प्रश्न: आर्य इस देश के निवासी हैं, हड़प्पा और ऋगवेद की सभ्यता में अन्तर नहीं है, एक ही सभ्यता है ऋगवेद के रूप में आर्यों की, जो हड़प्पा की नगर सभ्यता- तथाकथित नगर सभ्यता के रूप में है- ये सारी बातें संघ परिवार की संस्थाएं भी कह रही हैं (और आप भी कह रहे हैं)। मेरी पीढ़ी के लोग और नवयुवक लोग - सभी की तरफ़ से मैं आप से यह जानना चाहता हूँ कि आपका एजेण्डा और उन लोगों का एजेण्डा जिन्होने बाबरी मस्जिद गिरायी थी, एक ही दिखाई पड़ता है, क्यों? यह सिर्फ़ संयोग है? क्या इसमें सम्बन्ध है?
यह सवाल नामवर सिंह ने रामविलास शर्मा से एक साक्षात्कार के दौरान किया था सन २००० में कभी, और मंगलेश डबराल ने उसे एक टेप रिकार्डर पर रिकार्ड कर लिया था। यह साक्षात्कार तद्भव के २५वें अंक में प्रकाशित हुआ है (पहले के किसी अंक में भी छपा था, इस अंक में दुबारा छपा है)। यह बातचीत बेहद दिलचस्प इसलिए है कि इसमें से हिन्दी साहित्य की एक विशेष प्रवृत्ति का पता मिलता है। नामवर जी के सवाल और रामविलास जी के उत्तर, ऐसा लगता है कि दो अलग-अलग दुनियाओं से हैं। अब जैसे देखिये ये जो सवाल किया गया है, उसके जवाब में रामविलास जी बताते हैं कि..
(पूरे तर्क देखने के लिए तद्भव देखें.. मैं संक्षेप में मूल बिन्दु दे रहा हूँ)
१. भारत जैसे देश में अपनी संस्कृति और इतिहास का अध्ययन फ़ासिस्टों के हाथों में छोड़कर आर एस एस जैसी संस्थाओं से मुक़ाबला नहीं किया जा सकता।
२. भारत में आर्यों की कोई अखण्ड इकाई नहीं थी, जैसा कि पूंजीवादी इतिहासकार और मार्क्सवादी इतिहासकार दोनों मानते हैं,
३. नस्ल मे आधार पर भारत या संसार में किसी समाज का संगठन नहीं हुआ,
४. ऐतिहासिक भाषा विज्ञान, भाषाओं का अध्ययन नस्ली आधार पर करता रहा है,
५. किसी आदि भाषा से अन्य भाषाओं का विकास नहीं हुआ है.. उसके बदले गण भाषाएं थीं।
इसके जवाब में नामवर जी विषय की इन सारी बारीक़ियों पर कोई बात नहीं करते। वे वापस अपनी मूल चिन्ता पर लौट जाते हैं, कि आर्यों का मूल स्थान क्या था, इस प्रश्न के जवाब के राजनीतिक निहितार्थ होते हैं और रामविलास जी को उस का फ़िक्रमंद होना चाहिये और आर्यों के भारत का मूल निवासी होने से पैदा होने वाली फ़ासिस्ट राजनीति का खण्डन करना चाहिये। इस के जवाब में रामविलास जी वापस विषय की बारीक़ी में लौटते हैं-
१. हिन्दू राष्ट्रवाद के लिए वैदिक भाषा आदिभाषा है और आर्यभाषा परिवार की सारी भाषाएं वैदिक संस्कृत से निकली हैं, और ये बात पूंजीवादी भाषाविज्ञान भी मानता है।
२. मैं गणभाषाओं की बात करता हूँ.. मराठी में तीन लिंग होते हैं, बंगला में एक भी नहीं होता- दोनों भाषाएं कैसे संस्कृत से निकल सकती हैं? गणभाषाओं का व्याकरण अलग है, शब्द भण्डार अलग है।
३. वैदिक संस्कृति, हिन्दू संस्कृति नहीं है। (यानी हिन्दू संस्कृति में दूसरे तत्व में मिले हुए हैं)
४. हिन्दू कट्टरपंथी और इस्लामिक कट्टरपंथी दोनों ही जातीयता का विरोध करते हैं,
५. जबकि आर्य विभिन्न गणों में विभाजित थे, उनकी संस्कृति और भाषाओं में फ़र्क़ था, वे आपस में लड़ते थे, ऐसा कोई मार्क्सवादी इतिहासकार भी नहीं स्वीकार करता (परोक्ष रूप से वे भी जातीयता के पहलू को अनदेखा करते हैं)
६. आर्य भारत में रहते थे, उनके साथ द्रविड़ और मुण्डा लोग भी रहते थे, अन्य भाषाभाषी लोग भी रहते थे, हिन्दू राष्ट्रवादी उनकी बात नहीं करते, मैं करता हूँ.. मैंने उस पर किताबे लिखी हैं..
