गुरुवार, 29 दिसंबर 2011

दाता

इतवार का दिन था। कई दिनों के कोहरे के बाद कुनमुनी धूप निकल कर आई थी। साढ़े-दस ग्यारह बजे की मुतमईन घड़ियों में बच्चे और नौजवान जहाँ जगह मिले खेल रहे थे। प्रौढ़ और वृद्ध घरों के बाहर कुर्सियां डाल के पड़े हुए थे या बेवजह ही छायाओं की अवहेलना करते हुए धूप के आगे   चहलकदमी कर रहे थे। मगर शांति धूप की अवहेलना करते हुए एक बंद कमरे की घुटी हुई हवा में पुराने सामान को उलट-पुलट रही थी। एक तरफ़ बड़ी सी अलमारी की छोटी-छोटी दराज़ों में पुराने फ़िल्मी और ग़ैर-फ़िल्मी रेकार्डस और ऑडियो कैसेट्स थे। दूसरी दीवार के सहारे लगी रैक्स में रीडर्स डाइजेस्ट, सारिका और माधुरी जैसी पुरानी पत्रिकाओं के अंको के ढेर लगे हुए थे। तीसरी और चौथी दीवार के सहारे अलग-अलग चट्टों में इब्ने सफ़ी, ओमप्रकाश शर्मा और कर्नल रंजीत के उपन्यास बेतरतीब अन्दाज़ में उपेक्षित से पड़े हुए थे। हालांकि जिस मोटाई की धूल हर साज़ों- सामान पर पसरी हुई थी, वो किसी को भी उपेक्षित का दर्ज़ा दिलाने के लिए पर्याप्त थी।

'कैसा लग रहा है आप को?' शांति से यह सवाल पूछा आत्माराम जी ने। शांति ने दराज़ में क़ैद कैसेट्स में फंसी अपनी नज़र निकालकर आत्माराम जी को देखा। वो अपनी लहराती सफ़ेद दाढ़ी और मुस्कराती आँखों के वेश में किसी प्राचीन ऋषि जैसे लग रहे थे। उस कमरे और उसमें मौजूद हर असबाब के स्वामी आत्माराम जी ही थे। जिन्होने अपरिग्रह या वैराग्य जैसी किसी भावना से  प्रेरित होकर अपने उस प्रिय और प्राचीन संग्रह को दान करने का इरादा कर डाला था। और उस  इरादे को एक रंगीन कागज़ की शकल में सोसायटी की हर इमारत की नोटिस बोर्ड में चिपका दिया था। शांति आत्माराम जी को पहले से नहीं जानती थी- वही नोटिस पढ़कर आई थी। और अब उस से आत्माराम जी ने पूछा था कि कैसा लग रहा है उसे। 'उनके संग्रह को देखकर' का वाक्यांश उन्होने कहा नहीं था पर वो सवाल में अन्तर्निहित था।
'अच्छा लग रहा है..' शांति ने कहा। पर वो और कह भी क्या सकती थी।
'पर आप ये सब दे क्यों रहे हैं..?' शांति ने पूछा।
'अब क्या होगा इस सब कबाड़ का.. पड़ा-पड़ा धूल खाता रहता है बस', आत्माराम जी को पत्नी सुमित्रा देवी कमरे में चली आईं थीं। और उनके हाथों में एक ट्रे ही जिसमें ग़ज़क, चिक्की और तिल के लड्डू थे।
'लो खाओ!', उन्होने ट्रे शांति के आगे कर दी।
'नहीं-नहीं.. मैंने अभी नाश्ता किया है।'
'तो क्या हुआ.. ये तो नाश्ते के बाद खाने की चीज़ है..लो खाओ!', सुमित्रा देवी के स्नेहिल आग्रह के आगे शांति को झुकना ही पड़ा।
'मुझे जो पढ़ना था, पढ़ चुका.. सुनना था, सुन चुका.. अब दूसरे लोग इसका सुख लें.. इसी कारण मैंने  इन्हे दान करने का फ़ैसला किया..'
दान करने का भी सुख होता है.. आप को कैसा लग रहा है' शांति ने पूछा।
'अच्छा लग रहा है..', आत्माराम जी अपने सुख की गहराई से मुसकराए।

जब तक यह बात हो रही थी, सुमित्रादेवी ने गुड़ की ग़ज़क की पूरी पट्टी अचरज के मुँह में ठूँस दी। अचरज भी आया था शांति के साथ। आया क्या था, घसीटकर लाया गया था, वो तो धूप में अपने दोस्तों के साथ खेलना चाहता था पर शांति ही उसे किताबों और संगीत की दुनिया से एक क़रीबी रिश्ता बनाने की नीयत से खींच लाई। आया गया था तो वो भी कुछ अलट-पटल कर देख रहा था, हालांकि उसके मतलब की चीज़ें थी नहीं वहाँ पर। शांति को भी अपने मतलब की चीज़ें कम ही दिखीं। रेकार्डप्लेयर न होने के कारण रेकार्डस तो किसी काम के थे नहीं और कैसेट्स भी अधिकतर उसकी पसन्द के नहीं थे। पर फिर भी बचपन में सुने गानों को फिर से सुनने के चाव से उसने कुछ कैसेट्स अलग कर लिए।

