एक दिन अचानक पहली मंज़िल वाली निर्मला आई। खुशी चेहरे से टपकी पड़ रही थी। सुबह-सुबह किसी चमकते हुए फूल की तरह की कोई सूरत देखने को मिल जाए तो बात ही क्या! शांति को लगा कि ज़रूर इसकी लॉटरी लग गई होगी। पर उसने बताया कि बाबा ने याद किया है.. वो जा रही है। इतना कहकर निर्मला ने एक चाभी उसके हाथों में सरका दी। और कहा कि पांच दिन में लौट आएगी.. पौधों को पानी देती रहना। अच्छे पड़ोसी एक-दूसरे के काम आते हैं। शांति अच्छी पड़ोसन थी। हँसते हुए ज़िम्मेदारी ले ली। पांच दिन बिला नागा पानी देती रही। पांचो दिन की सुबह जब वो पानी देने के लिए निर्मला के घर में प्रवेश करती तो घुसते ही उसकी नज़र सिंहासन पर बैठे, गेरुआ पहने बाबा की करुणामय मूर्ति पर पड़ती। यही वो बाबा थे जिन्होने अपने दरबार में हाज़िरी देने के लिए निर्मला को सपरिवार बुलाया था।
शांति ने उनकी तस्वीरें पहले भी देख रखी थीं। आजकल उनके भक्तों की गिनती बढ़ती ही जा रही है। उनके नाम के नए-नए मन्दिर बन रहे हैं। प्राचीन मन्दिरों में उनकी नई मूर्ति की प्राण- प्रतिष्ठा हो रही है। बसों पर, कारों पर, टैक्सी और ऑटो रिक्शा के पीछे उनका नाम और संदेश पढ़ा जा सकता है। कभी भी, कहीं भी, अनायास। कहीं उनके हाथ में ओम लिखा हुआ है। कहीं माथे पर बिंदी है, कहीं तिलक और कहीं तो उनके माथे पर शैव त्रिपुण्ड रचा हुआ है। कहीं उनकी हाथों से ज्योति पुंज फूटा पड़ रहा है। कहीं बाबा के सर के पीछे एक रौशनी का चक्र है। कहीं वो रेशमी वस्त्र धारण किए डमरू बजाते नाच रहे हैं। कहीं सोने के मुकुट सर पर सजाए हैं तो कहीं सिंहासन पर विराजे हैं। आसमानी, गुलाबी, बैंगनी, पीले, भगवा, हर रंग में, हर चोले में दिखाई पड़ते हैं बाबा।
छठे रोज़ जब निर्मला लौटी तो चाभी लेने के पहले उसने शांति के हाथ में एक प्लास्टिक की थैली थमा दी- बाबा का प्रसाद है! उस प्रसाद में थोड़ी लैया, थोड़ा रामदाना, कुछ सूखे हुए फूल और बाबा की एक रंगीन तस्वीर थी। गेरुआ वस्त्र पहने बाबा अपनी पहचानी मुद्रा में पैर पर पैर रखे बैठे थे। हर दो तीन महीनें में शांति को बाबा की ऐसी तस्वीर का प्रसाद मिलता रहता है। सालों पहले जब पहली बार उसे ऐसी तस्वीर मिली थी तो उसने बाबा की तस्वीर को सर झुका कर, पैर छू कर, अपने घर के मन्दिर वाले कोने में दूसरी मूर्तियों और तस्वीरों के साथ ही सजा दिया था। लेकिन जैसे-जैसे समय बीतता गया, और श्रद्धालुओं की संख्या बढ़ती गई, शांति के घर में इतनी तस्वीरें जमा हो गईं कि उन्हे सम्हाल पाना शांति के लिए मुश्किल होने लगा। जब घर के मन्दिर वाले कोने में में कोई कोना खाली नहीं बचा। तो बाबा घर के दूसरे कोनों में प्रगट होने लगे। कभी रसोई की कपबोर्ड के कांच पर, कभी ड्राइंग रूम के शोकेस में, कभी उसकी बेडसाइड टेबल पर, कभी आईने पर, तो कभी बच्चों के पढ़ने की मेज़ पर। बाबा की व्यापकता इतनी बढ़ी कि एक रोज़ बाबा की तस्वीर पैर के नीचे आते-आते बची। उस दिन शांति ने सारी तस्वीरें इकट्ठा की और एक बंडल बना के मन्दिर वाले कोने में बनी दराज़ के अन्दर अटा दीं। श्रद्धा के लिए एक तस्वीर ही काफ़ी थी। तो जब निर्मला के प्रसाद में एक बार फिर बाबा प्रगट हुए तो शांति ने तस्वीर को खेद सहित लौटाना चाहा। तो निर्मला ने उसका हाथ लगभग धकेलते हुए उसे समझाया- प्रसाद है, लौटाया नहीं जाता। शांति से कैसे बताती कि मन्दिर वाली दराज़ प्रसाद से गले-गले तक भर चुकी है, उसमें और जगह नहीं है। लिहाज़ा बाबा की एक और तस्वीर उनकी तस्वीरों की गड्डी में बंध गई।
