मंगलवार, 11 अक्टूबर 2011

जुगराफ़िया


शांति शहर में नहीं पैदा हुई थी। गाँव में पैदा हुई थी। जन्म लेने के पाँच साल बाद तक भी उसने शहर नहीं देखा था। उसका गाँव ही उसकी सम्पूर्ण दुनिया था। जो चीज़ गाँव में थी वही उसकी दुनिया में थी और जो चीज़ गाँव में नहीं थी वो दुनिया में भी नहीं थी। गाँव में किसी के भी आँगन में गुलाब का फूल नहीं होता था इसलिए शांति के लिए दुनिया में गुलाब का फूल नहीं होता था। इसी तरह आईसक्रीम और टीवी जैसी चीज़े जो गाँव के दृश्य में कहीं उपस्थित नहीं थे, वो भी उसकी दुनिया का हिस्सा नहीं थे। इसलिए पूरे पाँच साल तक गुलाब, आईसक्रीम और टीवी से ख़ाली दुनिया मे रहने के बाद शांति जब शहर गई तो उसकी दुनिया बदल गई।

शहर में गुलाब, आईसक्रीम, और टीवी के अलावा भी बहुत कुछ ऐसा था जो शांति ने कभी नहीं देखा था। शहर में नज़र के ठहरने का कोई ठिकाना ही नहीं था। इतनी चीज़े होती देखने को कि नज़र लगातार भटकती रहती। वो जितनी देर जागती रहती, हर नई चीज़ को फटी-फटी आँखों से ताकती रहती। सारी नई चीज़े उसकी आँखों के रास्ते अन्दर चली जातीं। और जब शांति सोती तो अन्दर आईं नई चीज़े उसकी दुनिया में रात भर खलबली मचाती रहतीं। कुछ तोड़-फोड़ भी करतीं पर बहुत ज़्यादा नहीं क्योंकि शांति की दुनिया में बहुत सारी ख़ाली जगह थी। उसकी दुनिया में बहुत सारी ख़ाली जगह थी क्येंकि गाँव में बहुत सारी ख़ाली जगह थी।

गाँव में जब शांति घर से बाहर निकलती और किसी भी एक दिशा में चलती तो बहुत देर तक उस दिशा में चलते रहने पर भी उस दिशा का अंत नहीं होता था। गाँव के बाहर में बहुत सारा बाहर था। और इसी तरह गाँव के अन्दर में भी बहुत सारा अन्दर था पर बाहर से कम। जब वो अन्दर आती तो अन्दर भी बाहर की तरह बहुत सारी ख़ाली जगह थी। बहुत सारे लोगों को अन्दर आ जाने का बाद भी घर भरता नहीं था। मुर्गी, कुत्ते, चूहे, बिल्ली और गाय के अन्दर आ जाने पर भी नहीं। घर का मतलब था मिट्टी की दीवारों के बीच की और खपरैल के छप्पर के नीचे की ख़ाली जगह। जिसमें खाट, बिछौना, बरतन, घड़ा, अनाज और तेल की ढिबरी जैसी चीज़ें रखी जा सकें।

गाँव में चीज़ें कम थीं। और उन पर भरोसा किया जा सकता था। पेड़ अपनी जगह रहता था, तालाब अपनी जगह, घूरा अपनी जगह और सबके घर अपनी जगह पर। सूप खूंटी पर ही होता, रस्सी कुँए की घिर्री पर ही रहती, और उपले दीवार पर ही। वो चलती और बदलती नहीं थी और और अगर वो चलती और बदलती भी तो भी तो इतना धीरे जैसे कि मौसम बदलता है। शांति ने पाया कि शहर में ऐसा नहीं था। शहर में कुछ तय नहीं था कि कौन सी चीज़ कब कहाँ चली जाएगी और कब क्या शकल ले लेगी। कल तक सड़क पर जहाँ पेड़ था, कल वहाँ खम्बा हो सकता है। जहाँ घर था, वहाँ मैदान हो सकता है। और जहाँ मैदान था, वहाँ ऊँची दीवार हो सकती है। किसी के घर के अन्दर जहाँ भगवान थे, वहाँ टीवी हो सकता है। जहाँ टीवी था, वहाँ बिस्तर हो सकता है और जहाँ बिस्तर था, वहाँ कल को बाथरूम हो सकता है।

