रावण
मारा जा चुका है। युद्ध समाप्त
हो चुका है। सीता ने अग्नि
परीक्षा देकर अपनी पवित्रता
सिद्ध कर दी है। युद्ध में खेत
रहे वानरों को इन्द्र ने फिर
से जिला दिया है। राम अब जल्दी
से अयोध्या लौट जाने के लिए
उद्यत हैं। उनकी आतुरता देख
विभीषण उन्हे पुष्पक विमान
सौंप देते हैं। राम जी,
राह
में सीता जी के आग्रह पर
किष्किंधानगरी से तारा आदि
वानर पत्नियों को भी साथ ले
लेते हैं। और सीता को उनकी
यात्रा के विभिन्न पड़ावों का
दर्शन कराते हुए श्रीराम
भरद्वाज मुनि के आश्रम पर उनका
आशीर्वाद लेने रुकते हैं और
हनुमान को उनके आगमन की सूचना
देने आगे भेज देते हैं। निषादराज
गुह से मिलते हुए हनुमान
आश्रमवासी कृशकाय भरत को राम
की कुशलता का समाचार देते हैं।
भरत जी हर्ष से मूर्च्छित हो
जाते हैं और दो घड़ी बाद जब उन्हे
होश आता है तो भाव विह्वल होकर
हनुमान जी को बाहों में भरकर
और आँसुओं से नहलाते हुए यह
कहते हैं:
देवो वा मानुषो वा त्वमनुक्रोशादिहागतः|
प्रियाख्यानस्य ते सौम्य ददामि ब्रुवतः प्रियम् || ४०||
गवां शतसहस्रं च ग्रामाणां च शतं परम् |
सकुण्डलाः शुभाचारा भार्याः कन्याश्च षोडश || ४१||
हेमवर्णाः सुनासोरूः शशिसौम्याननाः स्त्रियः |
देवो वा मानुषो वा त्वमनुक्रोशादिहागतः|
प्रियाख्यानस्य ते सौम्य ददामि ब्रुवतः प्रियम् || ४०||
गवां शतसहस्रं च ग्रामाणां च शतं परम् |
सकुण्डलाः शुभाचारा भार्याः कन्याश्च षोडश || ४१||
हेमवर्णाः सुनासोरूः शशिसौम्याननाः स्त्रियः |
सर्वाभरणसम्पन्ना
सम्पन्नाः कुलजातिभिः ||
४२||
ऊपर
दिये गए श्लोकों का अर्थ है:
"भैया,
तुम
कोई देवता हो या मनुष्य जो मुझ
पर कृपा करके यहाँ पधारे हो।
हे सौम्य,
जितना
प्रिय समाचार तुमने मुझे
सुनाया है बदले में उतना प्रिय
क्या तुम्हें दूँ?
मैं
तुम्हें एक लाख गायें,
सौ
उत्तम गाँव,
और
अच्छे कुण्डल पहनने वाली तथा
शुभ आचार वाली सोलह कन्याएं
पत्नी बनाने के लिए देता हूँ।
सोने के रंग वाली,
सुघड़
नाक वाली,
मनोहर
जंघाओं और चाँद जैसे मुखड़े
वाली उच्च कुल व
जाति की वे कन्याएं सभी आभूषणों
से भी सम्पन्न होंगी।"
जो
लोग हनुमान के ब्रह्मचारी
होने का दावा करते हैं या हनुमान
के ब्रह्मचारी न होने के किसी
भी उल्लेख पर भड़ककर लाल-पीले
हो जाते हैं और वाल्मीकि रामायण
को ही रामकथा का पहला और बीज
स्रोत मानते हैं-
तय
बात है कि उन लोगों ने रामायण
का यह अंश नहीं पढ़ा है और बिना
पढ़े ही वे 'मूल'
रामायण
की मान्यताओं की रक्षा करने
को उद्धत हो रहे हैं।
इसे
पढ़ लेने के बाद भी कुछ स्वयंसिद्ध
विद्वान यह कहने लगेंगे कि
श्लोक में भरत के विवाह योग्य
कन्याओं के देने भर का उल्लेख
है पर हनुमान के स्वीकार करने
की बात नहीं है!?
पर
उनको समझने की ज़रूरत है कि अगर
स्वीकारने की बात नहीं है तो
अस्वीकार करने की बात भी नहीं
है। इन श्लोकों के बाद हनुमान
जी प्रेम से भरत जी के साथ बैठकर
राम की विजयगाथा की कथा कहने
लगते हैं। अगर वे वाक़ई अविवाहित
रहने वाले ब्रह्मचारी थे तो
भरत भैया के आगे हाथ जोड़ लेते,
पर
उन्होने ऐसा कोई उपक्रम न
किया। और हनुमान के ब्रह्मचर्य
से वाल्मीकि जी की यही मुराद
होती कि वे स्त्री तत्व से दूर
रहेंगे तो वाल्मीकि महाराज
भी वहीं पर सुनिश्चित कर देते
कि इस मामले को लेकर कोई भ्रांति
न पैदा होने पाये।
मसला
यह है कि अभी हाल में दिल्ली
विवि के पाठ्यक्रम से ए के
रामानुजन का लेख 'थ्री
ह्ण्ड्रेड रामायनाज़ :
फ़ाइव
एक्ज़ाम्पल्स एण्ड थ्री थॉट्स
ऑन ट्रान्सलेशन'
इसलिए
निकाल दिया गया क्योंकि उसमें
विभिन्न रामायणों की कथाओं
के विविध पाठों का वर्णन हैं।
और कुछ स्वघोषित संस्कृति के
रक्षक (या
राक्षस?)
