खाड़ी देशों में सुनते हैं कि रमजान के महीने में गैर इस्लामी लोगों पर भी कई तरह की बंदिशें वहां की सरकार लगाती है, हो सकता है सब जगह ऐसा न हो लेकिन भुक्तभोगियों के मुंह से सुन रखी हैं ऐसी बातें तो सच्चाई से इंकार नहीं कर सकते। दिक्कत सिर्फ़ ये है कि कहीं पर हम बंदिशें लगाने वाले हैं और कहीं पर बंदिशें झेलने वाले, इतनी बात से ही प्रतिक्रियायें बदल जाती हैं।
मैं सकीर्णता के विरोध में हूँ। मेरे परिवार में भी, और मेरे आस पास मुस्लिम परिवारों में भी 'बुर्क़ा' चलन में नहीं है। लेकिन मैं कपड़ों के मामले में व्यक्तिगत आज़ादी का हिमायती हूँ। जिस तरह से मेरे परिवार की औरतों की व्यक्तिगत आज़ादी है कि वे बुर्क़ा न पहनें उसी तरह से किसी की यह आज़ादी हो सकती है, कि वे बुर्क़ा पहनें। इसके पक्ष और विपक्ष में बहस के लिए भी आप आज़ाद हैं पर क़ानून बनाने से चीज़ें गड़बड़ होने लगती हैं। मैं अपने तर्क के पक्ष में एक उदाहरण देना चाहूंगा।
मैं जब पुणे गया तो देखा कि वहाँ की जितनी लड़कियाँ स्कूटी चलाती थीं वे सब की सब अपने चेहरे और शरीर को बुर्क़े की तरह ही कपड़ों से ढँक रखा था। वे लड़कियाँ मुस्लिम भी नहीं थीं। यह उनका फ़ैशन है। और फ़ैशन पूरी तरह से मनोवैज्ञानिक होता है। उतना ही मनोवैज्ञानिक जितना "धर्म की ज़रूरत" मनोवैज्ञानिक है।
'फ़्रांस की सरकार' के फ़ैसले, 'बजरंग दल' के लड़कियों को लेकर 'ड्रेस कोड' के फ़ैसले, और 'तालिबानियों' के "ज़बर्दस्ती बुर्क़ा लादने" के फ़ैसले में फ़र्क़ तो होना ही चाहिए।
इन सब से अलग बहस तो इस बात पर होनी चाहिए कि व्यक्तिगत आज़ादी कितनी होनी चाहिए और कहाँ ख़त्म होनी चाहिए।
पुणे वाली लड़कियों को देखकर मैं भी हैरान रह गया था, फिर देखा कि उत्तर भारत में भी यह फ़ैशन ख़ूब चल निकला है। बुर्क़ा कोई पहने या न पहने ये तो निजी चुनाव का मामला है। लेकिन मुस्लिम परिवारों में यह अकसर निजी चुनाव का मामला नहीं है। एक सामाजिक दबाव का प्रश्न बन जाता है। इसे आप कुरीति कह सकते हैं। कई हिन्दू स्त्रियां स्वेच्छा से सती होती थीं, लेकिन फिर भी यह थी कुरीति ही। एक के होने से और दूसरे के न होने से, दूसरे के सतीत्व पर सवाल खड़ा होता था। स्वेच्छा, हमेशा स्वेच्छा होती नहीं।
लेकिन उस के लिए क़ानून बनाना जाय, ये थोड़ी चरम बात है। मुझे नहीं लगता कि हमारे देश में कभी ऐसा अवसर उपस्थित होगा। अब तो ज़ाक़िर नाईक भी, यूके और कैनाडा के अनुभव के बाद, कहने लगे हैं कि भारत में लाख ख़राबी मगर यहाँ बड़ी आज़ादी है।
लेकिन अगर कोई यह समझता है कि फ़्रांस की सरकार अपने इस फ़ैसले से बंजरंगियों और तालिबानियों की जमात में शामिल हो गई है, तो यह ठीक समझ नहीं है। जिनके पास उदार मूल्य हैं उनसे ये उम्मीद की जाती है कि वे उन्हे उदार नीति के साथ लागू करें। और जिन के संकीर्ण मूल्य हैं उनसे हम उम्मीद करते हैं कि वे हिंसा व दमन से उसे लागू करेंगे। बात तार्किक है। लेकिन इस तरह से उदार मूल्य बने कैसे रह सकेंगे? क्या उदार मूल्यों को अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए क़ानूनादि बनाने का हक़ नहीं है? मेरे पास इसका जवाब नहीं है, इस पर सोचने की ज़रूरत है।
भई अगर व्यक्ति को अधिकार है अपनी आज़ादी का इस्तेमाल करने का, तो राज्य को कुछ अधिकार है कि नहीं बहुमत के आधार पर क़ानून की पेशकश करने का? वैसे भी अभी क़ानून बना नहीं है। व्यक्ति की इस आज़ादी का ख़्याल भी इसी फ़्रांसीसी भूमि से निकला था। उसको तालिबानी और बजरंगी बताने के पहले और सोचा जाय!
