आईने में अक्सर दूसरा आदमी मिलता है। भीतर से देखते हुए जो अपनी छवि बनती है, ठीक-ठीक उससे मिलता नहीं ये आदमी। बाहर से देखकर भीतर की छाया मिलानी पड़ती है। कभी भीतर वाला अधिक सुदर्शन होता और बाहर वाला तिरछा-बांका, टेढ़ा-मेढ़ा, बेडौल। कभी उसके उलट भी होता है।
भीतर हमने अपनी जो छाया, इमेज बना रखी है, वो थिर नहीं है। बदलती रहती है। ठोकर लगने से टूट जाती है, कभी अहम भाव से भर उठती है। चंचल है। अस्थायी है।
पर आइने में मिलने वाला आदमी भी हमेशा स्थायी नहीं रहता। दस बरस पहले जो आदमी आइने में दिखता था, आजकल वो नहीं मिलता। चालीस साल पहले की एक तस्वीर जो मुझे दिखाई जाती है, उसके जैसा बिलकुल नहीं है आज आईने में मिलने वाला आदमी।
वो आदमी मैं नहीं हूँ। मैं कुछ और हूँ। भीतर मेरे में की जो छाया बनी है, जिसे हम अहम कहते हैं। वो भी मैं नहीं हूँ। मैं कुछ और हूँ।
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1 टिप्पणी:
काश अन्तरतम शीशे में दिखायी पड़ता।
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