बुधवार, 5 अक्तूबर 2011

हाशिये पर


शांति को वो रोज़ मिलती थी। कभी-कभी तो दिन में दो बार भी मिलती थी। दफ़्तर आते-जाते जब भी शांति का स्कूटर अम्बेडकर चौराहे पर रूकता तो शांति की निगाहें ख़ुदबख़ुद ही उसे ढूंढने लगती। और पचासों वाहनों के बीच भी उसकी लहकती हुई काया को अलग से पहचान लेने में शांति को कोई मुश्किल नहीं होती। शांति ने उसे जब भी देखा, हमेशा टिपटॉप देखा। हफ़्ते के हर दिन वो एक नए रंग में दिखाई पड़ती। जिस रंग की साड़ी उसी रंग का ब्लाउज़ और सैण्डल। यहाँ तक कि जुएलरी भी मैचिंग पहनती। वैसे तो वो इतनी सुन्दर थी कि वो कुछ भी मेकप न करती और कुछ भी पहन लेती तो भी उस पर से नज़रें हटाना मुश्किल होता। इतना सजने-धजने के बाद तो वो बिजलियां ही गिराने लगती। वो ठुमकते हुए शांति के पास चली आती और उसकी बलैयां लेने लगती। शांति पर्स खोलकर उसे कुछ न कुछ ज़रूर देती। कभी पाँच रूपये कभी दो रुपये। अगर कभी उसके आने से पहले ही सिगनल हरा हो जाता तो भी वो शांति को मुसकराकर बलैयां लेके ही विदा करती और बार-बार आशीर्वाद देती।

कुछ लोग कहते हैं कि इनके आशीर्वाद में बड़ी ताक़त होती है। पर वही लोग उसे देखकर बुरी तरह घबरा जाते। वो कुछ कहती तो आँखें तरेरने लगते। हाथ लगाती तो छिटकने लगते। और उनके लाख स्त्रीवेश रखने पर भी कुछ लोग उन्हे आता-जाता की क्रिया में पुरुष की तरह ही सम्बोधित करते। ये सही है कि इन हिजड़ों में से कई की मांसपेशियाँ पुरुषों की भांति ही उभरी हुई होती हैं और चेहरे पर दाढ़ी-मूँछ के खूँटे भी झलकते रहते हैं। पर शांति ने पाया है कि उन हिंजड़ो का स्वभाव भी बहुत नाज़ुक और लचीला होता है जिनके शरीर में स्त्रियों जैसी कोई तरलता नहीं होती। उनका शरीर भले पुरुष का हो वे मन से नारी होते हैं और हर कोशिश कर के पूरी तरह वही हो भी जाना चाहते हैं। इन कोशिशों में हारमेन्स की गोलियों से लेकर विदेशों में किए जाने वाले मँहगे ऑपरेशन्स तक होते हैं।

शांति के लिए यह बात कभी मुद्दा ही नहीं रही कि उन्हे पुरुष माना जाय या स्त्री। जैसे किसी का नाम होता है या किसी का मज़हब होता है वैसे ही शांति इसे भी मानती रही है। अगर वे अपने को स्त्री मानते हैं तो उसमें किसी को क्या ऐतराज़ होना चाहिये। पर कुछ लोगों का नज़रिया इस मसले पर बेहद कट्टर और क्रूर पाया जाता है। और इस क्रूरता से शांति का परिचय बहुत बचपन में ही हो गया था। शांति के स्कूल में एक बार एक लड़का पढ़ने आया था नीरज- जो पहनता तो पैंट-शर्ट था लेकिन उसके हाव-भाव और अंदाज़ सब लड़कियों वाले थे- हर समय खिलखिलाना, कुछ लहराते हुए सा चलना, किसी पहाड़ी नदी की तरह धाराप्रवाह बोलना, थोड़ी सी भी चोट लग जाने पर आँखों में आँसू डबडबा जाना। हालांकि कम ही लड़कियां उससे बात करतीं पर वो लड़कियों के साथ घुलमिलकर के रहने की पूरी कोशिश करता। लड़कियो की ही तरह वो लड़को से कटता और लड़के भी उससे कटते। लड़के कभी उससे बात करते भी तो उसका मखौल बनाने के लिए।

