जब शांति छोटी थी तो तो उसके पास बहुत खिलौने नहीं थे। बच्चों के खेलने के लिए उन दिनों लट्टू, फिरकी, झुनझुना, गुब्बारे आदि होते थे। लड़के गिल्ली-डंडा और कंचे खेलते, पतंग उड़ाते, और बेकार हो गए साइकिल के टायर को किसी लोहे की तीली से घुमाते। और लड़कियां गुड्डे- गुड़ियों से घर-घर खेलती। लोगों की आमदनी कम थी और इसलिए माना जाता था कि बच्चों के मन बहलाने के लिए टूटी-फूटी बेकार हो गई चीज़ें काफ़ी है। और होता भी यही था। कांच की टूटी हुई चूड़ियां, शीशे के टुकड़े, कोई गुलाबी रिबन, कोई चमकीली पन्नी या गोटा और ऐसी हुई कुछ बटोरी हुई चीज़ें शांति का ख़ज़ाना हुआ करती थीं। बची-खुची चिंदियों और फटी हुई साड़ियों से शांति की माँ ने उसके लिए गुड़िया बनाई थी। जब तक उसका बचपन रहा शांति उस गुड़िया से खेलती रही। स्कूल जाने, घर में माँ का हाथ बँटाने, और इन सब से खेलने के बाद भी बहुत सारा वक़्त था जो बचा रह जाता था। उस वक़्त में शांति और उसकी उमर के दूसरे बच्चे बिलकुल खाली रहते। कुछ भी न करते। अगर घर के अन्दर होते तो खिड़की पर बैठकर बाहर ताका करते। और अगर बाहर होते तो पेड़, मिट्टी और घास के उस अबूझ संसार में फैले अनगिन रहस्यों पर अचरज किया करते। कभी बाग में टपाटप गिरते महुओं की कालीन पर से महुए बीन कर खाते। कभी पहली बरसात के बाद ज़मीन की दरारों से निकलती बीर-बहूटी की फ़ौजों के कुछ सिपाहियों को माचिस की खाली डिब्बियों में क़ैद करते। तो कभी निपट दुपहरी में तपती छत पर पानी की बूंद टपका कर उसका हवा होना देखते।
अब ज़माना बदल गया है। अब अचरज के पास असली खिलौने हैं। क्योंकि शांति और अजय के पास दाल-रोटी, कपड़े-लत्ते आदि जुटाने के बाद भी इतना पैसा बचा रहता है कि वो अपने बच्चों की ज़िद को पूरा कर सकें। असल में सच तो ये है कि पहले की तरह बच्चों को अब पैर पटक कर ज़िद करने की ज़रूरत भी नहीं पड़ती। माँ-बाप उनके मुँह खोलने से पहले ही उनकी पसन्द के खिलौने हाथों में उठाए चले आते हैं। और इस हद तक खिलौने खरीदते हैं कि कमरे में उनको रखने की जगह कम पड़ने लगती है। ज़्यादातर बच्चे असत्ती होते हैं, जुनूनी होते हैं। एक कहानी पसन्द आ गई तो बीस बार उसी कहानी को सुनाने की ज़िद करेंगे। कोई चीज़ पसन्द आयी तो हाथ धोकर उसके पीछे पड़ जाते हैं। बार-बार उसी को दोहराते जाते हैं। एक बार जो मज़ा मिला उसी को निरन्तर तलाशते जाते हैं। न जाने ये अकेले बच्चों का स्वभाव है या मनुष्य मात्र का! जो भी हो ये तर्कातीत भाव बच्चों में विशेष रूप से में झलकता है। शायद इसी नादानी को बचपना और इस तर्कातीत स्वभाव से ऊपर उठ जाने को परिपक्वता कहा जाता है। कोई मोकेपॉन और कोई टेनबेन बच्चों की इस वृत्ति को जमकर निचोड़ते हैं। और नतीजे में बच्चों की अलमारियों टेन्बेन की घड़ी, टेन्बेन के बैग, और न जाने क्या-क्या से उबलने लगती हैं। बहुत एहतियात बरतने पर भी शांति अचरज को इस जमाख़ोरी से अलग नहीं रख पाई। और फिर धीरे-धीरे शांति को एहसास हुआ था कि बच्चे सिर्फ़ अपने माँ-बाप और परिवार से नहीं, पूरे समाज से संस्कार ग्रहण करते हैं।
जिस समाज में शांति बड़ी हुई थी, अब वो समाज नहीं रहा। इस समाज का रहन-सहन अलग है, मूल्य अलग, गति अलग है। बड़ों के पास तो समय नहीं ही है, बच्चों के पास भी समय नहीं है। अचरज के पास समय की मात्रा उतनी ही है जितनी शांति के पास होती थी। वही चौबीस घंटे। पर सुबह उठने से लेकर रात सोने तक अचरज शांति से कहीं ज़्यादा चीज़ें कर रहा होता है और कहीं अधिक सूचनाएं बटोर रहा होता है। शांति कभी-कभी अचरज और पाखी की किताबें और पाठ्यक्रम देखकर चकरा जाती है। इतनी कम उमर में क्या-क्या पढ़ना पड़ रहा है उसके बच्चों को। उनकी उमर शांति को देश-दुनिया के बारे में कोई जानकारी नहीं थी। जबकि पाखी और अचरज स्कूल में जो सीखते हैं वो तो सीखते ही हैं उसके अलावा इन्टरनेट, और टीवी से भी लगातार सूचनाओं का संग्रह और विश्लेषण करते रहते हैं। घर से बाहर निकलते हैं तो भी हर ओर से उन पर साइनबोर्ड, पोस्टर और बिलबोर्ड की शकल में सूचनाओं और संदेशों की बारिश हो रही होती है। वे लगातार सीख रहे होते हैं और समझ रहे होते हैं। और ऐसा नहीं होता कि वे इस से ऊब जाते हैं। वे खुशहाल है, प्रसन्न है, जीवन की ऊर्जा और उत्तेजना से भरे हुए हैं। उनका मानस लगातार सक्रिय है। आँख बंद करने पर भी कानों में हेडफ़ोन लगाकर वे गीत-संगीत की शकल में जीवन की कैसे-कैसे सच्चाईयां समझते रहते हैं। हर वक़्त उनका चेतन और अवचेतन व्यस्त है। उनकी ये व्यस्तता शांति को बेचैन करती है। समय उनके लिए अबाध निरन्तर बहती नदी नहीं है। शांति के लिए भी नहीं थी। पर शांति के समय की नदी पर दो-चार ढीले-ढाले बाँध होते थे- स्कूल जाने से पहले की सुबह, स्कूल में बिताई दोपहर और घर लौटकर शाम तक का एक लम्बा वक़्फ़ा जिसमें करने को कुछ भी ठोस नहीं होता था, और अंत में शाम से लेकर सो जाने तक की रात। पर आजकल समय इतनी सुगठित और संगठित हो चुका है कि उस की निरन्तरता लगातार बाधित होती चलती है। जैसे किसी एक नदी के स्वाभाविक प्राकृतिक प्रवाह पर थोड़ी-थोड़ी दूरी पर बहुत सारे बाँध बने हों। हर किताबी विषय को पढ़ने के लिए स्कूल में अलग घंटा तो होता ही है, उसके अलावा खेलने का अलग घंटा है, पिकनिक जाने का अलग घंटा है, और जब घंटे कम पड़ते हैं तो होमवर्क है।
शांति ने अपने जीवन में शायद ही कभी होमवर्क किया था। और जो किया था वो भी बेहद मामूली। स्कूल के संगठित समय की नकेल से बच्चे निकल भी नहीं पाते कि वो नकेल उनका पीछा करते हुए उनके घर में उनके कमरों में पहुँचकर उनका इंतज़ार करने लगती है। कंधो पर स्कूलबैग का बोझ और सर पर होमवर्क का बोझ लेकर बच्चे घर आते हैं और एक सांस लेकर होमवर्क में लग जाते हैं। और होमवर्क से जो समय असंगठित बच जाय उसके लिए एसाइनमेंट हैं। किसी विज्ञान या सामाजिक विज्ञान के विषय पर शोध करने के लिए एसाइनमेंट है। प्रकृति के सरंक्षण की जागरूकता बढ़ाने के लिए भी एसाइनमेंट हैं। जो भी चीज़ बच्चे के ज़ेहन में असर करने का ताब रखती हो, उसके लिए स्कूलवालों के पास एक एसाइनमेंट है- फ़िल्मों और खेलों के लिए भी! हर चीज़, हर शै एक प्रोजेक्ट, एक एसाइनमेंट बन चुकी है। बच्चे की स्वतंत्र, स्वाभाविक प्रतिभा को सरल विकास के लिए कोई जगह नहीं है। हर बच्चा एक अलग फूल होता है। और ज़रा सोचिये कि अगर हर फूल को गोभी के फूल में बदलने की कोशिश की जाने लगे तो क्या होगा?
आज अचरज और पाखी के पास खाली समय नहीं है, छुट्टियों में भी नहीं। छुट्टियों में भी उनके पास होमवर्क है, एसाइनमेंट हैं, और प्रोजेक्ट्स हैं, और यदि उन से समय बचे तो इन्टरनेट और टीवी और प्लेस्टेशन पर समय को तोड़ने की अनेक विधाएं हैं। ऐसा कोई खाली समय नहीं जिसमें बैठकर वो प्रकृति को चुपचाप निहार सके, उसके और अपने सम्बन्ध की गहराई को समझ सके। और ये लगातार की व्यस्तता उसे किसी ऐसे पल का विलास नहीं देती जिसमें वो अपने भीतर बैठे सत्य से सामना कर सके। वो जो देखता है, सुनता है, गुनता है वो सब बाहर से आ रहा है। उसमें उसका अपना क्या है? और जो उसका अपना है, उस अन्दर की आवाज़ या उस मौन को सुनने का वक़्त कहाँ है उसके पास?
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२९ अप्रैल को दैनिक भास्कर में छपी
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