आज कल क्रिकेट का बुख़ार हलका है और फ़ुटबाल का नश्शा अपने उरूज़ पर है। हैं तो दोनों खेल ही, और दोनों के समकालीन स्वरूप का जन्म भी एक ही जगह -इंगलिस्तान में हुआ मगर क्रिकेट जहाँ दुनिया के सबसे जटिल खेलों में गिना जा सकता है वहीं फ़ुटबाल बड़ा ही प्राथमिक क़िस्म का खेल है। ये कहना ग़लत नहीं होगा कि फ़ुटबाल पाशविक बल पर आधारित एक क़बीलाई खेल है और क्रिकेट तमाम वर्जनाओ से युक्त नागरी क्रीडा।
इसके पहले कि मैं अपनी बात के एक और स्तर को उघाड़ूँ, यह साफ़ कर दूँ कि खेल से मेरी मुराद क्या है? मेरा मानना यह है कि लगभग सभी खेल हमारी मौलिक वृत्तियों के विस्थापन हैं। इसका बहुत मोटा उदाहरण यह है कि विभाजन के अनसुलझे मुद्दों को, असली युद्ध के मैदान में हल करने के बजाय, भारत व पाकिस्तान अपनी प्रतिद्वन्दिता को एक ऐसे क्रिकेट मैच के दौरान, जिसका उस मामले से कोई लेना-देना नहीं है, भावनाओं के उबाल में बहा डालते हैं और कुछ देर के लिए उस पीड़ा से मुक्त हो जाते हैं, तात्कालिक राहत महसूस करते हैं। इस को आप स्खलन का सुख कह सकते हैं। ये मूल समस्या को सुलझाता नहीं बस उस को एक दूसरी संरचना में विस्थापित कर देता है। आदमी की सिगरेटादि लत भी इसी तरह का एक विस्थापन है जो विस्थापन के रस्ते एक तात्कालिक सुख देती हैं।
अब फ़ुटबाल पर वापस आते हैं। फ़ुटबाल कितना सरल खेल है वो इसके नियमों से समझें- कुल जमा तीन-चार नियम हैं इस खेल में। दो दल हैं, दो गोल हैं, एक गेंद हैं, पैर से ही खेलना है हाथ से नहीं, मार-पीट नहीं करनी है। और एक जटिल नियम है औफ़साइड का- गोल और आक्रामक खिलाड़ी के बीच सुरक्षात्मक दल के दो खिलाड़ी होने आवश्यक हैं। इन नियमों की सरलता तब समझ आती है जब आप क्रिकेट के नियमों की सोचिये!
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असल में फ़ुटबाल समेत दुनिया के सभी गोल-प्रधान खेलों का आधार शुद्ध सेक्स है। ये सारे खेल गर्भाधान का विस्थापन हैं। कैसे? गोल ओवम/डिम्ब है और खिलाड़ी स्पर्म/शुक्राणु। पूरी गतिविधि का उद्देश्य डी एन ए पैकेट को ओवम तक पहुँचाना है। यौन क्रिया में करोड़ों की संख्या में शुक्राणु होते हैं, यहाँ इस खेल में ग्यारह/आठ. छै/ पाँच हैं। यौन क्रिया में एक ही ओवम होता है यहाँ दो विरोधी दलों के लिए दो अलग-अलग ओवम हैं मगर डी एन ए पैकेट के रूप में मौजूद गेंद एक ही है। असल में यह क़बीलाई समाज में रहने वाले मनुष्य के भीतर की संजीवन-वृत्ति की विस्थापित अभिव्यक्ति है। जिसमें एक दल का अस्तित्व दूसरे दल के अस्तित्व का साथ लगातार टकरा रहा है, और दोनों अस्तित्व की इस लड़ाई में एक-दूसरे को मात दे देना चाहते हैं।
अंग्रेज़ी में इन खेलों के लिए बड़ा अच्छा शब्द है रिक्रिएशन, देखिये क्रिएशन की यौन क्रिया से सम्बन्ध इसमें साफ़ झलक रहा है। ये एक ऐसे समाज के शग़ल हैं जो अपनी मौलिक गतिविधि से दूर आकर ऐसी बातों में उलझ चुका है जिसका जीवन के मूल तत्व से बहुत सम्बन्ध नहीं बचा है। मगर समाज यौन-प्रतिस्पर्धा की खुली छूट नहीं दे सकता, वासना और हिंसा का ताण्डव खड़ा हो जाएगा। इसलिए इस तरह के विस्थापन ईजाद किए गए हैं।
यौन क्रिया का सब से सीधा विस्थापन एथलेटिक्स में दिखता है। शुक्राणुओं की तरह सारे धावक दौड़े जा रहे हैं, जीतने वाले को ईनाम मिलेगा- शरीर की नश्वरता के पार जीवन को क़ायम रखने का ईनाम। कार रेस में जीतने वाले, इस खेल के मूल में छिपी यौन क्रिया को तब साफ़ उजागर कर देते हैं जब वे बोतल हिला कर उस में झागदार शैम्पेन को बहाते हैं। फ़ील्ड एण्ड ट्रैक के सारे ईवेन्ट्स शुक्राणुओं के बीच होने वाली दौड़ का ही स्थानापन्न हैं।
