे मुसलमान समुदाय के खिलाफ़ प्रेरित करने का जो ऐतिहासिक अपराध किया था, उसे उन सारी हत्याओं का ज़िम्मेदार मानकर सजा क्यों नहीं मिलनी चाहिये, जो बाबरी मस्जिद गिराये जाने के बाद उस कारण इस देश में हुई हैं, और दूसरे देशों में भी हुई हैं। अगर हत्या करना अपराध है तो हत्या करने के लिए उकसाना भी अपराध है!
ये बात हमें साफ़-साफ़ समझ लेनी चाहिये कि बाबरी मस्जिद मुद्दा नहीं है। और न ही राम मंदिर मुद्दा है। मुद्दा कुछ और है! हिन्दुओं की ओर से मुद्दा है बरसों से हुए पराजय और अपमान के इतिहास के बोझ से मुक्ति पाना, और मुसलमानों की ओर से मुद्दा है एक हिन्दूबहुल देश में असुरक्षा और आत्मसम्मान का। रामजन्मभूमि और बाबरी मस्जिद का ज़मीनी झगड़ा चल रहा था बहुत सालों से। १८५५ तक के तो रिकार्ड भी मौजूद हैं। अंग्रेज़ों को इस मामले को सुलझाने में कितनी दिलचस्पी रही होगी, कहना मुश्किल है। लेकिन ग़ौर करने योग्य बात ये है कि आज़ादी मिलने के बाद लोगों ने इस मसले को सुलझाने का प्रयास नहीं किया, बल्कि हाथ आई नई ताक़त और सत्ता के ज़रिये इस ज़मीन को क़ब्ज़ियाने का काम किया। धिक्कार है इस देश के नेतृत्व पर जो आज़ादी के तुरंत बाद के उस आंशिक आदर्शवादिता के दौर में भी न तो किसी तरह के न्यायिक आस्थाओं का मुज़ाहिरा कर सका और न ही समुदायों के बीच मन-मुटाव मिटा कर उनके बीच झगड़े सुलझाने का!
ये कोई ढकी-छिपी बात नहीं है, सब जानते हैं कि इस्लाम में बुतशिकनी का एक इतिहास है, एक परम्परा है। मक्का से लेकर भारत तक मुसलमान मूर्तियों को तोड़ते आए हैं। भारत में भी साढ़े छै सौ साल के इतिहास में बहुत से शासक ऐसे भी हुए हैं जिन्होने बहुसंख्यक समुदाय की आस्थाओं को समझते हुए मन्दिरों का निर्माण भी करवाया है लेकिन मुख़्तलिफ़ मुस्लिम शासक बुतशिकनी में मुलव्वस भी होते रहे हैं।
मन्दिरों के तोड़े जाने की बात को स्वीकार करने में बड़ी परेशानी है। एक पक्ष इस अतिचार से इस हद तक आहत हो जाता है कि उस की ज़िम्मेवारी आज के सारे मुसलमानों पर थोपने लगता है, और मुसलमान घबरा कर ऐसे किसी भी अतिचार को मानने से ही इंकार करने लगता है, और उन आक्रांताओ से अपना अलगाव करने के बजाय उनसे चिपटता जाता है। और तीसरा पक्ष, सामाजिक सौहार्द के नाम पर, सिर्फ़ क़ानूनी पहाड़े याद करने लगता है।
जो काम आज अदालत ने किया है – कि आस्था ही प्रमाण है – यह काम बहुत पहले सामाजिक संगठनो और राजनैतिक दलों को करना चाहिये था; और इस्लाम में मस्जिद का कोई महत्व नहीं है, वह सिर्फ़ नमाज़ पढ़ने की एक जगह है। इस्लामी राज्यों में मस्जिद को एक जगह से दूसरे जगह पर विस्थापित कर देना कोई बड़ी बात नहीं है। अगर हमारे नेता चाहते तो मुस्लिम समाज को विश्वास में लेकर इस दिशा में क़दम बढ़ा सकते थे, लेकिन हमारे देश के किसी भी राजनैतिक दल में ये साहस नहीं था, न ही है।