रामविलास जी के लम्बे जवाब के बाद नामवर जी इन मसलों पर चर्चा नहीं करते, वे वापस अपने मूल बिन्दु पर लौटते हैं- आप के ग्रंथो से जो राजनीति निकलती है उसका लाभ हिन्दू राष्ट्रवाद उठाता है। रामविलास जी कहते हैं- मैं जो लिख रहा हूँ वह हिन्दू राष्ट्रवाद का बिलकुल उलटा है, तुम न समझो तो मैं क्या करूँ।
पूरी बातचीत में रामविलास जी विषय की बारीक़ियों की बात करते रहते हैं और नामवर जी निष्कर्षो के निहितार्थ की। और रामविलास जी कुछ बेचैन और चिड़चिड़े भी समझ में आते हैं। शायद इस वजह से कि रामविलास जी बार-बार अपने खोजे हुए सत्य पर बल दे रहे हैं और नामवर जी उसके सम्भावित उपयोग के भय की ओर उन्मुख हैं। इसको पढ़ते हुए चर्च और कोपरनिकस के अन्तरविरोध की याद हो आई, चर्च भी कोपरनिकस के आनुसंधानिक सत्य को झुठलाने पर आमादा था। हालांकि उस सत्य और इस सत्य की कोई तुलना नहीं। और मेरा आशय यह भी नहीं कि रामविलास जी की अवधारणा सत्य ही है। दिल को खटकने वाली बात इतनी सी है कि क्या इसी वजह से कोई बात न कही जाएगी कि वो पार्टीलाइन नहीं है या फिर कोई उसका ग़लत इस्तेमाल कर लेगा?
फिर भी मेरे लिए यह संवाद पढ़ना बहुत मनोरंजक रहा। एक तो इसलिए भी कि हमारी भाषा के दो महापुरुषों का संवाद हम कमज़र्फ़ों की तरह ही उछलता-कूदता सा चलता हुआ मिला और दूसरे बड़ी वजह यह कि इसको पढ़कर दो विद्वानों के अलग-अलग मानसिक संगठन से रूबरू भी हुए। एक जो पूरी तरह अपने अनुसंधान में डूबा, राजनैतिक रूप से गहरे तौर पर प्रतिबद्ध मगर अपने निष्कर्षों को लेकर सिर्फ़ इस वजह से शर्मिन्दा नहीं कि किसी को लग सकता है कि वो फ़ासिस्ट इस्तेमाल के है; और दूसरा जो साहित्य और अनुसंधान को लगातार उनके राजनैतिक निहितार्थों से तौलता हुआ।
हिन्दी साहित्य रामविलास जी के अनुसंधान के कठोर अनुशासन, और अपने खोजे हुए सत्य के प्रति आग्रह का कितना अनुगामी हुआ है, कहना मुश्किल है। हो सकता है कुछ झक्की जीव यश और प्रसिद्धि के प्रलोभनों से दूर किसी आधुनिक मड़ई में अपनी गहरी साधना में लगे पड़े हों, और आने वाले दिनों का समाज उनके श्रम और साधना का ऋणी रहे, इस वक़्त उनके बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता। इस वक़्त हम जिनके बारे में कह सकते हैं वो हैं एक पिटे-पिटाए राजनैतिक सत्य की लीक पकड़कर चलने वाले और फ़टाफ़ट कुछ पहचान, मान, प्रकाशन, पुरस्कार, और सामाजिक प्रतिष्ठा लूट लेने के लिए आतुर शिष्यों की भीड़, जिनके लिए साहित्य सिर्फ़ एक राजनैतिक निहितार्थ है, उस से ज़्यादा कुछ नहीं। कुछ और लोग भी हैं, पर वो इस मुख्य धारा से बाहर किसी छोटी धारा में हैं, या एकदम हाशिये पर हैं।