इस
पर आपत्ति उठा रहे हैं। मुझे
यह बात बेहद विचित्र मालूम
देती है कि विश्वविद्यालय का
पाठ्यक्रम तय करने में ऐसे
अनपढ़ों की राय सुनी जा रही है
जो न पढ़ते हैं और न पढ़ने देना
चाहते हैं। और यह पहला मामला
नहीं है जब ऐसा हुआ है इसके
पहले मुम्बई विवि में भी ऐसी
ही घटना हो चुकी है। आये दिन
किसी किताब के किसी अंश को
लेकर कोई न कोई बलवा करता रहता
है। पर दिलचस्प बात यह है कि
इनके बलवों का असर अक्सर उलटा
होता है। भले ही मुम्बई विवि
से रोहिन्टन मिस्त्री की किताब
पाठ्यक्रम से हटा दी गई पर
उनकी उठाई आपत्तियों से जनता
में उस किताब में वापस दिलचस्पी
पैदा हो गई। उसकी बिक्री में
ज़बरदस्त उछाल आया। यही रामानुजन
वाले मामले में भी हो रहा है।
उनके लेख का अंश भले ही पाठ्यक्रम
से निकाला गया हो पर इन्टरनेट
पर उसे खोज निकाला गया है। और
ख़ूब पढ़ा जा रहा है। इस इन्फ़र्मेशन
ऎज में इस तरह की बकलोलियों
का कोई अर्थ नहीं है। कुछ समय
के लिए अपने पूर्वाग्रही
समर्थकों के बीच सस्ती लोकप्रियता
हासिल भले ही कर लें मगर
किताबविरोधी और ज्ञानविरोधी
इन कट्टरपंथियों का मक़सद आप
विफल हो रहा है और होता रहेगा।
दुहाई
रामकथा की दी जा रही है और हमारी
परम्परा में रामकथा बेहद
लोकप्रिय कहानी है और लगभग
हर प्राचीन ग्रंथ में रामकथा
का उल्लेख है। अकेले महाभारत
में ही चार बार राम की कहानी
सुनाई जाती है,
जिनके
भीतर भी छोटे-मोटे
अन्तर मौजूद हैं। जब भी कोई
कहानी बार-बार
कही-सुनी
जाएगी तो उसमें विविधिता आ
जाना स्वाभाविक है। काल और
देश का अन्तर जितना बढ़ता जाएगा,
विविधिता
की भी उसी अनुपात में बढ़ते
जाने की सम्भावना बनती जाती
है।
और
विविधता के इसी पक्ष पर बल
देता हुआ रामानुजन जी का यह
तथाकथित विवादास्पद (सच
तो यह है कि उनके लेख में सब
कुछ तथ्य पर ही टिका हुआ है)
लेख
का आधार हिन्दी भाषा के विद्वान कामिल बुल्के का
बहुमूल्य शोधग्रंथ 'रामकथा'ही
है। रामानुजन अपने लेख की
शुरुआत में उसका उल्लेख भी
करते हैं। बुल्के जी अपने शोध
में महाभारत,
श्रीमद्भागवत
तथा अन्य पुराणों में वर्णित
रामकथाओं के अलावा मगोलिया,
तिब्बत,
ख़ोतान
और इण्डोनेशिया तक प्रचलित
विविध रामकथाओं और उनकी विभिन्न
पाठों का भी तुलनात्मक अध्ययन
करते हैं। मिसाल के लिए तमाम
रामकथाओं में कहीं फल से,
कईं
फूल से,
कहीं
अग्नि से,
कहीं
भूमि से जन्म लेने वाली सीता
को महाभागवतपुराण,
उत्तरपुराण
और काश्मीरी रामायण में रावण
और मन्दोदरी की पुत्री बताया
गया है,
तो
दशरथ जातक में दशरथ की पुत्री
कहा गया है। पउमचरियं में (आम
तौर पर अविवाहित समझे जाने
वाले)
हनुमान
की एक हज़ार पत्नियों में से
एक पत्नी सुग्रीव के परिवार
की है और दूसरी पत्नी रावण के
परिवार की। मलय द्वीप में
प्रचलित 'हिकायत
सेरी राम'
में
तो हनुमान राम और सीता के पुत्र
हैं- और
यही नहीं 'हिकायत सेरी राम' के
प्रचलित दो पाठों में उनके
इस पुत्र होने की दो अलग ही
कहानियाँ है। इसी तरह के और
भी विचित्र भेद पढ़ने वालों
को मिल जाएंगे।
हम
जिस रामायण को जानते हैं,
उसकी
कहानी वाल्मीकि की बनाई हुई
नहीं है। उनके बहुत पहले से
लोग रामकथा कहते-सुनते
रहे थे। पूरी पृथ्वी पर भ्रमण
करने वाले नारद ने उनको रामकथा
सुनाई थी;
जैसे
बुद्ध ने अपने पूर्वजन्मों