अदालत ने आज जो सामाजिक सौहार्द की पुनर्स्थापना का जो क़दम उन्होने उठाया है, उन्होने ऐसा कुछ नहीं किया, उन्होने उलटा किया। हिन्दुओं के भीतर के इस पराजय बोध, और मुसलमानों के भीतर बैठी असुरक्षा और अपने आत्मसम्मान की रक्षा की भावना का इस्तेमाल किया- सत्ता को हासिल करने के लिए। राजीव गाँधी, लाकॄ आडवाणी, लालू और मुलायम.. सब ने एक या दूसरे समुदाय का राजनैतिक इस्तेमाल करने के दोषी हैं।
लेकिन सारे दोषियों का सिरमौर, लालकृष्ण आडवाणी है। पराजय की भावना एक रोग है, उस से प्रेरित होकर सिर्फ़ और सिर्फ़ पाप किया जा सकता है। और आडवाणी ने देश के नौजवानों को किसी स्वस्थ भाव की प्रेरणा नहीं दी, एक रुग्ण कुण्ठा को कुरेद कर एक राक्षसी आन्दोलन पैदा किया था इस व्यक्ति ने। अपने आन्दोलन के तेवर से उसने सुझाया था कि मस्जिद गिरा देने से हमारे भीतर के पराधीनता की जातीय स्मृति का निराकरण हो जाएगा। लेकिन ऐतिहासिक तथ्य क्या कुछ तोड़-फोड़ करने से मिट जाते हैं? और वैसे भी दूसरे को अपमानित करने से अपना सम्मान नहीं होता, न हुआ! स्वाधीनता, आत्मविश्वास और सफलता के उगने की ज़मीन कुछ और ही होती है, कुण्ठा नहीं।
इसीलिए हिन्दू समुदाय को कुण्ठा से प्रेरित कर रहे आडवाणी और उस के उस हिंसक आन्दोलन ने प्रतीकों और मूर्तियों में आस्था न रखने वाले मुस्लिम समुदाय को एक ऐसे भय और असुरक्षा के भाव में धकेल दिया जिस में वे एक मस्जिद को ही अपनी आस्था और पहचान का मूर्तिमान स्वरूप समझने लगे! पूरे देश में दंगे हुए, हज़ारों लोग मारे गए। देश में दोनों समुदायों के बीच एक ऐसी दीवार खिंच गई जिसे पाटना पहले से अधिक मुश्किल हो चला है।
इसीलिए हिन्दू समुदाय को कुण्ठा से प्रेरित कर रहे आडवाणी और उस के उस हिंसक आन्दोलन ने प्रतीकों और मूर्तियों में आस्था न रखने वाले मुस्लिम समुदाय को एक ऐसे भय और असुरक्षा के भाव में धकेल दिया जिस में वे एक मस्जिद को ही अपनी आस्था और पहचान का मूर्तिमान स्वरूप समझने लगे! पूरे देश में दंगे हुए, हज़ारों लोग मारे गए। देश में दोनों समुदायों के बीच एक ऐसी दीवार खिंच गई जिसे पाटना पहले से अधिक मुश्किल हो चला है।
ये फ़ैसला ठीक है लेकिन इसी के आधार पर अपने मुसलमान भाईयों के बीच एक सहजता की उम्मीद करना बेकार है। वे स्वेच्छा से, आपसी बातचीत से, क़ानूनी फ़ैसले के आधार पर, उस स्थान को राममन्दिर बनने के लिए दे देते तो कोई बात नहीं थी। लेकिन ये स्वेच्छा से नहीं हुआ है। सुनियोजित तरह से, जगह-जगह भड़काऊ भाषण कर के मुस्लिमों को नीचा दिखाने के लिए इस मस्जिद को दंगाईयों ने तोड़ा था। इसके पहले कि ऐसा अपमान, ऐसा पराजयबोध, उनके भीतर भी एक रुग्ण-कुंठित मानसिकता को जन्म दे, हमें चाहिये कि इस अपमान के असली अपराधियों पर मुक़द्दमा चलायें। अभी जो हुआ है ये इंसाफ़ नहीं है; उन अपराधियों को दण्डित करना ही असली इंसाफ़ होगा।
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25 टिप्पणियां:
एक तत्त्व है बीजरूप स्थित मन में
साहस में, स्वतंत्रता में, नूतन सर्जन में
वह है निरपेक्ष उतरता है पर जीवन में
दायित्त्वयुक्त, मर्यादित, मुक्त आचरण में
उतना जो अंश हमारे मन का है
वह अर्द्धसत्य से, ब्रह्मास्त्रों के भय से
मानव-भविष्य को हरदम रहे बचाता
अन्धे संशय, दासता, पराजय से !
