मंगलवार, 17 सितंबर 2013

अपने पूर्वजों का भक्षण



कहते हैं कि देने वाला बड़ा होता है और लेने वाला छोटा। पर क्या सचमुच ऐसा है? मिसाल के लिए पशु- विकसित मनुष्य के मुक़ाबले में बहुत हीन हैं। पेड़-पौधों में तो हम चेतना का भी अस्तित्व नहीं मानते। मगर हमारे उनके रिश्ते में वो ही देने वाले हैं और हम लेने वाले। फिर भी हम अपने को बड़ा मानते हैं? 

हम कुछ भी नहीं देते जानवरों को। वो अपना जीवन देते हैं हमें। ताकि हमें पोषण मिल सके। पेड़-पौधे भी यही करते हैं। ऐसा बलिदान तो केवल माँ-बाप ही कर सकते हैं। तो क्या पेड़-पौधे औऱ जानवर हमारे माई-बाप हैं? शायद हैं। वो हमारे पूर्वज हैं। और हमारी धृष्टता देखिये कि हमने अपने पूर्वजों को अपना गुलाम, अपना नौकर बनाकर रखा हुआ है। और शोषण कर रहे हैं उनका। भक्षण कर रहे हैं उनका सुबह-शाम!  

जब अबोध बालक का पैर माँ के मुँह से लगता है तो माँ मुस्कराती है। पर पूर्ण वयस्क चेतन पुत्र की लात माँ के सर पर लगे तो माँ को कैसा लगेगा? होना तो ये चाहिये कि हम जब भी उनसे कुछ लें बीस बार सीस नवाएं। पर हम तो उनकी तरफ देखते भी नहीं। वो हमसे कहीं बहुत दूर कटते-मरते रहते हैं। और पैकेट में बंद होकर हमारे पास पहुँचते हैं। क्या हम अपने आपको चेतन कह सकते हैं? हम जो रोज़ अपने पूर्वजों का भक्षण करते हैं बिना किसी शुकराने के? 

और ये अन्याय आदमी के समाज में भी वैसे ही है। जो वर्ग हमें पालता-पोसता है, जिसके श्रम के बग़ैर हम एक अपना एक काम भी नहीं कर सकते, उसी वर्ग को हमने जूतों के नीचे कुचला हुआ है। कैसे? क्योंकि वो दलित-शोषित-श्रमिक-सर्वहारा सबसे सहनशील, सबसे विनम्र, सबसे संतोषी, सबसे उदार और सबसे परोपकारी स्वभाव का है।  और ईश्वर के सबसे पास भी वही है। 


ईश्वर के राज्य में वही सबसे आगे होगा- ईसा ने कहा था।  गांधी ने भी कहा-अंत्यज का सोचो! और मार्क्स ने भी कुछ इतर नहीं कहा। जो सबसे पीछे खड़ा है, सबसे अंत में, वही सबसे ऊँचे मूल्य का निर्धारक है। 

***

2 टिप्‍पणियां:

Vivek Chouksey ने कहा…

भारतीय संस्कृति में वनस्पतियों को काटने पहले उनसे क्षमा मांगी जाती थी. शाम को पेड़ पौधौं का स्पर्श वर्जित था. सुबह उठकर चरण धरती पर रखने से पहले उसकी वंदना की जाती थी. गाय को ईश्वर तुल्य माना जाता था. जीवहत्या और मांसाहार पाप थे, सामाजिक बहिष्कार का निमित्त थे.

समुद्रवसने देवी ! पर्वतस्तनमंडले ।
विष्णुपत्नी !नमस्तुभ्यं पादस्पर्श क्षमस्व में ।।

(बच्चों को अब यह संस्कार देना उन्हें कम्युनल बनाना है)

हम कितने असभ्य हो गए?? क्यों हो गए?

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

काश प्रकृति को समझ सकें हम,
प्रेम उमड़ आयेगा मन में।

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