tag:blogger.com,1999:blog-3447425639729337005.post5376690068172049913..comments2023-10-27T15:06:34.550+05:30Comments on निर्मल-आनन्द: विनोद कुमार शुक्ल : कुछ अनमोल वचनअभय तिवारीhttp://www.blogger.com/profile/05954884020242766837noreply@blogger.comBlogger10125tag:blogger.com,1999:blog-3447425639729337005.post-2905485309085528192010-11-18T19:57:30.371+05:302010-11-18T19:57:30.371+05:30बहुत मेहनत से आपने यह काम किया है । हम लोग जब भी व...बहुत मेहनत से आपने यह काम किया है । हम लोग जब भी विनोद जी के साथ होते हैं वे ऐसा ही कुछ कह्ते रहते है पर हम उन्हे दर्ज नही कर पाते ।शरद कोकासhttps://www.blogger.com/profile/09435360513561915427noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3447425639729337005.post-73646875385406170322010-10-29T20:25:03.868+05:302010-10-29T20:25:03.868+05:30विनोद जी जितने बड़े कवि हैं उतने ही बड़े उपन्यासका...विनोद जी जितने बड़े कवि हैं उतने ही बड़े उपन्यासकार हैं और उतने ही बड़े इंसान भी हैं. इतनी सरलता से मिलते हैं की यकीं नहीं होता ये इतने बड़े साहित्यकार हैं. लेश मात्र भी अहंकार और गुरुर नहीं... कोलाहल और आयोजनों से दूर रहकर खामोशी से रचना कर्म में लीन रहते हैं. इसीलिए वे अलग हैं औरो से. <br />बहुत ही सारगर्भित वाक्य छांटे हैं आपने उनके. बधाई आपको भी.सोमेश सक्सेना https://www.blogger.com/profile/02334498143436997924noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3447425639729337005.post-17402055286714638192010-10-29T20:23:44.963+05:302010-10-29T20:23:44.963+05:30इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.सोमेश सक्सेना https://www.blogger.com/profile/02334498143436997924noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3447425639729337005.post-92016037433136080332010-10-28T21:59:26.488+05:302010-10-28T21:59:26.488+05:30सारे वाक्य सार्थक चिन्तन से उपजे हैं।सारे वाक्य सार्थक चिन्तन से उपजे हैं।प्रवीण पाण्डेयhttps://www.blogger.com/profile/10471375466909386690noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3447425639729337005.post-5161396766344369602010-10-27T17:52:30.363+05:302010-10-27T17:52:30.363+05:30दूसरो की उँगली पकड़कर रचना के समीप उतना नहीं पहुँचा...दूसरो की उँगली पकड़कर रचना के समीप उतना नहीं पहुँचा जा सकता, पर आलोचक की उँगली पकड़कर रचना से दूर जाया जा सकता है।<br /><br />सत्य है लेकिन इमानदार आलोचक आज कल कहां मिलते हैं और अगर कोई आ जाए तो लोग कहां पसंद करते हैंS.M.Masoomhttps://www.blogger.com/profile/00229817373609457341noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3447425639729337005.post-27343331545083364842010-10-27T17:51:09.969+05:302010-10-27T17:51:09.969+05:30इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.S.M.Masoomhttps://www.blogger.com/profile/00229817373609457341noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3447425639729337005.post-81530149829222833402010-10-27T17:16:10.315+05:302010-10-27T17:16:10.315+05:30जब भाषा नहीं थी, तब भी अभिव्यक्ति थी। परन्तु अभिव्...जब भाषा नहीं थी, तब भी अभिव्यक्ति थी। परन्तु अभिव्यक्ति का स्थायित्व नहीं था जो लिखे जाने से बनता है। <br />. रचना पाठक की शर्त पर नहीं होती, रचना की शर्त पर पाठक होते हैं। <br /><br /><br /><br />इन तथ्यों ने सर्वाधिक प्रभावित किया...रंजनाhttps://www.blogger.com/profile/01215091193936901460noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3447425639729337005.post-47528882007255154262010-10-27T13:28:04.338+05:302010-10-27T13:28:04.338+05:30फरीद खान जी वाली पंक्तियां ही कोट कर रही हूं -
द...फरीद खान जी वाली पंक्तियां ही कोट कर रही हूं - <br /><br />दूसरो की उँगली पकड़कर रचना के समीप उतना नहीं पहुँचा जा सकता, पर आलोचक की उँगली पकड़कर रचना से दूर जाया जा सकता है। <br /><br />आलोचना का कोलाहल जनता का कोलाहल नहीं है।<br /><br />हिंदी के समस्त स्वनामधन्य आलोचकों के लिए सस्नेह।मनीषा पांडेhttps://www.blogger.com/profile/01771275949371202944noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3447425639729337005.post-43080115016471036792010-10-27T11:54:28.377+05:302010-10-27T11:54:28.377+05:30कल पढ़ी उनकी पोस्ट, यह भी प्रेरणास्पद है. शुक्रिया...कल पढ़ी उनकी पोस्ट, यह भी प्रेरणास्पद है. शुक्रियासागरhttps://www.blogger.com/profile/13742050198890044426noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3447425639729337005.post-50118751442116602932010-10-27T11:53:07.019+05:302010-10-27T11:53:07.019+05:30* दूसरो की उँगली पकड़कर रचना के समीप उतना नहीं पहुँ...* दूसरो की उँगली पकड़कर रचना के समीप उतना नहीं पहुँचा जा सकता, पर आलोचक की उँगली पकड़कर रचना से दूर जाया जा सकता है।<br /><br />* आलोचना का कोलाहल जनता का कोलाहल नहीं है।<br /><br />ऐसे उद्धरण पढ़ कर आज मज़ा आ गया। सारे ही उद्धरण अच्छे हैं। आपका आभार यहाँ प्रस्तुत करने के लिए।Farid Khanhttps://www.blogger.com/profile/04571533183189792862noreply@blogger.com