जब
दरवाज़े की घंटी बजी तो शांति
दूध लेने के बाद वापस बिस्तर
पर लेटकर चादर में गुड़ी-मुड़ी
हो रही थी। उस बेवक़्त के मेहमान
को लगभग कोसते हुए सी शांति
ने दरवाज़ा खोला। सामने बुआ
खड़ी थीं। बिन्नी बुआ। पर बुआ
इतनी पतली? ये कैसे
हो सकता है? शांति
ने आँखें मल के देखा.. बुआ
ही थीं जो उसकी हैरानी का मज़ा
लेते हुए मंद-मंद
मुसका रही थीं।
बुआ
आप?.. इतनी पतली
कैसे.. ?
बस
हो गई..
मुझे
तो यक़ीन ही नहीं हो रहा है कि
ये आप ही हैं..
कर
लो यक़ीन.. और फिर न
कहना कि बिन्नी बुआ तो बस खाती
हैं और मुटाती हैं..
इतना
कहके बुआ ने शांति को बाहों
में भर के कस के भींच लिया।
उनके प्यार की गर्मी में शांति
की सारी कुनमुनाहट जाती रही।
रसोई
में खड़ी हो के चाय बनाते हुए
शांति बार-बार अपनी
प्यारी बुआ के चमकदार नए अवतार
को निहारती रही। उस नज़र का
पात्र होने में बुआ को भी मज़ा
आ रहा था। अपनी विजय गाथा के
हर महीन विवरण को वो पूरे
हाव-भाव के साथ बयान
करती जा रही थीं। बुआ के चेहरे
के दिलचस्प उतार-चढ़ाव
के बावजूद शांति की नज़रें
बार-बार बुआ के चेहरे
से उतरकर उनके स्वैटर पर फ़िसलती
जा रही थीं। शांति को वो स्वैटर
बड़ा जाना-पहचाना
लग रहा था..
'बुआ
ये स्वैटर..? '
'पहचाना
इसे.. ? '
'ऐसा
एक स्वैटर अम्मा के पास भी
था.. '
'भौजी
का ही तो है..!! '
'अम्मा
ने दिया था आपको!?!?'
'भौजी
अपना स्वैटर मुझे देंगी..??
तुम तो जानती हो भौजी
में अपने सामान को लेकर कैसी
माया थी.. पहले तो
किसी को अपना सामान देती न थीं
और जिस किसी को दे दिया इसका
मतलब उस पर उनकी मेहर हो गई..
'
'वही
तो.. आप जैसी लापरवाह
को कुछ देने का तो सवाल ही नहीं
उठता..'
'यही
भौजी ने भी कहा था जब मैंने
माँगा..'
'देखा..
!!'
'काफ़ी
पुरानी बात है.. मैं
स्कूल में थी.. जब
भौजी यही स्वैटर पहने के भैया
के साथ ससुराल आई थीं.. मुझे
स्वैटर पसन्द आ गया था..
मैंने बिन्दास माँग
लिया.. '
'और
अम्मा ने मना कर दिया.. आपको
तो बहुत बुरा लगा होगा.. '
'इतना
कि उनके चलने के पहले मैंने
ये स्वैटर छिपा दिया.. भौजी
ने घर भर में ढूँढा पर नहीं
मिला.. '
'ऐसी
किस जगह छिपा दिया था कि अम्मा
भी नहीं खोज सकीं.. '
'छत
की भंडरिया में.. '
'बाप
रे.. बड़ी शातिर थीं
आप.. '
'अम्मा
को शक नहीं हुआ आप पर? '
'हुआ..
बार-बार
कहा कि वापस कर दो.. '
'पर
मैंने माना ही नहीं कि मैंने
छिपाया है.. '
'अम्मा
का तो कलेजा कट गया होगा..
'
'कट
ही गया था.. उनका
अपनी चीज़ों से कितना प्यार
था तुम जानती ही हो.. '
'हम्म..
कभी-कभी तो
हमें लगता कि उन्हे हम से ज़्यादा
चीज़ों से प्यार है.. '
'ऐसा
भी नहीं था.. भौजी
प्यार बहुत करती थीं तुम से..
और मुझसे भी.. बस
हर चीज़ को सलीके से रखने की
आदत थी उनकी.. और मैं
ज़रा लापरवाह थी इसलिए.. '
'ज़रा?'
'अच्छा
ठीक है..बहुत!'
यह
कहकर दोनों हँस पड़ी।
'ये
स्वैटर मैंने चिढ़कर दबा तो
लिया पर भौजी और बाक़ी सबके डर
के मारे कभी पहन नहीं सकी..
अभी दुबले होने के बाद
जब मेरे तो सारे स्वैटर झोला
हो गए.. एक भी पहनने
लायक़ नहीं रहा.. तो
एक बक्से की तली से ये निकला..
तब तो पहन नहीं सकी..
अब पहन रही हूँ..'