व्यक्तियों के वैचारिक स्तर की असमानतायें, समस्यायाओं के अलग दृष्टिकोण रखती हैं। सहिष्णुता, कट्टरपन, तुष्टीकरण और न्यायप्रक्रिया, सब इसके शिकार हैं।
क्या जबरदस्त साफ़गोई !अवसाद से जूझने का बल मिला । आभार ।
क्या जबरदस्त साफ़गोई !अवसाद से जूझने का बल मिला । आभार ।
आपके लेख की बहुत सारी बातों से सहमति, इससे भी की बाबरी मस्जिद का नष्ट होना हिन्दू पराजय की परंपरा का मनौवेज्ञानिक प्रतिकार था.
बुतशिकनी के बारे में और समझना चाहूंगा. यह भी कि साढ़े छै: सौ साल तक चली उस परंपरा में हमें क्या-क्या हासिल हुआ और उस का असर हिन्दू समाज पर किस तरह हुआ हो सकता है. और क्या आज के आधुनिक समाज में उसके क्या लक्षण होंगे.
इन बातों का जवाब भी इमानदारी से यकीनन आप ही दे सकते हैं इसलिये आपसे अपेक्षा है.
कल से अभी तक तो सिर्फ़ पढ़ रहे हैं विभिन्न लोगों के विचार, और पाया है कि "बुद्धिजीवी" प्रजाति में से अधिकतर, इस फ़ैसले से कुछ निराश हैं, कुछ अवसाद में है, कुछ हताश हैं, कुछ भ्रमित हैं, कुछ असंतुष्ट हैं…।
कुल मिलाकर यह कि इस निर्णय से बुद्धिजीवियों को कोई खास खुशी नहीं हुई है, कुछेक को हुई भी है, लेकिन वे इसे दर्शाना नहीं चाहते, कि कहीं "साम्प्रदायिक" न समझ लिया जाऊं…
अलबत्ता ढाँचे (मस्जिद नहीं) को तोड़ने वालों को सजा दिलाने के हिमायती इस बात का जवाब देने से बचते हैं कि उस जगह पर सन 1528 से पहले क्या था? चलिये खुश होने के लिये मान लीजिये कि वहां मन्दिर नहीं था, खाली ज़मीन ही थी… तब वहाँ बाबर या मीर बाकी ने जो मस्जिद(?) बनाई उसकी अनुमति किसने दी?
मान लीजिये, यदि कल को अजमल कसाब, ताज होटल पर 300 साल कब्जा रखकर वहाँ नमाज़ पढ़ता रहे तो क्या हमें ताज होटल का एक तिहाई हिस्सा मस्जिद के रुप में दे देना चाहिये?
अब जैसे विवादित स्थल पर मन्दिर था या नहीं, इस को तय करने में मान्यता का सहारा लिया गया है।
ye galat hai ye faisla ASI ki kudai aur uske jamini sarveyakshd ke karan se liya gaya hai kripya faisle ki copy ko padne ke bad hi yah likhna chahiye tha
kripya is link par jakar apne is prshan ka jabab pade
http://khabar.ibnlive.in.com/photogallery/1333-4/#view_start
मानसिक झड़न।
बेहद संतुलित लेख....आपसे सौ फ़ीसदी सहमत....
लेकिन कभी कभी एक विशाल समूह किन्ही नन्हे बच्चो की तरह व्योवहार करने लगता है .....ओर इस वक़्त का तकाजा यही है के दोनों बच्चो को खेल में मगन रहने दो........के ओर मसले पड़े है सुलझाने को
बाबरी मस्जिद रोग नहीं लक्षण मात्र है, यह बीमारी बहुत पुरानी है. इसका आधार समझने के लिये नीचे दिये गये लिंक पर जाकर पढ़ें. यह सूची 1713 से लेकर अब तक हुये दंगों और उनके कारणों की है और यह भारतीय सरकार की अधिकृत जानकारी के अनुरूप है.
इसका स्त्रोत जैनब बानू की लिखी गई किताब है जिसका नाम है पालिटिक्स ओफ कम्युनिलिज्म
कृपया पढ़ें
http://dahd.nic.in/ch2/an2.7.htm
मुस्लिम आक्रांतों के पैरों तले रोंदे जाएँ....
नेताओं की अंतर्राष्ट्रीय धर्मनिरपेक्ष छवि के मूल्य पर कुर्बान हो जाएँ.....
भारतीय राजनीति कि शर्मनिरपेक्ष छवि में पिस जाएँ....
अपनी धरती के मार पीट कर भगाए जाएँ.....
क्योंकि हिंदू हैं.....
और घर में यही सिखाया जाता है.
