बावजूद इसके कि लोकतांत्रिक राज्य अभी भी, मानवाधिकारों को अनदेखा कर के अपनी प्रजा का दमन करता है, और एक विशेष वर्ग के हित में समाज के दूसरे वर्गों के शोषण को प्रायोजित करता है, ऐतिहासिक तौर पर अब तक लोकतांत्रिक राज्य ही सबसे उदार और मानवतावादी सिद्ध हुआ है- और वो व्यवस्थाएं जो अपने को मनुष्य के विकास की आगे की अवस्थाएं मानती थीं, कहीं अधिक क्रूर और दमनकारी सिद्ध हुईं जैसे समाजवाद और साम्यवाद।
देश में चल रहे आन्दोलनों, विशेषकर कश्मीर के हुर्रियत आन्दोलन और आदिवासियों के बीच जंगल के अधिकार को लेकर माओवादियों द्वारा चलाए जा रहे आन्दोलन, के सन्दर्भ में हमें ये समझने की ज़रूरत है कि राज्य कोई व्यक्ति नहीं है कि जिसकी पकड़ संवेदना के नदी के प्रवाह में बह कर अचानक ढीली पड़ जाएगी और वो कश्मीरियों को उनकी आज़ादी ले लेने देगा और आदिवासियों को उनके जंगल। राज्य हज़ारों साल के मनुष्य के इतिहास में विकसित एक जटिल सरंचना है जो अपने अस्तित्व को विलीन नहीं होने दे सकती न अपनी विघटन को सहन कर सकती है। ऐसे ही नहीं टूट गई बर्लिन वाल; उसके टूटने की पूर्वशर्त थी एक राज्य का विघटन, जैसा कि हुआ। और ये बात बेहद बचकानी है कि कोई किसी राज्य से यह उम्मीद करे कि वो अपने क़ब्ज़े की ज़मीन छोड़ दे?
ये एक अजीब विरोधाभास है : हमारे भारत के उदारवादी भद्रजन सबसे प्रगतिशील लोग, सबसे पिछड़े जन के साथ मोर्चाबद्ध हैं। मात्र विरोध दर्ज करने के लिए? या वे सच में विश्वास करते हैं कि भविष्य का समाज यही लोग गढ़ेंगे? मैं समझ नहीं पाता कि कश्मीर में कट्टर जमाते इस्लामी के नेता सैयद अली शाह गिलानी जैसे शख्स के हाथ में यदि सत्ता आएगी तो वह किस तरह के लोकतंत्र का निर्माण करेगा? चलिए उन्हे छोड़ दें और मान लीजिये कि हुर्रियत के दूसरे धड़े मीरवाइज़ (यानी इस्लाम के उपदेशक) उमर फ़ारुख ही अगर अगुआ हुए तो?
मीर वाइज़ पेशे से एक मौलवी हैं एक ऐतिहासिक मस्जिद के मुल्ला - कुछ ऐसे समझें कि जैसे कि अपने जामा मस्जिद के शाही इमाम बुखारी साहब। जो लोग भूल गए हों वे कृपया याद कर लें कि शाही इमाम साहब ने हमारी अपनी उदार मानवतावादी नायिका शबाना आज़मी के बारे में क्या उद्गार प्रगट किए थे एन डी टी वी के एक कार्यक्रम पर। हो सकता है कि व्यक्तिगत रूप से मीरवाइज़ बेहद उदार और भले हों पर जिस विचारधारा के वे प्रवक्ता हैं वो बेहद दमनकारी है।
मेरा मानना है कि कहीं न कहीं औद्योगिक विकास एक ऐसी छंछूदर बन चुका है जिसे अब सिर्फ़ निगला जा सकता है, उगला नहीं। साम्राज्यवादी शक्तियों और उनके ऐतिहासिक अन्याय से लड़ने की एक अन्य मिसाल ज़िम्बाब्वे में राबर्ट मुगाबे भी हैं –जिन्होने सौ-डेढ़ सौ साल पहले गोरों द्वारा की हुई ज़मीन की लूट का इंसाफ़ तो कर दिया मगर देश, समाज और अर्थव्यवस्था का कबाड़ा कर दिया। ज़िम्बाब्वे अब शायद एक महामारी बन चुका है।
स्वयं अपने गांधी जी भी एक रामराज्य का सपना देखते थे। उनका मानना था इस समाज की सबसे बड़ी बुराइयों में वक़ील और डॉक्टर हैं। वक़ीलों और डॉक्टरों दोनों के व्यवहार से मैं भी बहुत क्षुब्ध रहता हूँ, मगर गांधी जी के रामराज्य में दलितों की जगह को लेकर अम्बेडकर को क्या आपत्ति थी इसे नज़र अन्दाज़ नहीं किया जा सकता। उनके ग्रामीण समाज में जातीय रिश्ते सिर्फ़ सवर्णों की सहृदयता के बंधुआ होते। क्या वो हमें, उदार मानवतावादियों को स्वीकार्य है?