इतना
कहकर बुआ ने अपने स्वैटर को
हौले से सहलाया। शांति की
अम्मा के प्रति बुआ के मन में
जो भी भावना कभी रही हो.. उस
स्पर्श में सिर्फ़ प्यार और
आभार था जिसे शायद वो अपनी
भौजी के रहते नहीं जतला सकीं।
अम्मा
का प्यार उनकी लताड़ के नीचे
दबा रहता। ख़ुद शांति लम्बे
समय तक तो यही मानती रही कि
अम्मा के लिए जो है, सब
भैया ही है। भैया के लिए तो
जैसे उनकी ज़बान में ना नाम का
शब्द ही नहीं था। और जब शांति
कुछ माँगे तो हज़ार किनिआतें।
ये बात शांति को बाद में समझ
आई कि भैया अम्मा की ही तरह
कृपण वृत्ति का था जबकि शांति
बिन्नी बुआ की ही तरह लापरवाह।
और शांति को चाहिये होती थीं
सब अम्मा की चीज़ें जबकि भैया
को उनसे कोई मतलब ही न था।
बिन्नी
बुआ जब तक रहीं, लौट-लौट
के शांति की अम्मा की बातें
होती रहीं। उनके चलते समय
शांति के मन में एक बार आया कि
अपनी अम्मा का स्वैटर माँग
ले। फिर लगा कि ये तो अम्मा
जैसी ही बात हो जाएगी- मेरी
अम्मा का स्वैटर मुझे दे दो!
शांति का बहुत मन था
कि अम्मा का स्वैटर वो अपने
पास रख ले पर मारे संकोच के
शांति की ज़बान ही नहीं खुली।
बिन्नी बुआ वही स्वैटर पहने
चली गईं। ऐसा नहीं था कि अम्मा
ने शांति को कभी कुछ दिया नहीं..
जब शांति पहली बार
अम्मा से अलग होके हॉस्टल में
रहने गई तो बहुत उम्मीद न होने
पर भी शांति ने अम्मा का लाल
कार्डिगन उनसे माँग लिया।
बेटी से जुदाई के उस क्षण में
अम्मा अचानक शांति पर मेहरबान
हो गईं और वो कार्डिगन दे डाला।
शायद यह सोचकर कि बेटी बड़ी हो
गई है और इतनी ज़िम्मेदार भी
कि उनके कार्डिगन को सहेज सके।
पर वो अम्मा की बदगुमानी थी।
शांति ने पहला मौक़ा मिलते ही
अम्मा का कार्डिगन अपनी एक
नई सहेली को दे डाला जो पहाड़ों
पर स्टडी टूर के लिए जा रही
थी। और संयोग ऐसा हुआ कि उस
सहेली से जब भी मिलना हुआ तो
ऐसी परिस्थिति में जब कि वो
स्वैटर वापस माँगना बड़ी अभद्रता
होता। सहेली गई, स्वैटर
गया, और अम्मा भी
चली गईं। अम्मा के जाने के बाद
जब भैया के घर जाना हुआ तो वो
सारा सामान जो अम्मा ने बरसों
सहेज कर रखा, उसे
कभी घर में न दिखा। बाद में
पता चला कि सब शांति की सफ़ाई
पसन्द भाभी ने उसे कूड़ा-कबाड़
मानकर बेच डाला। एक स्वैटर
भी नहीं मिला उसे।
शांति
के पास अम्मा की कोई ठोस स्मृति
नहीं.. सिर्फ़ यादें
हैं बस। जब बैठे-बैठे
अम्मा की बहुत याद सताने लगी
तो शांति उठकर सासूमाँ के पास
जा कर बैठ गई। सासूमाँ हमेशा
की तरह बिस्तर पर लेटे-लेटे
टीवी देख रही थीं। अपने अवसाद
में शांति ने सासूमाँ के होने
को और पास से महसूस करने के
लिए उनके पैर का स्पर्श किया।
सासूमाँ ने एक बार शांति की
ओर मुड़कर देखा। उनकी आँखों
में एक लम्बे सफ़र की थकान थी,
कोई गहरी उदासी थी और
बड़ा बेगाना सा भाव था। शांति
को वहाँ कुछ भी उसकी अम्मा
जैसा मिलता उसके पहले ही सासूमाँ
मुड़कर वापस टीवी देखने लगीं।
***
(छपी दैनिक भास्कर में आज ही)
2 टिप्पणियां:
घर में दो भिन्न प्रकृति के लोग होने से रोचकता बनी रहती है।
शांति के पास माँ का कुछ न होना बहुत दुखद है. संसार में कोई नियम होना चाहिए की भंगार में बेचने से पहले एक बार घर के हर सदस्य से पूछा जाना चाहिए की कहीं उस भंगार में उसकी कोई यादें तो नहीं बसी? कहीं उसे वह भंगार अपने हृदय से तो नहीं लगानी? प्राय: बेटियों को अपने बचपन की यादों के भंगार में जाने की हृदय विदारक खबर सुननी पड़ती है. बिकने से पहले 'मायके से कुछ कैसे माँगे.सब क्या सोचेंगे' यह बात अपनी प्रिय वस्तुएँ मांगने से रोकती रहती हैं.
घुघूतीबासूती
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