- मेरी रचनाएं मेरे बाद सब को सम्बोधित हैं पर सब सुनें, यह ज़रूरी नहीं।
- लिखने के कर्म से जो जुड़े हुए हैं वे अपने थोड़े से दायरे में जनता के सुनसान में होते हैं।
- जब लिखा हुआ सुनसान में है तो लेखक भी है।
- हम रचना में भाषा से अन्तर्निहित में जाते हैं। भाषा एक दूरी होती है, अर्थ के पहुँचने तक की यह दूरी पार करनी होती है।
- लगातार जटिल होते संसार में कविता बार-बार अधिकतम अभिव्यक्त होती रहेगी। कविता अत्यन्त बौद्धिक, अत्यन्त अभिव्यक्ति के लिए होगी। अत्यन्त बौद्धिक होना अभिव्यक्ति की एक सरलता होगी।
- अपनी लिपि में भाषा सुरक्षित रहती है, लिपि भाषा के लिए क़िले की तरह है।
- जब भाषा नहीं थी, तब भी अभिव्यक्ति थी। परन्तु अभिव्यक्ति का स्थायित्व नहीं था जो लिखे जाने से बनता है।
- उपन्यास कविता की देर तक की चहलक़दमी है। और एक दस क़दम की कविता भी देर तक की चहलक़दमी होती है।
- दूसरो की उँगली पकड़कर रचना के समीप उतना नहीं पहुँचा जा सकता, पर आलोचक की उँगली पकड़कर रचना से दूर जाया जा सकता है।
- आलोचना का कोलाहल जनता का कोलाहल नहीं है।
- रचना पाठक की शर्त पर नहीं होती, रचना की शर्त पर पाठक होते हैं।
- यथार्थ सुख देता है तो स्वप्न जैसा और दुख देता है तो यथार्थ जैसा।
- अगर यथार्थ का एक यथार्थ है तो दूसरा यथार्थ कल्पना का भी है।
(कथादेश, अक्तूबर २०१० के अंक में प्रकाशित उनके साक्षात्कार से निकाले कुछ सूत्र) (रेखाचित्र: प्रमोद सिंह)
10 टिप्पणियां:
* दूसरो की उँगली पकड़कर रचना के समीप उतना नहीं पहुँचा जा सकता, पर आलोचक की उँगली पकड़कर रचना से दूर जाया जा सकता है।
* आलोचना का कोलाहल जनता का कोलाहल नहीं है।
ऐसे उद्धरण पढ़ कर आज मज़ा आ गया। सारे ही उद्धरण अच्छे हैं। आपका आभार यहाँ प्रस्तुत करने के लिए।
कल पढ़ी उनकी पोस्ट, यह भी प्रेरणास्पद है. शुक्रिया
फरीद खान जी वाली पंक्तियां ही कोट कर रही हूं -
दूसरो की उँगली पकड़कर रचना के समीप उतना नहीं पहुँचा जा सकता, पर आलोचक की उँगली पकड़कर रचना से दूर जाया जा सकता है।
आलोचना का कोलाहल जनता का कोलाहल नहीं है।
हिंदी के समस्त स्वनामधन्य आलोचकों के लिए सस्नेह।
जब भाषा नहीं थी, तब भी अभिव्यक्ति थी। परन्तु अभिव्यक्ति का स्थायित्व नहीं था जो लिखे जाने से बनता है।
. रचना पाठक की शर्त पर नहीं होती, रचना की शर्त पर पाठक होते हैं।
इन तथ्यों ने सर्वाधिक प्रभावित किया...
दूसरो की उँगली पकड़कर रचना के समीप उतना नहीं पहुँचा जा सकता, पर आलोचक की उँगली पकड़कर रचना से दूर जाया जा सकता है।
सत्य है लेकिन इमानदार आलोचक आज कल कहां मिलते हैं और अगर कोई आ जाए तो लोग कहां पसंद करते हैं
सारे वाक्य सार्थक चिन्तन से उपजे हैं।
विनोद जी जितने बड़े कवि हैं उतने ही बड़े उपन्यासकार हैं और उतने ही बड़े इंसान भी हैं. इतनी सरलता से मिलते हैं की यकीं नहीं होता ये इतने बड़े साहित्यकार हैं. लेश मात्र भी अहंकार और गुरुर नहीं... कोलाहल और आयोजनों से दूर रहकर खामोशी से रचना कर्म में लीन रहते हैं. इसीलिए वे अलग हैं औरो से.
बहुत ही सारगर्भित वाक्य छांटे हैं आपने उनके. बधाई आपको भी.
बहुत मेहनत से आपने यह काम किया है । हम लोग जब भी विनोद जी के साथ होते हैं वे ऐसा ही कुछ कह्ते रहते है पर हम उन्हे दर्ज नही कर पाते ।
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