अगर मुझ से पूछा जाय कि मुझ किन आदर्शों में विश्वास है तो शायद मैं एक अराजकतावादी सिद्ध हो जाऊँ। जहाँ न राज्य है, न पुलिस, न क़ानून, आदमी प्रकृति के साथ एकाकार है और ‘जीवनयापन के लिए काम करना’ मानवता का अपमान है। पर क्या मैं आज के समाज में इन आदर्शों के साथ जी सकता हूँ? यदि मैं भारत सरकार से माँग करूँ कि पुलिस और क़ानून का अन्त कीजिये और उसके बाद खुद भी विलोप हो जाइये और जेन्टलमैनली मनमोहन सिंह मेरी माँग मान कर सब कुछ समाप्त कर के अपने आसाम वाले घर में पलायित कर जाएं तो क्या मेरे आदर्शों का अराजक समाज क़ायम हो जाएगा? या पलक़ झपकते ही हरियाणवी गुण्डे/ बिहारी बाहुबली/इस्लामी आतंकवादी/हिन्दू हलकट अपने-अपने शक्ति-वृत्त बना लेंगे और समाज में व्यवहारिक अराजकता क़ायम हो जाएगी। दार्शनिक अराजकता और व्यवहारिक अराजकता में ज़मीन आसमान का फ़र्क़ है।
मुझे खेद है कि इस देश में आत्महत्या कर रहे ग़रीब किसानों और अपने ही ज़मीन से बेदखल किए जा रहे आदिवासियों, और क़ानून ताक़ पर रखकर सताए जा रहे नक्सलियों के प्रति अपनी सारी चिन्ताओं के बावजूद मैं माओवादियों की हिंसा का समर्थन नहीं कर सकता। क्योंकि मुझे पूरा भरोसा है कि एक बार माओवादी लड़ाकू मानवता से द्रवित होकर अपने दुश्मन (आम सिपाही) को गोली मारने से हिचकिचा सकता है, लेकिन राज्य तंत्र की नमक-रोटी खाने वाला सिपाही ये रियायत माओवादी को नहीं बख्शेगा। मैं शायद उमर बढ़ने के साथ कुछ अधिक निराशावादी (या व्यवहारिक) हो गया हूँ और अपने उस क्रांतिकारी जोश को पूरी तरह हिरा चुका हूँ जो कि जवानी के दिनों में मुझे क्रोध और आक्रोश से भर दिया करता था- अब मुझे यक़ीन है कि माओवादियों और राज्य की इस लड़ाई में मारे आदिवासी ही जाएंगे या फिर निरीह सिपाही।
मैं नहीं जानता कि कारपोरेट पूँजीवाद और उसकी सहयोगी शक्तियों ने मिलकर ये जो भूमण्डलीकरण की महा संरचना/ महातंत्र खड़ा किया है, उसका विकल्प क्या हो सकता है? पर ये ज़रूर लगता है कि जो शक्तियाँ अभी अमरीकी नेतृत्व में इस पूँजीवादी लोकतंत्र का विरोध कर रहे हैं – इस्लामिक जड़वादी और माओवादी – वो इसका विकल्प नहीं हो सकते। ये दोनों प्रतिगामी शक्तियाँ हैं जो एक पुरातनता को बचाने की कोशिश की लड़ाई लड़ रहे हैं। इस्लाम लड़ रहा है एक मध्ययुगीन नैतिकता को बचाने के लिए- उसका विकल्प है शरई क़ानून।