`लेकिन जो फ़ैसला आया है, मैं उस से मुतमईन नहीं हूँ।'
हज़ारों ख्वाहिशें ऐसी कि........:)
आपके समूचे लेख से एक गहरा अवसाद प्रकट हो रहा है। जाहिरा तौर पर आपका लेख एक भड़ास है, जिसमें सिर्फ कुफ्र है। अंदर से आप बेहद खफा हैं। कहीं धर्मनिरपेक्षतावादी तो नहीं हैं। बुद्धि के धरातल पर तो कत्तई नहीं हैं। मस्जिद का ढांचा गिर गया, तो बहुत दर्द हो रहा है। मंदिर के मंदिर ढहाए गए, उसका तनिक भी मलाल नहीं है। बात न नई की है, न पुरानी की। इतिहास ने गलती की, तो उसे सुधारा नहीं जा सकता, यह मानना मूर्खता है। बाबर और चंगेजों ने जो किया, गौरी और अंग्रेजों ने जो किया, वो गलत था। तब भी प्रतिकार हुआ था, अब भी चल रहा है और आगे भी होगा। प्रतिशोध के लिए समय का प्रतिबंध नहीं होता। गांधी-सुभाष-चंद्रशेखर-भगत सिंह तुम्हारी तरह सोचते तो मियां तिवारी तुम आज यह बकबकी न झाड़ रहे होते। जरा सोचो, राममंदिर न होता, तुम्हारा घर होता तो भी तुम्हारी प्रतिक्रिया यही होती। क्या तुम्हें उस समय तकलीफ न होगी जब कोई "तिवारी निवास" को "काजी रनिवास" में बदलकर तुम्हें ही निष्कासित कर देगा। अगर कोई तुम्हारी बहू-बेटियों से बलात्कार करता है, तुम्हारे बच्चों-बाप-दादाओं की लाश तलवारों पर उछालता है, और तुम्हारा खून नहीं खौलता तो तुम्हें समझ जाना चाहिए कि तुम पक्के धर्मनिरपेक्ष हो चुके हो। साफ शब्दों में कहें तो नपुंसक..। तुम असमर्थ हो तो भागकर जान बचाओ, यह बुद्धिमानी है, लेकिन सक्षम होओ और अवसर पाकर भी उसी क्रूर आक्रांता की जय-जय करो, तो समझ लेना कि अब राजनीति में प्रवेश करने लायक हो गए। जिस दिन तुम्हारे भीतर अपने ही पूर्वजों के अपमान भूल जाएं, अपनों का बहा हुआ रक्त ठंडा लगने लगे, समझो तुम पक्के समाजवादी हो गए। तुम कहते हो, लालकृष्ण आडवाणी हत्यारा है। सही कहते हो। पर, कुछ हत्यारे और भी हैं। चंद्रशेखर आजाद ने कितनों को गोली मारी, भगत सिंह भी पीछे नहीं रहे। जितने क्रांतिकारी हुए, सब हत्यारे ही हुए। जरा, ये बताओ कि समय पड़ने पर अपने धर्म एवं राष्ट्र के लिए भी जो न मर सकता है, न मार सकता है, उस दिव्य पुरुष का जन्म हुआ ही क्यों है। वह फिर तुम्हारी तरह ब्लाग पर बकवाद करता रहेगा। और, जब बात सनातन धर्म की हो, हिंदुराष्ट्र की हो, एक आध्यात्मिक धरोहर की रक्षा की हो, तो भी जिसके भीतर कायरता की नींद व्याप्त हो वह, अपने बारे में सवाल उठाए. अपने मां-बाप की प्रामाणिकता परखे। तुम कहते हो, मुसलमानों की ओर से मुद्दा है एक हिन्दूबहुल देश में असुरक्षा और आत्मसम्मान का। बेवकूफ हो। जरा एक बात बताओ, कि इस विश्व में अल्पसंख्यक कौन है। सवा दो अरब ईसाई, लगभग दो अरब मुसलमान और महज अस्सी करोड़ हिंदू। मुसलमानों की जो जनसंख्या दर है, जल्द ही ईसाइयों को बीट करेगी। उन्हें कौन सी असुरक्षा है। तुम जैसे हिंदू सारे हैं, शायद तुमसे अच्छे। हिंदू धर्म का सारसूत्र करुणा ही है। यहां फैसला सुनाया गया, पाकिस्तान में भारतीय झंडे जलाए गए। तब तो तुम्हारा खून नहीं खौला होगा। तुम जिस कानपुर में हो, वह भारतवाला ही है या कहीं और का। मेरे देखे, जो यह तुम्हारा राग उमड़ रहा है मस्जिद और इस्लाम के प्रति, यह भी हिंदू संस्कारों के कारण ही। अन्यथा, किसी मुसलमान में इतनी दया प्रायः नहीं देखी जाती। अच्छे