शांति ने बाबा को पहली बार बड़े परदे पर देखा था। फ़िल्मों का एक बड़ा हसीन हीरो हुआ करता था जिसके इश्क़ में कई पीढ़ियों की लड़कियां आँसू बहाती रही थी। वो हीरो किसी वीराने में एक दरगाहनुमा मन्दिर में बाबा के बुत के आगे झूम-झूम कर क़व्वाली गा रहा था। उसके इस भक्ति का बाबा पर इस क़दर असर हुआ कि बाबा की आँखों से एक ज्योति निकली और उसकी बिछड़ी हुई अंधी माँ की नैनों की रौशनी बन गई। न जाने हीरो का प्रताप था या बाबा का- फ़िल्म ज़बरदस्त हिट हुई। और बाबा का नाम सब तरफ़ गूँजने लगा। ये वही दौर था जब जय सन्तोषी माँ फ़िल्म ने मुनाफ़े के सारे रेकार्ड तोड़ डाले थे। शांति को अपने बचपन में कुँवारी कन्या की हैसियत से हर शुक्रवार किसी ने किसी आंटी के घर से न्योता मिलता रहता। शानदार दावत होती, मान-सम्मान के साथ पैर छुए जाते, और गुड़-चने के प्रसाद के साथ कुछ रुपये भी मिलते। न जाने क्या हुआ- सन्तोषी माता की भक्ति का बाज़ार ही गिर गया। शायद अर्थवयवस्था के विकास और उपभोक्तावाद की आंधी में लोगों के जीवन से सन्तोष भाव ही बिला गया। जब भी शांति अपने कुँआरी कन्या वाले एडवेंचर पाखी को सुनाती, पाखी ईर्ष्या से जलभुन जाती- किसी उद्यापन के लिए उसे कभी कोई बुलावा नहीं आया। किसी ने उसके पैर नहीं छुए। शांति कभी-कभी हैरान भी होती है कि सन्तोषी माता तो बिसरा दी गईं मगर बाबा की भक्ति का जादू सर चढ़ कर बोल रहा है।
ऐसे ही एक रोज़ इन्टरनेट पर शांति का सामना बाबा की एक वास्तविक तस्वीर से हो गया, जिसे उनके जीवित रहते ही किसी ने कैमरे में क़ैद कर लिया था। बाबा की बाक़ी तस्वीरों से एकदम अलग तस्वीर। नगे पैर खड़े बाबा ने बेरंग सा ढीला-ढाला कुर्ता पहना हुआ है। कुर्ते के नीचे न तो पाजामा है और न धोती। सर और कंधो पर एक लम्बी सी चादर पड़ी हुई है। एक कंधे पर एक झोला जैसा कुछ है, जिसे दूसरे हाथ से बाबा सम्हाल रहे हैं। झोले वाले ही हाथ में एक छोटा सा डब्बा है। न जाने क्यों शांति को लगा कि बाबा का डब्बा खाली है। जिस हलके अन्दाज़ में बाबा अपनी दो उंगलियों से डब्बे को साधे हुए दिख रहे हैं- मुश्किल है कि उसमें कुछ भी रहा होगा। नज़र झोले पर गई तो लगा कि झोला भी खाली है। भरे हुए झोले की लटकन अलग होती है। ये खाली झोला ही होता है जो बार-बार कंधे से उतर जाता है। सुना भी है कि बाबा भीख माँगकर खाते थे और मस्जिद में सोते थे। ऐसे निस्पृह बाबा लगभग चकित और जिज्ञासु भाव के कैमरे की ओर, और एक तरह से हर देखने वाले की ओर ताक रहे हैं- जैसे उसकी मंशा समझने की कोशिश कर रहे हों।
इन्टरनेट की इस तस्वीर में न रंगीन चोले थे, न मुकुट था, और न ही सिंहासन। तो फिर मन्दिर वाली दराज़ में गट्ठर में बंधी उन ढेर सारी तस्वीरों में क्यों है? शांति सोच में पड़ गई- हाथ में खाली डब्बा लेकर नंगे पैर खड़े होने वाले आदमी को धकेलकर सोने के सिहांसन पर बिठा, उसके सर पर सोने का ताज रखने में क्या राज हो सकता है? बाबा की दो शब्दों की शिक्षा तो बड़ी प्रसिद्ध है- श्रद्धा और सबुरी। कहीं ऐसा तो नहीं कि भक्त बाबा के रंग में रंगने के बदले, बाबा ही भक्तों के रंग में रंगे गए?
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22 अप्रैल को दैनिक भास्कर में छपी
3 टिप्पणियां:
सार्थक संदेश देती अच्छी प्रस्तुति ....
वाजिब प्रश्न उठाती कहानी सोचने को मजबूर करती है।
shikshaprad khaniyon ki shreni m ek aur sundr sopan..
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