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रविवार, 6 जून 2010

छविभंजक एडवर्ड सईद

एडवर्ड सईद की किताब ओरयण्टलिज़्म, प्राच्यविद्या (ओरयण्टलिज़्म) की आधुनिक व जनतांत्रिक आलोचना समझी जाती है। ऐसा बताते हैं कि इस किताब के प्रकाशन ने जमे हुए विद्वानों की पोल में से असली रंगत उजागर करने की पद्धति और साहस, नए विद्यार्थियों को दिया। उस दृष्टि से इस किताब को नवसाम्राज्यवाद को चुनौती देती हुई चेतना की प्रतिनिधि किताब माना जाता है।

सईद बड़े विद्वान है इसमें कोई शक़ नहीं; प्राच्यविद्या के इतिहास, उसके समकालीन साहित्य, और विषय से सम्बन्धित या असम्बन्धित सभी दार्शनिक और वैचारिक पद्धतियों से न सिर्फ़ वे परिचित हैं बल्कि उन पद्धतियों के भीतर मज़े से रमण करते हैं। उनमें पर्याप्त तर्क शक्ति व पाठ के भीतर मौजूद सूक्ष्मताओं को पकड़ कर बाहर खींच लाने की ख़ूब प्रवीणता है। उनका मानना है कि मध्यकाल से आधुनिक काल तक पश्चिम का नज़रिया प्राच्य के प्रति पूर्वाग्रह से भरा हुआ रहा है और प्राची के विषय में लिखे गए सभी साहित्य को उन्होने प्राच्यविद्या नाम से एक विषय के भीतर समेट दिया; एक बड़े भौगोलिक विस्तार को और उसकी अनगिनत विविधताओं और सूक्ष्मताओं को एक साथ पटक दिया; चीन से लेकर अरब तक की सभी मुख़्तलिफ़ संस्कृतियों को एक गाढ़े रंग में, एक मोटे आकार में ठूँस दिया।

पश्चिम श्रेष्ठ है, प्राची हीन है; पश्चिम और पूर्व एक दूसरे के बिलकुल विपरीत हैं; पश्चिम पौरुष से परिपूर्ण है और पूर्व स्त्रैण है, और भेदन योग्य है; पश्चिम उत्कृष्ट है, नैतिक है, बौद्धिक है, तार्किक है, जब कि पूर्व इसके उलट अक्षम है, अतार्किक है, भ्रष्ट है, वासनाओ में लिप्त है। पूर्व अपने बारे में ख़ुद आकलन करने और ख़ुदमुख़्तार होने में असमर्थ हैं, और इसीलिए ये दोनों काम पश्चिम पूर्व के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी मानकर ले लेता है, एक एहसान के जैसे। पहली प्रवृत्ति प्राच्यविद्या के बतौर विकसित होती है और दूसरी प्रवृत्ति प्राच्यविद्या को आधार बना कर पश्चिम को पूर्वी सभ्यताओं पर शासन करने का नैतिक अधिकार देती है। ये सईद साहब की मूल प्रस्थापना है और मोटे तौर पर सही भी है।

किताब की शुरुआत में सईद सहब पश्चिम में मौजूद प्राच्यविद्या के दायरे में आने वाली सभी संस्कृतियों की चर्चा करते हैं मगर बहुत जल्दी अपने सरोकारों को अरब जन और इस्लाम धर्म से जुड़े पूर्वाग्रहों तक सीमित कर लेते हैं। और अपनी तीखी नज़र से वे भाँप लेते हैं कि जहाँ पश्चिमी विद्वान भारत की आर्य भाषाओं को लेकर उत्साहित दिखते हैं और उस संस्कृति में पश्चिम के उद्धार तक की सम्भावना खोजते हैं, वहीं अरब जन और इस्लाम के प्रति उनकी नफ़रत और हिकारत है। उसका कारण सईद ये तो समझते हैं कि जिस तरह भारत ने अंग्रेज़ों के आगे समर्पण कर दिया उसके उलट अरब और इस्लाम पश्चिम के लिए एक ख़तरा बना रहा है जिसके बीज इस्लाम की आरम्भिक आक्रामक विस्तार और योरोपीय क्रूसेड्स में पाए जा सकते हैं। लेकिन सईद इस विशेष अन्तर के संदर्भ में और किताब में अन्य सन्दर्भों में भी, 'आर्य' सभ्यता और इस्लामी सभ्यता की विशिष्ट स्वभावों का ज़िक़्र करना ज़रूरी नहीं समझते। चूंकि दोनों सभ्यताएं साम्राज्यवाद का शिकार बनीं तो क्या इसलिए उनके आपसी अन्तर महत्वपूर्ण नहीं रहते? ऐसा कर के सईद साहब वही अपराध कर बैठते हैं जिस का वह पश्चिम पर आरोप लगाते हैं। पश्चिम का अपराध यह है कि वह ओरियण्ट की अन्तर्निहित सूक्ष्मताओं को नकारता है। पश्चिम से दो संस्कृतियों केर प्रति एक से व्यवहार की उम्मीद कर के सईद न सिर्फ़ उन संस्कृतियों की बल्कि पश्चिम की भी सूक्ष्मताओं को नकार देते हैं।