लोग हर कहीं हैं, पर कुछ जातिगत विशेषताएं, तो कुछ भौगोलिक परिणाम होते हैं। शाकाहारी अरब कभी-कभी मिलते हैं। बड़ी पीड़ा है तुम्हें गुजरात के मुसलमानों के मारे जाने की। ठीक ही है, अपने जो ठहरे। तकलीफ इस बात की भी है कि ज्यादा संख्या में मारे गए। काश कि तुम्हें इतनी समझ आ जाती कि पीड़ा और प्रतिशोध मरने वालों की संख्या से नहीं, उससे जुड़ाव के कारण पैदा होते हैं। जो कारसेवक ट्रेन में फूंक दिए गए थे, उनकी संख्या कम थी, इसीलिए तुम्हें कम दुख है, लेकिन उन्हें कम दुख नहीं हुआ था, जिनसे उनका जुड़ाव था। वह तो कुछ दुखियों की प्रतिक्रिया थी, प्रतिशोध नहीं। प्रतिशोध होता, तो फिर एक मुसलिम देश ईजाद करना पड़ता। प्रतिशोध देखना है तो पाकिस्तान में देखो। एक-एक हिंदू और सिख मारकाट कर जिंदा या मुर्दा निकाला जा रहा है। हम तो सिखों को भी हिंदू ही मानते हैं और भारत के मुसलमानों को भी। हां, कुछ हैं बाबर और दाउद के अनुयायी, तो उन्हें ठोंकना पीटना पड़ जाता है। इसी को तुम जैसे लोग साम्प्रादायिक संघर्ष कह देते हो। उम्मीद है, कुछ तो तुम्हारे पल्ले पड़ ही जाएगा।
जहा तक मेरा ख्याल है की आडवानी को उनके किये की सजा मिल चुकी है | बीजेपी की सरकार बनी पर वो पी एम नहीं बने ना उसके बाद बने ने भविष्य में बनेगे जेल की कैद से बड़ी सजा है ये उनके लिए जो जनता ने दिया है जिसका दर्द वो कभी नहीं भूल पाएंगे | पर इस समय उनकी बात करना अजीब लग रहा है १८ साल पीछे क्यों जा रहे है समय आगे बढ़ने का है | ये सही है की फैसला क़ानूनी नहीं पंचायती बटवारा ज्यादा है और व्यवहारिकता पर ज्यादा है पर ये मसाला सिर्फ जमीन के मालिकाना हक़ का नहीं था जैसा आप कह रहे है | ये आस्था और धर्म का मामला था जहा कानून या नियम काम नहीं करते है | देखिये खुद आप जब वक्फ़ बोर्ड के केस को क़ानूनी आधार पर ख़ारिज किये जाने को सही नहीं मान रहे है | जब आप खुद कह रहे है की समझौता पहले ही हो जाना चाहिए था तो फिर ये भी तो वही है सबको मानना चाहिए पहली बार समझौता करवाने वालो पर विश्वास किया जा रहा है या किया जा सकता है | इसमे कोई राजनीति नहीं है हा देश में अमन चैन बनाये रखने का प्रयास जरुर है तो इस प्रयास को हमें सफल बनाने की कोशिश करनी चाहिए ना की पुँराने गड़े मुर्दे उखड कर फिर से पीछे चले जाना चाहिए | शायद आप को इस फैसले की व्यवहारिकता देख कर ये लगा रहा है की आज वहा विवादित ढांचा होता तो शायद फैसला उसके पक्ष में आता तो मुझे भी लगता है की आप शायद सही सोच रहे है पर अब वो होना संभव नहीं है तो जो नहीं है उसके बारे में सोचने से अच्छा है की जो अब हो गया है उसे और अच्छा बनाया जाये |
सच मे इंसाफ़ नही हुआ . डर है कही यह नज़ीर ना बन जाये अवैध दावा करने वालो को कि फ़ैसले मे उन्हे हिस्सा मिले
आपकी राय किसी ने पूछी जों देने लगे? इतनी क़ाबलियत है तो जाइये चेल्लेंज करिए कोर्ट को ? एक प्रजातान्त्रिक धर्म निरपेक्ष देश में जैसा फैसला आना चाहिए था आया है.....८००० पन्नो से अधिक दस्तावेज हैं पढ़े हैं आपने ? फिर किस हक से अपने को जिम्मेदार नागरिक समझते हुए विचार रख रहे हैं.....टी. आर. पी बढ़नी है क्या ब्लॉग की? अदालत के न्यायधीशो से ज्यादा काबिल है आप ? अभिव्यकि की स्वतंत्रता का फायदा ना उठाये.....