और माओवादी लड़ रहे हैं आदिवासियों के जंगल पर अधिकार के लिए, कम से कम नज़र तो ऐसा ही आता है और दावा भी वो ऐसा ही करते हैं, पर उनके इरादे कुछ और हैं। वे नव-लोकतंत्र के लिए लड़ रहे हैं- माओ की एक अवधारणा न्यू डेमोक्रेसी के लिए – जो पूंजीवाद को सामन्तवाद और साम्राज्यवाद के चंगुल से आज़ाद करेगी। यह सोच माओ ने १९४० में चीन की हालात के अनुसार पेश की थी। वे पूँजीवाद (यानी उद्योग, कारखाने, खनन, बाज़ार; सब मिला कर जंगल के आदिम जीवन से पूर्ण विरोध) के विरोधी नहीं है मगर उनका मानना है कि अभी का शासक वर्ग पूँजीवाद का सही विकास करने में अक्षम है। यदि वे सत्ता में आए तो चीन की तरह खुद ही पूँजी का विकास करेंगे- चीन के मानवाधिकार हनन से कैसे बचेंगे, ये वे नहीं बताते।
पहले तो इस तरह की सोच एक नियतिवादी चिन्तन है: विकास की सारी अवस्थाएं और नमूने पहले से तय हैं अब मनुष्य को अंजाम देना है- मगर मनुष्य (उनकी समझ से) ऐसा मूढ़ है कि विकास की नमूने से भटक कर एक अलग ही रास्ता पकड़ लेता है; अपने नियन्ता के सच्चे अनुगामी होने के नाते माओवादी ये ज़िम्मेदारी अपने सर लेते हैं कि नमूने की योजना को जस का तस लागू किया जाय।
दूसरे ये कि नियन्ता माओ के द्वारा पूज्य एक पूर्वगामी नियन्ता लेनिन ने इस विषय में एक विरोधी बात कह रखी है – “कोई मार्क्सवादी यह कभी नहीं भूल सकता कि पूँजीवाद, सामन्तवाद की तुलना में प्रगतिशील है, और साम्राज्यवाद इजारेदारी के पहले की पूँजीवादी अवस्था से प्रगतिशील है। इसलिए हमें साम्राज्यवाद के खिलाफ़ हर संघर्ष का समर्थन नहीं करना चाहिये। साम्राज्यवाद के विरुद्ध प्रतिक्रियावादी शक्तियों के संघर्ष का समर्थन हम नहीं कर सकते”।
लेनिन की समझ से माओवादी प्रतिक्रियावादी साबित होते हैं। (विकास के साथ उनके विरोधाभास पर यहाँ और पढ़ें) और क्रांतिकारी भी तभी तक क्रांतिकारी रहता है जब तक सत्ता की लड़ाई जारी है, सत्ता पलटते ही वह खुद प्रतिक्रियावादी हो जाने के लिए अभिशप्त है। नेहरू जी आज़ादी मिलने के पहले तक तो नौकरशाहों की सख्त खिलाफ़त किया करते थे, मगर सत्ता हाथ में आते ही उन्होने नौकरशाहों में ही अपना सबसे बड़ा मित्र पाया। और जो क्रांतिकारी प्रतिक्रियावादी नहीं होते वे कितने बड़े मानवतावादी होते हैं इसे स्टालिन के दौर में मारे गए और माओ की सतत क्रांति के प्रयोग सांस्कृतिक क्रांति के दौरान मारे गए लाखों लोगों की मिसाल से समझना चाहिये।