फ़ील्ड व ट्रैक ईवेन्ट्स जिसमें लक्ष्य एक ही है जब कि प्रतियोगी अनेक, मनुष्य समाज की तब की अभिव्यक्ति है जब मातृसत्ता प्रबल थी लेकिन फ़ुटबाल और उसके जैसे दूसरे बाल-गेम्स शुक्राणुओं के बीच की दौड़ नहीं, मनुष्य समाज की थोड़ी विकसित यौन अभिव्यक्ति हैं जब कि पितृसत्ता ने क़बीलों का रूप ले लिया था। मातृत्व को कमज़ोरी बना कर पुरुष ने उसकी रक्षा का दायित्व अपने ऊपर ले लिया ताकि अपनी मादाओं को बचाकर और दूसरे क़बीलों की मादाओं का गर्भाधान कर के वह अपने जीन कोड को आगे बढ़ा सके। पूरा मध्यकालिक इतिहास निरन्तर युद्ध और फिर बलात्कार का अनुष्ठान भर है जैसे।
मनुष्य के विकास की क़बीलाई अवस्था ने औरत का भयंकर दमन किया है लेकिन प्राकृतिक मानकों की दृष्टि से मातृ शक्ति, नर शक्ति से कितनी प्रबल रही है इसे देखिये कीट जगत में, लगभग सभी कीड़ों में मादा समाज के केन्द्र में और नर से कई गुना बड़ी होती है। इसी का एक दूसरा रूप ओवम और स्पर्म की तुलना में देखिये। शुक्राणु अनेक हैं और ओवम एक है और आकार में शुक्राणु से कई गुना बड़ा है।
क्रिकेट बालगेम नहीं है। बाल इसमें है ज़रूर लेकिन वह किसी गोल में नहीं डाली जानी है। यह खेलों के इतिहास में एक क्रांतिकारी मोड़ है। गोल की जगह विकेट आ गया है। विकेट कीपर- जो गोलकीपर समझा जाना चाहिये- वो विकेट के पीछे खड़ा होता है आगे नहीं। क्यों? क्योंकि असली गोली, विकेटकीपर नहीं बल्कि बल्लेबाज़ है, वो ही है जो विकेट की रक्षा कर रहा है। और सिर्फ़ रक्षा ही नहीं कर रहा बल्कि आक्रमण भी कर रहा है। जितनी बार वो आक्रामक गेंद को प्रति-आक्रमण के ज़रिये आक्रामक दल की पहुँच से बाहर फेकं देता है, उतनी दफ़े उसे मिलता है असली लाभ का वो अवसर जो हार-जीत का फ़ैसला करेगा। ये लाभ विपक्षी दल के क़ब्ज़े में गेंद वापस आने के बीच लगाई गई दौड़ो में नापा जाता हैं।
उफ़! इसके दुर्बोध नियमों की शुरुआत किए बिना ही यह कितना जटिल मालूम दे रहा है। शायद इसीलिए बहुत सारे लोगों को, ख़ासकर घर की महिलाओं को, ये खेल सहज ही समझ नहीं आता। जैसे लम्बे समय तक देखते रहने के बावजूद आज भी मैं बेसबाल ठीक-ठीक नहीं समझता। जबकि रग्बी समझने में कोई मुश्किल नहीं होती। उन दोनों के बीच भी मोटे तौर पर वही अन्तर हैं जो फ़ुटबाल और क्रिकेट के बीच।
क्रिकेट एक बेहद जटिल, नागरी और सभ्य समाज की अभिव्यक्ति है जिसमें वर्जनाएं बहुत बढ़ गई हैं। इस खेल में सिर्फ़ गर्भाधान की वृत्ति ही नहीं झलकती, सभ्य समाज की और भी तमाम उलझी-गुलझी बातें हैं जो इस खेल के ज़रिये विस्थापन और फिर स्खलन की राहत खोजती हैं।यह सिर्फ़ संयोग नहीं है कि क्रिकेट निन्यानबे के फेर वाले पूँजीवादी समाज में किस क़दर आँकड़ो का खेल बन गया है।
विचार विलास के लिए दो अन्य खेलों के बारे में सोचिये; एक तो शतरंज जैसा खेल जिसमें कोई गोल है ही नहीं, सिर्फ़ युद्ध है, मानसिक रणनीतिक युद्ध; और दूसरा कैरम या बिलियर्डस जैसे खेल जिसमें एक नहीं चार गोल हैं और दोनों खिलाड़ी किसी भी/अपनी गोटियों को किसी भी गोल/पौकेट में डाल सकते हैं।
एक बड़ी ख़ास बात इस पूरी व्याख्या में रह जाती है कि आख़िर देखने वाले को क्या मज़ा आता है? मेरी समझ में इसमें दो बाते हैं, एक तो यह कि देखना अपने में एक तरह का विस्थापन और इसलिए मनोरंजक है, और दूसरे एक बेहद बड़े स्तर पर हम शुक्राणु की ही तरह व्यवहार करते हैं। करोड़ों शुक्राणु आपस में प्रतिस्पर्धा करते हुए लक्ष्य की ओर दौड़ते ज़रूर हैं मगर किसी एक की ही सफलता में उन सब की सफलता निहित है, ये बात वो समझते हैं। और हम भी समझते हैं जब हम अपनी टीम, अपनी जाति, अपने देश का समर्थन कर रहे होते हैं, उसकी ओर से लड़ रहे होते हैं।