मंगलवार, 25 मई 2010

ऋषि मोनियर-विलियम्स


१९४८ में पुणे के डेक्कन कालेज के पोस्ट ग्रैजुएट रिसर्च सेन्टर ने एक महत्वाकांक्षी योजना अपने हाथ ली - एक वृहत संस्कृत से अंग्रेज़ी शब्दकोष तैयार करने की। मगर साठ साल बीत जाने के बाद भी वो पहले क़दम से आगे नहीं बढ़ सकी है और अभी तक 'अ' पर अटकी है; 'अ' में भी 'अप' पर हाँफ रही है। पहले अक्षर की इस यात्रा के आठ खण्ड प्रकाशित किए जा चुके हैं, इस बात से अन्दाज़ा लगाइये कि सम्पूर्ण किताब का क्या विस्तार होगा! इस कोष में संस्कृत के १५४० ग्रंथों के हवाले लिए जा रहे हैं।  वांछित स्तर के विद्वानों की कमी के चलते या अन्य कारणों से फ़िलहाल कुल दस जन इस योजना से संलग्न हैं मगर अभी न जाने कितना समय और लगेगा?

इसके मुक़ाबले में मोनियर-विलियम्स का ध्यान कीजिये जिन्होने औक्सफ़ोर्ड के संस्कृत प्रोफ़ेसर के पद पर बैठने के लिए मैक्समुलर के ऊपर तरजीह सिर्फ़ इसलिए दी गई कि कि भारत में ईसाईयत के प्रसार के लिए उनकी प्रतिबद्धता पर विभाग के अनुदाताओं को कोई शुबहा नहीं था। मोनियर-विलियम्स ने घोषणा भी कि पूर्वी सभ्यताओं के अध्ययन का उद्देश्य उनका (भारत का) धर्म परिवर्तन होना चाहिये।

उनके इस कलुषित लक्ष्य के बावजूद उनके द्वारा संपादित संस्कृत से अंग्रेज़ी शब्दकोष, संस्कृत भाषा का सबसे प्रामाणिक शब्दकोष है। यहाँ तक कि वामन राव आप्टे का बहुप्रचलित संस्कृत से हिन्दी शब्दकोष भी पूरी तरह से उसी की बुनियाद पर खड़ा हुआ है। उनके पहले संस्कृत के अपने शब्दकोषों में अमरकोष और हलायुध कोष का शब्द-विस्तार सीमित रहा है। और सबसे प्राचीन 'निघण्टु' की सिर्फ़ चर्चा आती है -भौतिक रूप से वह लुप्त हो चुका है- हमें बस यास्क द्वारा की गई उसकी टीका 'निरुक्त' मिलती है।

इस आलोक में मोनियर-विलियम्स द्वारा किया गया काम बड़ा श्रद्धा का विषय है और विलियम जोन्स, मैक्समुलर के साथ-साथ वे भी, मेरी दृष्टि में, किसी ऋषि से कम नहीं हैं।

एडवर्ड सईद भले ही उनके तथा उनके जैसे तमाम दूसरे स्कालर्स के काम को सिरे से ख़ारिज करते रहें मैं उपनिवेशवाद के साथ हर चीज़ का राजनीतिक अर्थ ही लेकर उसे साम्राज्यवाद की एक बड़ी साज़िश का हिस्सा मानने के बजाय उसकी व्यापक उपयोगिता के नज़रिये से उसके महत्व का आकलन करना बेहतर समझता हूँ।


1872 में सर्वप्रथम प्रकाशित इस शब्दकोश को भारत में 'मोतीलाल बनारसीदास' ने बड़े आकार के १३३३ पृष्ठों में छापा है। आभासी जगत में इसे आप यहाँ से इस्तेमाल कर सकते हैं।


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