निछन्दम जंगल का प्राकृतिक जीवन और शरई क़ानून की सीमाओं में रहकर एक पवित्र नैतिक जीवन दोनों ही काल्पनिक अवधारणाएं हैं और रूमानी दोष से ग्रस्त हैं। औद्योगिकीकरण और उसकी संस्कृति का पहाड़ एक ऐसा वस्तुगत सच है जिसे अनदेखा करना, शुतुरमुर्ग की तरह रेत में सर दबाना है। भविष्य का समाज इस पहाड़ के उस पार ही बन सकता है, इस पार नहीं।
औद्योगिक समाज ने हम से बहुत कुछ छीना है मगर जो हमें दिया है उसकी चर्चा करना हमारे क्रांतिकारी मित्र हमेशा भूल जाते हैं? भौतिकवाद मानता है कि मनुष्य का वस्तुजगत से एक गहरा तादात्म्य है, और वस्तुओं से भी। आज जिन-जिन वस्तुओं को हम अपने इर्द-गिर्द पाते हैं जिसने हमारा जीवन सुविधाजनक बनाया है, उन्हे हम तक लाने में पूँजीवादी बाज़ार ने जो क्रांतिकारी भूमिका निभाई है, उसे लगातार अनदेखा किया नहीं जा सकता। स्त्री अधिकार को एक मानसिक अवधारणा के जगत से निकालकर उसकी बराबरी के लिए एक वास्तविक दुनिया बनाने का काम पूँजीवाद ने ही किया है। ज्ञान को कुलीन कुटियाओं से निकालकर जनसाधारण तक पुस्तकाकार में पहुँचाने का काम क्या बाज़ार ने नहीं किया है? इन्टनेट जैसे सूचना के महामार्ग और लैपटॉप जैसे उपकरण को जनसुलभ करने का काम बाज़ार के बिना कैसे मुमकिन हो सकता था?
समस्या दुनिया भर में चल रहे बाज़ारीकरण के साथ आ रहे बदलाव से होने वाले संक्रमण की है। जैसे भारत की सरकार कृषि में आधुनिकीकरण तो चाहती है मगर ज़मीन पर हल जोत रहे किसान को आत्महत्या के पहाड़ी से नीचे धकेल कर। सरकारी तंत्र द्वारा अपने लोगों की प्रति इस संवेदनहीनता का विरोध करते हुए क्या हम उन सब के पक्ष में भी खड़े हो जाएंगे जो विरोध में हमारे साथ हैं? चूंकि वो बन्दूक लेकर अत्याचार के विरोध की लड़ाई लड़ रहे हैं क्या सिर्फ़ इसलिए उनके सपने के दुनिया खुदबखुद इस दुनिया से बेहतर हो जानी है?
उम्मीद बस यही की जा सकती है कि उनके इस आन्दोलन से आदिवासियों और नक्सली कार्यकर्ताओं के प्रति बरती जा रही निर्ममता में कमी आए और उनके साथ न्याय हो!
20 टिप्पणियां:
बहुत महत्वपूर्ण आलेख है। यह पंक्ति इस आलेख की आत्मा भी है और निष्कर्ष भी।
'भविष्य का समाज इस पहाड़ के उस पार ही बन सकता है, इस पार नहीं।'
बहुत बढिया लिखा आपने, मगर एक प्रश्न जो मुझे हमेशा ही खाता रहता है कि इतनी मेहनत कर जो हम यह सब एक साहित्यिक भाषा में जिनको समझाने के लिए लिख रहे होते है, क्या वाकई वे इसे पढ़ पाते है या फिर उनकी समझ में यह भाषा घुस पाती है ?????