का वृत्तान्त कहते हुए अपने
शिष्यों को रामकथा सुनाई थी
जो ई०पू० तीसरी शताब्दी से
दशरथ जातक में सुरक्षित मिलती
है; और
जैसे बहुत काल बाद तुलसीदास
को उनके गुरु ने सोरोंक्षेत्र
में रामकथा सुनाई थी। ध्यान
देने की बात यह है कि किसी ने
भी रामकथा को पढ़ा नहीं है,
सुना-सुनाया
है। वाल्मीकि रामायण और
रामचरितमानस का जो अन्तर है
वो इसलिए भी है कि तुलसी स्पष्ट
कह रहे हैं कि उनकी कथा,
रामायण
पर आधारित है ही नहीं-
वो
तो गुरुमुख से सुनी कहानी पर
आधारित है। और बहुत विद्वान
ऐसे है जो वाल्मीकि की रामायण
को नहीं बल्कि दशरथ जातक को
उस कहानी को मूल रामकथा मानते
हैं जिसमें न तो रावण है और न
लंका, और
जिसमें सीता और राम भाई-बहन
होकर भी शादी करते हैं। निश्चित
तौर पर कथा का यह रूप इसके एक
ऐसे प्राचीन काल के होने का
संकेत देता है जब राजपरिवारों
की सन्तानें रक्तशुद्धि के
विचार से आपस में ही विवाह कर
लेते थे-
जिसका
एक और उदाहरण मिस्र के फ़िरौनों
में मिलता है।
पर
मुद्दा यह नहीं है कि कौन सी
रामायण मूल कथा है। ग़ौर करने
लायक बात यह है कि रामकथा की
ग्रंथ परम्परा से पहले एक
जीवंत श्रुति परम्परा भी रही
है- जिसे
गाथा के नाम से पुराणों आदि
में भी पहचाना गया है। और इस
श्रुति परम्परा के चलते यदि
कोई मूल कथा रही भी होगी तो
उसमें देश-काल--परिस्थिति
के अनुसार बदलाव होते रहे हैं।
अब जैसे जैन रामायण पउमचरियं
में रावण का वध राम करते ही
नहीं,
लक्ष्मण
करते हैं। क्योंकि जैन धर्म
में हिंसा महापाप है और जिस
पाप को करने के कारण ही लक्ष्मण
नरक के भागी होते हैं।
इतिहास
और मिथकों की इस गति को समझने
के लिए एक के रामानुजन जैसे
लेखों को 'हरि
अनन्त हरि कथा अनन्ता'
का
जाप करने वाले आस्थावान
कट्टरपंथी न पढ़ना चाहें तो न
पढ़ें मगर 'हरि
कथा अनन्ता'
का
मर्म समझने की आंकाक्षा रखने
वाले और सजग चेतना विकसित करने
के इच्छुक छात्रों के लिए ऐसी
पढ़ाई बेहद अनुकूल है।
***
9 टिप्पणियां:
सच है .. हरि अनंत हरि कथा अनंता ..
आपको दीपावली की शुभकामनाएं !!
पढ़ो सबकी
गुनो मनकी
कहो वही
जिससे भलाई हो
जन जन की।
तार्किक और शोधपरक प्रस्तुति.
पोस्ट पढ़ नहीं पाए,
फिलहाल दिवाली की हार्दिक शुभकामनायें स्वीकार करें...
मैंने नहीं पढ़ा अभी तक रामानुजन का लेख पर आपके पोस्ट में जो बातें हैं उनमें असहमति का कोई बिंदु नहीं दिखा.
उत्तम . रामानुजन के संसर्भों का विद्तर करता आलेख.
उत्तम . रामानुजन के सन्दर्भों का विस्तार करता आलेख.
पता नहीं क्यों हम, अपने नायकों में कोई कमी नहीं देखना चाहते। प्रत्येक कमी का कोई न कोई औचित्य स्थापित कर ही देते हैं। यही कारण है कि हम 'अन्धसमर्थक' बन कर रह जाते हैं जबकि हमें 'विवेकवान समर्थक' होना चाहिए।
अत्यंत शोधपूर्ण लेख।
दि.वि. के पाठ्यक्रम में शामिल रामानुजन के लेख पर उठे विवाद के संदर्भ में भी अलग-अलग नजरिये से लोगों ने अपना पक्ष रखा है।
पाठ्यक्रम में उस लेख को शामिल रखा जाना है या नहीं, इसका निर्णय विश्वविद्यालय के सक्षम निकाय पर छोड़ दिया जाना ही उचित था, और उस निकाय ने सभी पक्षों को सुनने के बाद ही निर्णय लिया।
आपका यह लेख इस पूरे प्रसंग पर एक विवेकपूर्ण दृष्टि डालता है।
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