नीरज पढ़ने में तेज़ था पर पढ़ाई से अधिक मन उसका सजने-धजने और फैशन में लगता था। वो बड़े बाल रखता और हर दिन एक अलग स्टाईल में बाल सजाकर आता। कभी-कभी नीरज अपनी छोटी उंगली में नेल पॉलिश लगा लेता था। एक दिन वो दसों उंगलियों में नेलपॉलिश लगाकर आ गया। लड़कियों ने झुण्ड बनाकर उस पर मीन-मेख निकाला, लड़कों ने छींटाकसी की, और टीचर ने देखा तो कसकर डाँटा। नीरज ने सर झुका के सुना तो पर उस पर कोई अधिक असर नहीं हुआ। कुछ दिनों बाद वो स्कूल में लिपस्टिक और मस्कारा लेके आ गया और लंच में कुछ लड़कियों के साथ मिलकर उसने दोनों का इस्तेमाल अपने चेहरे पर कर डाला। शांति को याद है कि वो किसी हीरोईन की तरह सुन्दर लग रहा था। यह बात वो भी जानता था और उसीलिए ख़ुशी से इसके क़दम सीधे नहीं पड़ रहे थे। न जाने यह उसकी ख़ुशक़िस्मती थी या बदक़िस्मती, किसी टीचर की नज़र उस पर नहीं पड़ी। छुट्टी होने तक लड़कियों की खिलखिल और लड़कों की छींटाकसी ज़ारी रही। मगर छुट्टी के बाद जो हुआ उसकी कल्पना किसी ने नहीं की थी। स्कूल से निकलने के बाद लड़कों ने उसे घेर लिया और उसके कपड़े फाड़ डाले। उस दिन जब नीरज घर पहुँचा तो उसके शरीर पर कपड़ों के निशान से बड़े ख़ून के निशान थे।

आख़िर उसका अपराध क्या था? क्या सिर्फ़ इतना कि वो औरतों की तरह सुन्दर दिखना चाहता था?

नीरज उस दिन के बाद स्कूल लौटकर नहीं आया। शांति को यह भी पता नहीं चला कि उसके बाद वो फिर किसी स्कूल गया कि नहीं। उस हादसे के बाद नीरज किसी भी सामाजिक समूह में सहज होकर रह पाया होगा, मुश्किल लगता है। यही सोचकर शांति जब भी हिंजड़ो के समूह को देखती है तो सोचने लगती है कि उसका सहपाठी नीरज भी शायद उनमें शामिल हो गया हो। उस हसीन हिंजड़े को देखकर तो शांति को हमेशा नीरज की याद आती है क्योंकि वो कोई बहुत ज़हीन और पढ़ा-लिखा इंसान मालूम देता था। जिसको देखकर किसी का भी मन में उसे जानने और दोस्ती करने की इच्छा पनप जाय। वैसे तो बिना किसी जान-पहचान के ही उनके बीच एक अजीब सी दोस्ती का रिश्ता क़ायम हो गया था पर शांति को उसका नाम भी नहीं मालूम था। शांति ने कई बार सोचा कि वो कभी रुककर उससे उसका नाम पूछे और उसकी कहानी भी। मगर वो मौक़ा कभी नहीं आया। एक रोज़ शांति को वो अम्बेडकर चौराहे पर नज़र नहीं आई। और उसके बाद फिर कभी नज़र नहीं आई। आते-जाते शांति की निगाहों उसे खोजती रहतीं। पर वो नहीं मिली। शांति के पास यह जानने का कोई ज़रिया नहीं था कि वो कहाँ चली गई और क्यों चली गई?

फिर एक दिन अख़बार में एक ख़बर देखी- पुलिस मे कुछ हिंजड़ो को भीख माँगने और वैश्यावृत्ति करने के इल्ज़ाम में हवालात में बंद कर दिया था। साथ में पुलिस अफ़सर का बयान भी था कि वो किसी को समाज में अनैतिकता नहीं फैलाने देगा। साथ में एक छोटी सी तस्वीर भी थी। उस तस्वीर में पुलिस अफ़सर के पीछे हवालात में बंद हिंजड़ो सें से एक का आधा मुँह साड़ी के आँचल से ढका हुआ था और दिखाई पड़ रहा आधा मुँह लाल टमाटर की तरह सूजा हुआ था। शायद उसे भी किसी ने सुन्दर लगने का ईनाम दिया था। शांति ने ग़ौर से देखने की कोशिश की कहीं वो चेहरा उसे मिलने वाली उसकी अनाम दोस्त का तो नहीं है? पर वो कुछ तय नहीं कर सकी- वो एक हिंजड़े का चेहरा भर था जिसके लिए समाज के भीतर या बाहर कोई जगह नहीं थी।

***

(पिछले इतवार दैनिक भास्कर में छपी)

1 टिप्पणी:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

हाशिये पर खड़ा इतना बड़ा समाज। संवेदनशील प्रस्तुति।

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