'एक व्यक्ति के लिए पाँच आईटम से ज़्यादा नहीं..' आत्माराम जी ने स्थिर स्वर में कहा।
'जी?!', शांति थोड़ा हड़क गई।
'मैं चाहता हूँ कि मेरा संग्रह अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचे..'
'अच्छा ख़याल है.. पर मुझे बस यही दो चाहिये..'
कैसेट्स के कवर पर पंकज मलिक और सी एच आत्मा को देखकर आत्माराम जी के चेहरे की लकीरों में विछोह के दर्द की तस्वीर बन गई।
'तो ये दोनों जायेंगे..! ?'
उनकी आवाज़ को सुनकर शांति को लगा कि शायद वो उन्हे देना नहीं चाहते..
'अगर आप इन्हे रखना चाहें तो..'
'नहीं-नहीं.. आप लेके जाइये.. बस इस रजिस्टर में अपना नाम-पता लिख दीजिये..'
'जी?' शांति को समझ नहीं आया..
'अगर कभी मुझे इन्हे सुनने का मन किया तो मुझे पता रहेगा कि ये कहाँ हैं..'
'..ओके..' शांति अटपटा के बोली।

शांति जब अपना नाम दर्ज़ कर रही थी, आत्माराम जी ने कैसेट्स के भीतर एक मोहर मार दी- जिस में उनके नाम व नम्बर के अलावा सप्रेम भेंट भी छपा हुआ था। शांति को लगा कि वो किसी लेण्डिंग लाइब्रेरी में चली आई है।
'मैं यह ले लूँ अंकल?' अचरज एक पुराना ध्वस्त सा एलबम हाथ में लेके खड़ा था।
'अरे ये.. ये तो मेरा स्टैम्प कलेक्शन है..' आत्माराम जी ने विकलता से कहा।
'ले लो बेटा ले लो.. इनके किसी काम का नहीं.. ले जाओ!', सुमित्रा जी ने साधिकार कहा तो अचरज की बाँछे खिल गई। लगभग अनमने से आत्माराम जी ने अपने रजिस्टर में उस एलबम के आगे अचरज का नाम दर्ज़ कर लिया। उनके घर से निकल कर अचरज काफ़ी प्रसन्न था। वो एलबम लेके सीधे घर जाने के बजाय घास में खेल रहे अपने दोस्तों के बीच दौड़ गया और उत्साह से उन्हे अपनी नई निधि दिखाने लगा।
**
तीन दिन बाद। शाम को जब शांति घर से लौटकर साँस ले रही थी तो अचानक आत्माराम जी चले आए.. कहने लगे- 'पंकज मलिक सुनने का मन कर रहा था..'
शांति और कर ही क्या सकती थी.. उनका कैसेट था.. उन्होने दिया था.. वही माँग रहे हैं.. कोई कैसे ना कर सकता है.. देना ही पड़ेगा। शांति ने चुपचाप ला के दोनों कैसेट उन्हे थमा दिए। शांति को उम्मीद थी कि वे सी एच आत्मा के कैसेट को लौटा देंगे.. पर वे कुछ नहीं बोले। हाथ में दोनों कैसेट थामे-थामे उन्होने पूछा- 'अचरज नहीं दिख रहा.. ?'
'वो अपने एक दोस्त को आपका एलबम दिखाने गया..',  शांति की उम्मीद फिर ग़लत साबित हुई- उसने सोचा था कि वे ख़ुश होंगे पर वे तो विकल हो गए।
'दोस्तों को.. ? वो स्टैम्प्स बाँट तो नहीं रहा न.. '
'पता नहीं.. मैंने पूछा नहीं.. '
'नहीं.. उसमें कुछ स्टैम्प्स हैं जो मैं अपने पोते को देना चाहता हूँ.. बहुत दुर्लभ स्टैम्प्स हैं.. '
उनके बेचैनी देखकर शांति को कहना ही पड़ा कि अचरज के आते ही वो उसे एलबम के साथ उनके घर भेज देगी। इस आश्वासन के बाद आत्माराम जी अपनी बूढ़ी काया को लिए-लिए सीढ़ियाँ उतर गए।

लौटकर आने पर अचरज ने बहुत हाथ-पैर फेंके कि एक बार दे दिए जाने के बाद वो एलबम उसका हो चुका है पर शांति ने उसे डाँटकर चुप करा दिया। अगले दिन अचरज को भारी मन से उस सप्रेम भेंट को भी उनके घर पहुँचाना पड़ा। उसके नन्हे हाथों के मुक़ाबले एलबम पर आत्माराम जी की पकड़ अधिक बलवती थी।

***

(इस इतवार को दैनिक भास्कर में शाया हुई) 


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