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(जहाँ कहीं भी कोष्ठक आया है, उसके भीतर मेरे शब्द हैं)
6 टिप्पणियां:
दो प्रमुख विचारकों की मानसिक हलचल को उजागर करता हुआ आलेख। आभार। मैं पूरा साक्षात्कार पढ़ना चाहूँगा। अपने देश में इतिहास का अध्ययन और अध्यापन राजनीतिक विचारधाराओं का बंदी हो गया लगता है।
बजट पेश हो जाने के बाद जब संसद सदस्यों से पूछा जाता है कि बजट कैसा रहा तो उत्तर सुनने से पहले ही पता चल जाता है कि वह क्या कहने जा रहा है क्योंकि उसका उत्तर उसके दल की स्थिति पर निर्भर करता है.
यही हाल हिन्दी साहित्य का है. एक खेमे का आदमी दूसरे खेमे की बात सुनने तक को तैयार नहीं, प्रत्योत्तर तो कहीं बाद की बात है.
शुक्र है कि मैं किसी भी खेमे के किसी को नहीं जानता और न ही कोई मुझे जानता है, मैं जो समझना चाहता हूं अपनी मर्ज़ी सो समझता हँ और सुखी रहता हूं. ☺☺☺
भारत में आर्यों की अखंड इकाई नहीं थी: डाक्टर रामविलास शर्मा से नामवर सिंह की वार्ता। तद्भव-25।
सोनू जी, पूरे साक्षात्कार का लिंक भेजने किए बहुत बहुत आभार।
भाषा विज्ञान और सभ्यताओं की गति, भाषाओं का दुतरफा मेलजोल कुछ भी सिद्ध नहीं करता है। सच तो यह है कि जो सिद्ध करना रहा, उसके अनुसार तर्क जुटाये गये। किसी के बाहर से आने की बात अंग्रेज किसी भी तरह से सिद्ध करना चाहते थे क्योंकि उसमें उनका निहितार्थ था। बुद्धिजीवी जहाँ एक ओर प्रभावित करते हैं, वहीं दूसरी ओर प्रभावित होते भी हैं। जिसे विविधता न पचे वह एक का स्रोत दूसरे में ढूढ़े, यदि एक भाषा पनप सकती है तो दूसरी भाषा स्वतन्त्र रूप से क्यों नहीं पनप सकती। दो भिन्न भाषायें सभ्यताओं के भौगोलिक स्थिति के बारे में कुछ भी कह सकने में अक्षम है।
पर यह सच है, निहितार्थ समझना ही होगा, सबका, बिना किसी अपवाद के।
आपके निष्कर्ष लाजवाब हैं। ख़ासकर आज के समय में सत्य-के-लिए-सत्य की प्रवृत्ति ख़त्म होती जा रही है। राजनीतिक झुकाव जब शोध पर हावी हो, तो सच को बचा पाना दूर की कौड़ी लगता है।
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