एक बार तो ऐसा भी हुआ कि शांति के घर के सामने जो घर था वो घर तो रहा पर जिन लोगों का घर था वो लोग ही नहीं रहे। शांति के लिए वह बहुत ही सन्न कर देने वाली घटना रही। वो बार-बार उस घर के दरवाजे पर पड़े ताले को देखती और फिर भी मान नहीं पाती कि वो लोग सचमुच अपना घर छोड़कर चले गए। कुछ दिनों बाद जब उसने इस दरवाजे को खुला देखा तो वो बेहिचक उस घर में अन्दर तक दौड़ गई। पर अन्दर तो कोई और ही लोग थे। और अन्दर जो घर उसे दिखा वो घर भी कोई और ही घर था। दीवारें और छत वही थे पर सामान अलग था। वो लोग और सामान मिलकर उसके अन्दर फिर से एक खलबली पैदा कर रहे थे। शांति के भीतर की दुनिया में उस घर का जो जुगराफ़िया था, वो बाहर के जुगराफ़िये से टकरा कर बहुत दिनों तक अजीब उलझन पैदा करता रहा।

और बाद में जब ख़ुद शांति के पापा को अपना घर बदलना पड़ा तब तो हालत और भी विकट हो गई। यह बात उसे बड़ी कठिनाई से समझ आई कि घर भी किराए पर लिया और दिया जाता है। घर बदलने के बाद भी लम्बे समय तक वो पहले वाले एक कमरे के घर को ही घर कहती और वहीं चलने की ज़िद करती। शांति के मम्मी-पापा समझदार थे- उनको ऐसी कोई तक़लीफ़ नहीं थी। वो उसे कई तरह से लुभाते और समझाते कि देखो ये घर अधिक बड़ा है, रौशनीदार है।

धीरे-धीरे शांति भी समझदार हो गई। पुराने दोस्तों को आसानी से भूलना सीख गई। और जल्दी से नए दोस्त बनाना भी सीख गई। और जो चीज़ पहले उसके भीतर बहुत उलझन पैदा करती थी, उसी बात में उसे दिलचस्पी पैदा हो गई। वो जब भी किसी के घर जाती तो उस घर के रहने वालों से मिलने जाती और उस घर से भी मिलने जाती। एक जैसे मकान होने पर भी कोई दो घर एक जैसे नहीं होते। हर घर अलग होता। वैसे ही जैसे हर आदमी के नाक-कान-मुँह होता है फिर भी हर आदमी अलग होता है।

शांति को किसी के घर के भीतर जाना उस व्यक्ति के भीतर प्रवेश करने जैसा लगता। शांति को लगता जैसे घर के अन्दर कई लोग रहते हैं वैसे ही व्यक्ति के अन्दर भी कई लोग रहते हैं। शांति ने यह भी पाया कि हर बार हर घर कुछ बदल जाता है वैसे ही जैसे हर बार हर आदमी भी थोड़ा सा बदल जाता है। शांति के लिए किसी के घर जाना लगभग उससे हाथ मिलाने और दोस्ती करने जैसा था। रहस्यमय लोग अपने घर के दरवाजे हमेशा बंद रखते। शांति जिनसे दोस्ती करना चाहती, उन्हे घर बुलाती और उन्हे अपना कमरा ज़रूर दिखाती। सिर्फ़ उन्ही लोगों के लिए उसके दरवाजे बंद रहते जिन्हे वो पसन्द नहीं करती।

शांति की यह दिलचस्पी शादी के पहले तक क़ायम रही। पर अब वो दिन नहीं रहे। अब लोग एक-दूसरे के घर नहीं आते-जाते। जाते भी हैं तो शालीनता से लिविंग रूम में गुफ़्तगू करते हैं और लौट आते हैँ। लिविंग रूम की बनावट से आदमी की बनावट भर का ही पता चलता है और कुछ नहीं। अधिकतर लोग बाहर कहीं मिलने लगे हैं। और वो जगहें ऐसी हैं जिनमें उनकी कोई निजता नहीं झलकती। शांति के लिए यह एक नई उलझन बन गई है। शांति को लगने लगा है कि वो किसी को नहीं पहचानती। कौन कैसा है, कुछ भी नहीं जानती।

***


(इस इतवार दैनिक भास्कर में छपी)

2 टिप्‍पणियां:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

गाँव में परिवेश का व शहर में स्वयं की सीमायें समझनी होती हैं।

shikha varshney ने कहा…

बदलते परिवेश का सुन्दर चित्रण.गाँव और शहर का अपना अलग स्वाभाव होता है.

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...