चार
दिन पहले.
शांति
दफ़्तर से लौट रही थी। सड़क
पर ट्रैफ़िक रोज़ की तुलना
में वाक़ई ज़्यादा था या उसकी
अपनी किसी उलझन के चलते शांति
को ज़्यादा लग रहा था- ठीक-ठीक
कहा नहीं जा सकता। बात जो भी
रही हो- शांति ने
सड़कर वो सड़क छोड़ दी और नयागंज
वाला रास्ता ले लिया। नयागंज
में जाम तब होता है जब सड़क के
दोनों तरफ़ हाथ ठेलेवाले रुककर
माल उतारने लगते हैं। या फिर
तब, जब गायों की एक
गोष्ठी पूरी सड़क घेरकर पगुराने
बैठ जाय और कितना भी हॉर्न
बजाने पर न उठे। उस दिन भी हाथ
ठेले वाले बोरियों में भरा
अनाज और मसाले दुकानों के बाहर
उतार रहे थे और सड़क पर विरक्त
भाव से बैठे गाय और साँड भी
पगुरा रहे थे मगर आम जनता पर
इस तरह मेहरबान होकर कि गति
भले धीमी हो जाय पर जाम न लगे।
मन्थर गति के उस प्रवाह में
अपनी तेज़ी का संचार करने के
इरादे से शांति ने अपनी स्कूटी
इधर-उधर लहराई और
एक साँड से लगभग जा टकराई।
साँड से बचने के चक्कर में
स्कूटी का हैण्डल जिधर घुमाया,
उधर लाल मिर्च पाउडर
का एक थाल था। बचाते-बचाते
भी टक्कर खा गया और शांति के
आँखों के आगे पलटा गया।
तीन
दिन पहले.
पन्द्रह-सोलह
घंटे बीत चुके हैं। डॉक्टर
ने इंजेक्शन दे दिया है,
मलहम लगा दिया है,
गोलियां खिला दी हैं
और आँखों पर पट्टियां बांध
दी है। फिर शांति की आँखें जल
रही हैं और दिमाग़ उबल रहा
है।शांति की आँखों के आगे से
एक पनियाला अंधेरा रिसता रहा
और उसके भीतर एक अजब बेचैनी
मथता रहा। अजय काम पर चला गया,
बच्चे स्कूल और सासू
माँ अपने कमरे में। उनके टीवी
की आवाज़ बाहर के शोर के साथ
मिलकर शांति को और भड़काती
रही। कोई राहत नहीं, कोई
रस्ता नहीं। शांति को लगता
रहा कि उसके भीतर लाल मिर्च
का एक पहाड़ है। अन्दर जाने
वाली हर सांस लाल मिर्च की गंध
में धुलकर बाहर आती।
दो
दिन पहले.
जलन
कम है। मन पहले से बेचैन कम
है। आँखों पर पट्टियां बनी
हुई हैं। आंखों का काम कानों
ने सम्हाल लिया और सूचनाएं
मिलने लगीं। कानों के ज़रिये
दीवारों, खिड़की,
दरवाज़ों जैसी स्थायी
चीज़ों का एक मानचित्र बन गया।
उनके बीच में से कोनों और मोड़ों
से भरा रस्ता बन गया। और शांति
उस पर बच-बचकर चलने
लगी है।
उस
दिन.
घर
में बैठे-बैठे ऊब
गई शांति। तो बाहर का दरवाज़ा
खोलकर खड़ी हो बाहर की आवाज़ें
सुनने लगी। कोई नई आवाज़ नहीं
थी- बस ज़रा तेज़
आवाज़ें थीं। हवा अच्छी चल
रही थी और चेहरे पर लग रही थी।
फिर वही हवा अपनी तरंगो पर एक
गंध लेकर आई। मछली की गंध। साथ
में कड़वे तेल और तड़कती हुई
राई का भी कुछ पैग़ाम था। कहीं
मछली तली जा रही थी। शांति ने
पता लगाने की कोशिश की कि कहाँ
से आ रही है गंध। सामने वाले
घर के दरवाज़े की तरफ़ गई पर
उस दिशा से एक अमानुषी गंध उठ
रही थी- उनके कुत्ते
पेप्सी की गंध। दरवाज़े का
अधिक क़रीब जाने पर पेप्सी
भौंकने लगा। शांति की गंध उस
की सुरक्षा सीमा के अन्दर
पहुँच गई थी शायद। शांति पीछे
हट गई और नीचे उतर गई। नीचे के
तल पर बाएं वाले घर से साबुन
पाउडर के सिंथेटिक फूलों की
महक आ रही थी। शांति ने थोड़ी
मशक़्कत के बाद समझा कि गुप्ता
जी की बाई कपड़े धो रही थी। और
नीचे उतरी तो एक तेज़ परफ़्यूम
का झोंका आया। फिर एक आवाज़
- हलो मिसेज़ शर्मा।