एक व्यक्ति स्वेच्छा से हेरोइन पीना चाहता है, कोकेन और अफ़ीम पीना चाहता है, मगर राज्य उसे नहीं पीने देता। राज्य द्वारा व्यक्ति की इस आज़ादी का हनन होता है, मगर हम इसका विरोध नहीं करते। कुछ लोग कर भी सकते हैं, मैं नहीं करता। मुझे ठीक-ठीक नहीं मालूम कि इस मसले पर सही नीति पूरी आज़ादी होगी या बन्दिश? लेकिन अगरचे हेरोइन के लती सरकार के हेरोइन पर बन्दिश लगाने के फ़ैसले का विरोध कर रहे हों तो मैं किसी भी तरह हेरोइन पीने के 'उनके जन्मसिद्ध अधिकार' के पक्ष में और 'व्यक्ति की स्वतंत्रता का दमन करने वाले' राज्य के विपक्ष में नारे नहीं लगा सकता।
7 टिप्पणियां:
सही कह रहे हैं बुरका यदि आजादी है तो बंधन क्या है ?
बडा मुश्किल इस मुद्दे पर राय कायम कर पाना लेकिन जिस तरह से फ़्रांस की सरकार ने ये फ़ैसला लिया है हम उसका विरोध करते हैं।
खाड़ी देशों में सुनते हैं कि रमजान के महीने में गैर इस्लामी लोगों पर भी कई तरह की बंदिशें वहां की सरकार लगाती है, हो सकता है सब जगह ऐसा न हो लेकिन भुक्तभोगियों के मुंह से सुन रखी हैं ऐसी बातें तो सच्चाई से इंकार नहीं कर सकते।
दिक्कत सिर्फ़ ये है कि कहीं पर हम बंदिशें लगाने वाले हैं और कहीं पर बंदिशें झेलने वाले, इतनी बात से ही प्रतिक्रियायें बदल जाती हैं।
मैं सकीर्णता के विरोध में हूँ। मेरे परिवार में भी, और मेरे आस पास मुस्लिम परिवारों में भी 'बुर्क़ा' चलन में नहीं है। लेकिन मैं कपड़ों के मामले में व्यक्तिगत आज़ादी का हिमायती हूँ। जिस तरह से मेरे परिवार की औरतों की व्यक्तिगत आज़ादी है कि वे बुर्क़ा न पहनें उसी तरह से किसी की यह आज़ादी हो सकती है, कि वे बुर्क़ा पहनें। इसके पक्ष और विपक्ष में बहस के लिए भी आप आज़ाद हैं पर क़ानून बनाने से चीज़ें गड़बड़ होने लगती हैं। मैं अपने तर्क के पक्ष में एक उदाहरण देना चाहूंगा।
मैं जब पुणे गया तो देखा कि वहाँ की जितनी लड़कियाँ स्कूटी चलाती थीं वे सब की सब अपने चेहरे और शरीर को बुर्क़े की तरह ही कपड़ों से ढँक रखा था। वे लड़कियाँ मुस्लिम भी नहीं थीं। यह उनका फ़ैशन है। और फ़ैशन पूरी तरह से मनोवैज्ञानिक होता है। उतना ही मनोवैज्ञानिक जितना "धर्म की ज़रूरत" मनोवैज्ञानिक है।
'फ़्रांस की सरकार' के फ़ैसले, 'बजरंग दल' के लड़कियों को लेकर 'ड्रेस कोड' के फ़ैसले, और 'तालिबानियों' के "ज़बर्दस्ती बुर्क़ा लादने" के फ़ैसले में फ़र्क़ तो होना ही चाहिए।
इन सब से अलग बहस तो इस बात पर होनी चाहिए कि व्यक्तिगत आज़ादी कितनी होनी चाहिए और कहाँ ख़त्म होनी चाहिए।