अभय, आपकी बात काफी हद तक मेरी समझ में आ रही है। लेकिन एक सवाल : वो करोड़ों लोग, जो एक पूंजावादी व्यवस्था में भूख, गरीबी, बीमारी और अन्याय से भरा पशुओं से भी बदतर जीवन जीने के लिए अभिशप्त होते हैं, उन्हें एक न्यूनतम उन्नत जीवन देने के लिए बहुत से लोगों के ऐसे अधिकार, जो निश्चित रूप से रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा, स्वास्थ्य और कलात्मक विकास वगैरह के बाद बाते हैं, उन्हें मुल्तवी करना पड़े तो क्या यह गलत है? जैसे कुछ नारीवादी कहते हैं कि लेस्बियन होना, रात में दो बजे सड़क पर घूमना हमारा अधिकार है। हमें यह अधिकार मिलना चाहिए, लेकिन जिस समाज में लड़की को पढ़ने, नौकरी करने, दिन में भी बिना छेड़े गए सड़क पर निकलने और अपनी मर्जी से एक अदद विवाह तक कर लेने की छूट न हो वहां लेस्बियन होने, रात बेरात आवारागर्द होने, खुलेआम सिगरेट पीने जैसे अधिकारों की वकालत करना क्या ठीक होगा। साम्यवादी व्यवस्थाओं के जो उदाहरण हमारे सामने हैं, उन पर आपकी कही बात लागू होती है, लेकिन क्या वो बड़े अन्याय के प्रतिकार के लिए किया गया एक छोटा अन्याय नहीं था। मुझे ठीक ठीक नहीं मालूम, मैं सिर्फ जानना चाहती हूं।
गांधी की जिस किताब से आपने ये उदारहण लिया है .समझदार लोगो ने तभी उसे खारिज कर दिया था ....याधिपी उनकी जिद थी के संविधान उन्ही की इस किताब पर आधारित हो....जब तक प्रत्येक व्यक्ति को रहने को समुचित जगह ओर जीने को आवश्यक साधन पर्याप्त रूप में नहीं मिलेगे ये सभ्यता पूर्ण नहीं मानी जायेगी ....ऐसा किसी ने कहा था ....सच कहा था ...आदिवासियों ओर दुसरे लोगो के साथ अन्याय हुआ है ओर शोषण हुआ है ..इसमें कोई दो राय नहीं ..एक बार डॉ अमर कुमार ने फोन पर लम्बी बातचीत में कहा था ...बेटा अगर बाप से नाराज होगा तो पडोसी उसके हाथ में पत्थर ही देगा ....हमें अपने संसाधनों ओर अपने तरीको में बदलाव लाना होगा ओर ये सुनिश्चित करना होगा के चीजे ओर योजनाये जरुरतमंदो के पास ही पहुंचे जिनके लिए वे बनायीं गयी है ...यानी भ्रष्ट आदमी से मुक्ति ....सिर्फ यही तरीका लोगो को मुख्या धरामें जोड़ने में मदद करेगा .....वरना ऐसे लोग सिर्फ इस्तेमाल होते रहेगे ओर देश के टुकड़े होते जायेगे
मनीषा,
कलात्मक विकास वगैरह से तो कोई अन्तर्विरोध है भी नहीं.. एक तरफ़ अश्लील सम्पन्नता है और दूसरी ओर नितान्त दरिद्रता.. इस के बीच का अगर कोई पुल बन सके तो ज़रूर बने.. लेकिन मैं कह रहा हूँ कि माओवादी जो चाह रहे हैं वो और भी पिछड़ेपन का रास्ता है.. और लोकतांत्रिक भी नहीं ही है..
दूसरी बात आप कक्षा दस के विद्यार्थी को इसलिए कक्षा १० में ही रोके नहीं रख सकते कि बहुत सारे लोग अभी तीसरी जमात पास नहीं किए हैं..
गोदियाल जी,
किसी को समझाने के लिए नहीं, खुद को समझने के लिए ही लिखते हैं ये लेख..