ये पालीवाल जी थे- रिटायर
हो चुके हैं और अपने बेटे-बहू
के साथ रहते हैं। शांति पहले
भी उनसे मिली है पर उनके पर्फ़्यूम
से पहली बार मिली जो रिटायर
नहीं हुआ था।
धरातल
पर आ जाने के बाद शांति अपने
को थोड़ा सा असुरक्षित महसूस
करने लगी। न तो सीढ़ियों की
तरह एकरैखीय रस्ता था और न ही
सहारे के लिए कोई रेलिंग। मछली
की गंध अभी भी आ रही थी लेकिन
पहले जितनी तेज़ नहीं। फिर
पैट्रोल की गंध आई और एक स्कूटर
की गुरार्हट पास आकर बग़ल से
निकल गई। उसके निकलने के बाद
गीली मिट्टी की सौंधी महक उसके
नासापुटों पर दस्तक देने लगी।
और पानी गिरने के बहुत हलके
सुर से उसे पता लग गया कि वो
क्यारियों के किनारे खड़ी है
और माली अपने काम पर लगा है।
बेला, चमेली,
गेंदे की कई क़िस्मों
और गुलाब की अलग-अलग
गंधों का आस्वादन करते हुए
वो धीरे-धीरे,
क्यारी-क्यारी
चलती रही। शांति को पता था उन
फूलों के बारे में- रोज़
आते-जाते वहीं से
गुज़रती थी, नज़र उनको
देखती भी थी पर देख नहीं पाती
थी, उनकी महक सूंघ
नहीं पाती थी।
तीसरी
मोटरसायकिल के गुज़र जाने के
बाद अचानक फिर से बहुत तेज़
मछली और सरसों के तेल की गन्ध
आई। क्यारियों के पार, सड़क
की तरफ़ से। अपने कानों और नाक
पर आश्वस्त हो चली शांति ने
बेझिझक सड़क पार की और सोसायटी
की सलाखों वाली दीवार के पार,
कढाई में मछलियों के
टुकड़ों के तले जाने की हलकी
छन-छन की आवाज़ को
सुना। उसके पीछे सड़क के अविरल
शोर के बीच कुछ लोगों के हलके-हलके
बतियाने के स्वर भी सुने। यह
एक एकदम नई खोज थी। सोसायटी
की इमारत से बिलकुल लगा हुआ
एक खोमचा जिसके बारे मे ना तो
उसे कुछ पता था और ना ही अजय
को। शांति के आँखों वाले संसार
मे बड़े-बड़े
छेद थे जिसमें ये खोमचा शायद
छिप कर खड़ा हुआ था। जिसे आँखों
से न देखा जा सका,
कानों से ना पाया
जा सका, उसे
नाक ने सूँघ लिया था।
दो
दिन बाद.
डॉक्टर
घर पर आया और पट्टियां खोल
गया। मगर उसके पहले शांति के
आगे गन्धों और आवाज़ों की एक
ऐसी दुनिया उजागर होती गई जो
पहले उसके लिये सोयी पड़ी हुई
थी। उसमें अपनी गन्ध से लोग
पहचाने जाते। अजय, अचरज
और पाखी, दीवार के
पीछे से भी नज़र आ जाते और चुप
रहकर भी पकड़े जाते। गन्धों
के सोते थे, मंज़िलें
और मक़ाम थे। पट्टियां खोलने
के बाद उसे गंध नज़र आती रहीं।
दस
दिन बाद.
आँखों
की जलन पूरी तरह से जाती रही।
शांति ने फिर से दफ़्तर आना
जाना शुरु कर दिया। स्कूटर
चलाते हुए सारे रास्ते जैसे
रौशनी आती, जैसे
हवा पर चलकर आवाज़ आती, वैसे
ही गंधों के भी सन्देश आकर
उसकी साँसों से टकराते रहे।
तीन
मास बाद.
आँखों
के रास्ते लगातार आ रहे संदेसों
की चकाचौंध से दिमाग फिर से
चकमा खाने लगा। गंधों का समांतर
संसार शांति के लिये धीरे-धीरे
धुंधला होकर फिर से पृष्ठभूमि
में चला गया। कभी किसी तेज़ लाल
मिरच की झार से या फिर सरसों
के तेल वाली मछली की चरपरार
आती तो शांति को फिर से नाक से
नज़र आने लगता.. कुछ
देर के लिये बस।
***
(इस इतवार दैनिक भास्कर में शाया हुई)
1 टिप्पणी:
बहुत सही प्रस्तुति .. आँखों के रास्ते लगातार आते संदेसों की चकाचौंध से दिमाग चकमा खा ही जाता है .. अन्यथा हर जीव के एक एक अंग में खासियत है !!
एक टिप्पणी भेजें