शनिवार, 7 सितंबर 2013

पानी जब पानी से मिलता होगा

पानी जब पानी से मिलता होगा तो  उसे कैसा लगता होगा? आटे की एक लोई जब दूसरी लोई मिलती होगी तो उसे कैसा लगता होगा? पानी, पानी से मिलना चाहता है। इसीलिए वो नीचे, भीतर की तरफ जाता है। नीचे, भीतर जाकर हम सब एक हो जाते हैं। 

मिल जाने में ही आनन्द है। एक-दूसरे में मिलकर एक हो जाना ही इश्क़ है। सारा जड़ चेतन यह आनन्द ले रहा है। अलग होते ही दुख है, पीड़ा है, कष्ट है। वही पल ऐश के हैं जो ईश के हैं। जिनमें हम दूसरे के साथ एक होते हैं। 

धरती इसीलिए हमें अपनी ओर खींचती है क्योंकि हम धरती से ही बने हैं। उसका हिस्सा हैं। वो सीने से लगाकर रखती है हमें। दूर जाने नहीं देती। दूर जाने के लिए हमें ताक़त लगानी पड़ती है। श्रम करना पड़ता है। 

पास रहकर एक बने रहने में कोई श्रम नहीं करना पड़ता। एकता स्वाभाविक है। पड़े रहना स्वाभाविक है। चलना श्रम है। कुछ भी करना श्रम है। करना हमारा मूल स्वभाव है ही नहीं। कुछ न करना हमारा मौलिक भाव है। प्रेम, शांति, एकता, स्थिरता- ये हमारे मौलिक भाव हैं। 

ये संसार एक ही है। सब एक दूसरे से बंधे हैं। और एक दूसरे में गिरते जा रहे हैं। जैसे ही यह घूमने का चक्र थमेगा। सब कुछ अपने ही भीतर गिरकर एक पिंड हो जाएगा। 


एक पिंड। एक बिंदु। एक। और फिर शून्य! 


***

2 टिप्‍पणियां:

Kapil Dev Sharma ने कहा…

वपसी पर बधाई ...

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

सच है, अपना अस्तित्व खो एक नया अस्तित्व बनाना..

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