"पूँजीवादी लोकतंत्र का विरोध कर रहे हैं – इस्लामिक जड़वादी और माओवादी – वो इसका विकल्प नहीं हो सकते।""
कितने साल लगाए इस सत्य को समझने में?
सभी विचारों से पूरी तरह सहमत | ऐसी बातें सोच-सोच कर ही neutral हो गए हैं की कोई भी एक लाईन पूरी तरह सही नहीं है कोनसी पकडें, तो पकड़ना ही छोड़ दिया है |
अगर मुझ से पूछा जाय कि मुझ किन आदर्शों में .................आदर्शों के साथ जी सकता हूँ?
चाहते तो यही हैं, पर कारण भी यही तो है, ये दुनिया एक सोच और एक रंग वाली नहीं है, आप एकाकार हो जाओ लेकिन दुसरे वो भी नहीं करने देंगे, उनसे बचने के लिए (दुसरे मायने में जिसे आजकल विकास कहते हैं उसे पाने के लिए ) उनके बराबर होना ही पड़ता है | इसलिए हर तरीके से powerful बनने का ही विचार ही सर्वोत्तम लगता है, "वीर भोग्य वसुंधरा" | ताकतवर बनना चाहते हैं सिर्फ खुद की शांति के लिए, कितनी अजीब बात है | लेकिन सत्ता पर आते ही कौन कितना संयम रख पता है तो इसका जवाब नहीं पता मुझे |
सारी बातें बोलकर जब आप जैसा Senior Citizen Writer और अनुभवी भी यही बोलता है की उसे भी कोई बीच वाला उपाय नहीं सूझता तो मुझे राजा ययाति के पुत्र की तरह खुद अनुभव किये बिना दुसरे की समझ से खुद की समझ बढाते हुए पहले ही हथियार डालकर इस वैचारिक जंग से बहार आ जाना सही प्रतीत हो रहा है |
अंत में फिर से कहूँगा की एक शानदार लेख था | इस सारे द्वंद्व को आपकी लेखनी बड़ी सहजता से लिख देती है, यहीं पर ब्लॉगर और लेखक का फर्क नज़र आता है |
उम्मीद की जा सकती है कि उनके इस आन्दोलन से आदिवासियों और नक्सली कार्यकर्ताओं के प्रति बरती जा रही निर्ममता में कमी आए और उनके साथ न्याय हो भई, कहां से उम्मीद की जा रही है, क्यों की जा रही है? मैं नियमित अख़बार पर नज़र नहीं रखता लेकिन देख रहा हूं लालगढ़ से लेकर छत्तीसगढ़, झारखंड, बिहार में सरकार एक बड़े पैमाने पर ऑपरेशन ग्रीन हंट फेसेज़ में चल रहा है, तो वह इस निर्मल उम्मीद को बचाने नहीं, उसमें आग लगाने के लिए ही होगी. सवाल है ऐसी कोई मशीनरी है, कोई पैमाना जो पुलिस और राज्य की हिंसा की जवाबदेही स्वीकारें, कहीं स्वीकारते दिखते हैं? लालगढ़ की बात न करें, वो तो ज़ाहिल आदिवासी बेमतलब के लोग हुए, अमरीकी पत्रकार तक को नहीं बख्शती, क्यों नहीं बख्शती? इसलिए कि उसे मालूम है उसकी जवाबदेही नहीं. ऐसे पुलिस, ऐसे राज्य से उसकी निर्ममता की उम्मीद करना कोरी भावुकता और भोलापन है.
जहां तक ऐसे राज्य और उसकी आततायी नीतियों का सवाल है, और उत्तर-पूर्व से लेकर कश्मीर तक सब कहीं इतने वर्षों से हम उसके नतीजे देखते रहे हैं, और देर-सबेर देश के दूसरे हिस्सों में भी दिखने लगा है, वह आमजन को और-और अतिवाद की तरफ ढकेलेगा, अपने में उनका कैसा भी विश्वास नहीं जगायेगा.