पुणे वाली लड़कियों को देखकर मैं भी हैरान रह गया था, फिर देखा कि उत्तर भारत में भी यह फ़ैशन ख़ूब चल निकला है। बुर्क़ा कोई पहने या न पहने ये तो निजी चुनाव का मामला है। लेकिन मुस्लिम परिवारों में यह अकसर निजी चुनाव का मामला नहीं है। एक सामाजिक दबाव का प्रश्न बन जाता है। इसे आप कुरीति कह सकते हैं। कई हिन्दू स्त्रियां स्वेच्छा से सती होती थीं, लेकिन फिर भी यह थी कुरीति ही। एक के होने से और दूसरे के न होने से, दूसरे के सतीत्व पर सवाल खड़ा होता था। स्वेच्छा, हमेशा स्वेच्छा होती नहीं।
लेकिन उस के लिए क़ानून बनाना जाय, ये थोड़ी चरम बात है। मुझे नहीं लगता कि हमारे देश में कभी ऐसा अवसर उपस्थित होगा। अब तो ज़ाक़िर नाईक भी, यूके और कैनाडा के अनुभव के बाद, कहने लगे हैं कि भारत में लाख ख़राबी मगर यहाँ बड़ी आज़ादी है।
लेकिन अगर कोई यह समझता है कि फ़्रांस की सरकार अपने इस फ़ैसले से बंजरंगियों और तालिबानियों की जमात में शामिल हो गई है, तो यह ठीक समझ नहीं है। जिनके पास उदार मूल्य हैं उनसे ये उम्मीद की जाती है कि वे उन्हे उदार नीति के साथ लागू करें। और जिन के संकीर्ण मूल्य हैं उनसे हम उम्मीद करते हैं कि वे हिंसा व दमन से उसे लागू करेंगे। बात तार्किक है। लेकिन इस तरह से उदार मूल्य बने कैसे रह सकेंगे? क्या उदार मूल्यों को अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए क़ानूनादि बनाने का हक़ नहीं है? मेरे पास इसका जवाब नहीं है, इस पर सोचने की ज़रूरत है।
भई अगर व्यक्ति को अधिकार है अपनी आज़ादी का इस्तेमाल करने का, तो राज्य को कुछ अधिकार है कि नहीं बहुमत के आधार पर क़ानून की पेशकश करने का? वैसे भी अभी क़ानून बना नहीं है। व्यक्ति की इस आज़ादी का ख़्याल भी इसी फ़्रांसीसी भूमि से निकला था। उसको तालिबानी और बजरंगी बताने के पहले और सोचा जाय!
एक व्यक्ति स्वेच्छा से हेरोइन पीना चाहता है, कोकेन और अफ़ीम पीना चाहता है, मगर राज्य उसे नहीं पीने देता। राज्य द्वारा व्यक्ति की इस आज़ादी का हनन होता है, मगर हम इसका विरोध नहीं करते। कुछ लोग कर भी सकते हैं, मैं नहीं करता। मुझे ठीक-ठीक नहीं मालूम कि इस मसले पर सही नीति पूरी आज़ादी होगी या बन्दिश? लेकिन अगरचे हेरोइन के लती सरकार के हेरोइन पर बन्दिश लगाने के फ़ैसले का विरोध कर रहे हों तो मैं किसी भी तरह हेरोइन पीने के 'उनके जन्मसिद्ध अधिकार' के पक्ष में और 'व्यक्ति की स्वतंत्रता का दमन करने वाले' राज्य के विपक्ष में नारे नहीं लगा सकता।
vyaktigat aazadi ki baat sahi kahi.
बुर्का पहन ना मुस्लिम समुदाय मैं हुक्म इ खुदा है. यहाँ मैं बात साफ़ कर दूं..जिस्म को, बालों को छिपाना कुरान की हिदायत है. काला चोगा दस्तूर.
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