यदि प्रमाण की बात की जाए तो एक मस्जिद क्या हजारों मस्जिदें दह जायेंगी .....इतिहास चीख- चीख के गवाही देगा. लेकिन वर्तमान परिपेक्ष्य को देखते हुए अदालत और उसके निर्णय का सम्मान करिए .....तुगालाको, तैमूरों, मुगलको ने सिर्फ लूटा है.....यदि इतिहास नहीं जानते तो शांत रहिये.......जानकारों को करने दीजिये......हर बात में ऊँगली करना ज़रूरी है क्या ?
Dharm badal lo bhai....Hindu kahlaane layak nahi ho....arey wo maatra 1400 saal purani ek kitaab ke bal par kattarwaad kar jaahil community hai....tumhe to ab tak sabhya ban jana chahiye....Nalanda,Takshila ke vinaash ki wajah maloom hai ya nahi....jaao itihaas padho bachche....fir blogging par seekh dena
हे भगवान...कैसी पोस्ट लिखे हैं अभय बाबू, बेकार बीपी बढ़ा दिए।
सटीक !
"धिक्कार है इस देश के नेतृत्व पर जो आज़ादी के तुरंत बाद के उस आंशिक आदर्शवादिता के दौर में भी न तो किसी तरह के न्यायिक आस्थाओं का मुज़ाहिरा कर सका और न ही समुदायों के बीच मन-मुटाव मिटा कर उनके बीच झगड़े सुलझाने का!"
क्या भारतीय लोकतंत्र वोट देकर सरकार बनाने की, एक मात्र प्रक्रिया भर है या ये एक सम्पूर्ण पोलिटिकल सिस्टम जो हर तरह की समस्या का समाधान करने की क्षमता रखताहै अभय का पूरा लेख एक कमज़ोर लोकतंत्र के चहेरे को आइना दिखा रहा है... मेरा कमज़ोर कहने का मतलब ऐसा लोकतंत्र जहाँ बुनियादी ढांचा न्याय संगत न रहकर राजनैतिक सौहार्द को बनाये रखने की कोशिश करता है..
भारत में भी और किसी भी लोकतंत्र में राजनितिक दल एक दुसरे पर हावी होने के लिए तरह तरह के पैतरे अपनाते हैं लेकिन इन पैतरों की एक सीमा होनी चाहिए... कांग्रेस मोदी और अडवाणी को कभी सजा दिलवाने की कोशिश नहीं करेगी क्योंकि इनको सजा दिलवाना भाजपा के वोट बैंक को बढ़ाना है .लेकिन एक मज़बूत लोकतंत्र इस तरह की राजनीति की एक सीमा होनी चाहिए... हम रस्सी इतनी ढीली नहीं छोड़ सकते की उसको लपेटने में सदियाँ बीत जाएँ....
please read court order properly.
And If need to choose between "AMAN" and justice . I will choose "AMAN", Because of human life is more value then any thing.
पूरी तरह सहमत। फैसला राजनीतिक है, न्यायपरक नहीं। और जो ये दावे कर रहे हैं कि इस बार अमन इसलिए कायम रहा क्योंकि फैसला ऐसा था, वे गलत हैं। अमन इसलिए रहा क्योंकि पुलिस प्रशासन और सरकार कॉमनवेल्थ की छत्रछाया में शांति चाहती थी। फैसला उलट होता तो भी चूं नहीं होती। लेकिन फैसला तो गलत है ही।
अदालत के पंचायती फैसले से देश को राहत है। पहली बार ऐसा हुआ है कि इतने बड़े फैसले के बाद भी कोई फसाद नहीं हुआ। यह सब बताता है कि फैसला बेहद बुद्धिमानी का है। शेख शादी का कथन याद आता है कि देश बुद्धिमानों से ही शोभित होता है। आगे के फैसले भी देश को शांति से रख पाएँगे।
सार्थक चिंतन....पर सभी बातों से सहमत नहीं हुआ जा सकता...
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