बुधवार, 28 जुलाई 2010

मुक्तिबोध की 'भूल-ग़लती'

7 टिप्‍पणियां:

डॉ .अनुराग ने कहा…

चलिये इस बहाने आपकी आवाज भी सुन ली...वैसे पंखा धीरे धीरे बंद हुआ है....

सागर ने कहा…

मुक्तिबोध को पढ़ना बहुत सारी जटिलताओं से गुजरना है और मुझे लगता है हम उन्हें लगातार नहीं पढ़ सकते, कुछ मामले में अज्ञेय को भी इसी श्रेणी में लेता हूँ, कुछ पढ़ना फिर देर तक सोचना, मुक्तिबोध बहुत दुरूह लगते हैं कहीं कहीं, पकड़ में नहीं आते, उनको समझने के लिए खासी परिपक्वता की जरुरत है. आपकी जबान काफी साफ़ है. और इसे पेश करने का शुक्रिया.

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

बड़ी अच्छी कविता और सुन्दर पाठ।

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

बड़ी अच्छी कविता और सुन्दर पाठ।

Udan Tashtari ने कहा…

अच्छा लगा सुनकर.

अभय तिवारी ने कहा…

आप सब का शुक्रिया!
डा० साहब, याने के आप ने सब ग़ौर से देखा.. :)

शरद कोकास ने कहा…

अभय , मैं कभी कभार आपके ब्लॉग पर आता हूँ । आज मुक्तिबोध की इस कविता के बहाने आया । मुक्तिबोध की यह कविता उनकी अन्य कविताओं से इस मायने मे अलग है कि इसमें जो ध्वनि है वह अपने देश काल से बाहर जाकर ध्वनित होती है । इसका चयन आपने पाठ के लिये किया इस बात से मै प्रसन्न था ।और यह पाठ सुनकर वह प्रसन्नता स्थायी हो गई ।

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