उम्मीद की जा रही है क्योंकि सिंगूर और नन्दिग्राम में सरकार अपनी मनमानी नहीं कर पाती.. उम्मीद की जा रही है क्योंकि विरोध होने पर सरकार बी टी बैंगन को लागू करना मुल्तवी कर देती है.. उम्मीद की जा रही है क्योंकि कश्मीर में सरकार पुराने आतंकवादियों को बहाल कर के मुख्यधारा में ले आती है बिट्टा कराटे जैसे हत्यारों को भी.. उम्मीद की जा रही है क्योंकि अन्त में यह राज्यतंत्र वोट पर चलता है और इसलिए हर सरकार को जनता की राय की फ़िक्र होती है.. और बहुत कारण न हो तो भी उम्मीद रखनी चाहिये.. क्योंकि कल आज से भी गया-गुज़रा था..
लेकिन उत्तर-पूर्व से लेकर कश्मीर तक राज्य अपनी जो आततायी नीतियां चला रहा है वो किनके खिलाफ़ हैं? जो लोग बन्दूक लेकर राज्य की रिट को चुनौती दे रहे हैं, और जिस में पाकिस्तान, चीन और बंगलादेश के तत्व भी शामिल हैं.. निरपराध लोगों को अपनी हिंसा का निशाना बनाने वाले ऐसे लोग आततायी राज्य से किसी तरह की नरमी की उम्मीद करें- क्या वो कोरी भावुकता और भोलापन नहीं है?
राज्य की हिंसा पर तो लगातार सवाल खड़े किए जाते हैं, उदारजनों ने कभी बोडो हिंसा पर सवाल उठाया है? या कश्मीरियों की हिंसा पर? या उसे उनकी लोकतांत्रिक अभिव्यक्ति समझा है? असली भोलापन इस बात में प्रच्छन्न है कि आप राज्य को अपने तकिये जैसे गुलगुला समझें! इस नासमझी से कितनी जानमाल की हानि हो रही है, यह समझें। दीवार में सर मारने से सर टूटता है दीवार नहीं। बात फ़ंसती यहाँ पर है कि कौन हमें किस दिशा में ले जा रहा है?
गोदियालजी,
क्यों अभयजी अपनी भाषा को पाठकों के अनुरूप बनाएँ? बिगड़ने का मतलब होता है दूसरों के अनुरूप बनना।
क्या संसदीय लोकतंत्र की हिंसा सहन करने लायक है. क्या इसी तरह से और इसी तरीके से संसदीय लोकतंत्र किसी भी मुल्क मे देर तक टिका राह सकता है? क्या कलाकार और बुद्धिजीवी वर्ग का रोल सिर्फ राज्य हिंसा के समर्थन मे खडा होना बचा है? क्या है लोकतंत्र? किसके लिए है? और ये कम से कम इसी तरह बना रहे, जनता जनार्दन की आवाज़ सुनता रहे, उसके लिए किसी पहरेदारी की किसी चोकंनेपन की जरूरत ख़त्म हो गयी है?
स्वप्नदर्शी जी
आप ने बहुत सारे सवाल पूछ लिए हैं.. क्या मान कर कि मैं इस लोकतंत्र का प्रवक्ता हूँ? इस हिंसा का समर्थक हूँ? कलाकार-बुद्धिजीवी का आप क्या रोल देखती हैं? वो चीज़ों को नए तरीक़े से देखने की कोशिश क़तई न करे, बस वो हर बात के लिए एक ही बुत पर थूकता रहे – सरकार।
बिहार की एक जेल में एक आदमी तीस-पैंतीस साल तक बिना मुक़दमा चलाए सज़ा (?) काटता रहा; इस के लिए आप को क्या लगता है उसे इस प्रकार की प्रताड़ना देने की नीति दिल्ली में पी एम ओ से रची गई थी? या मामला कुछ यूँ है कि हम (जो पहरेदार और न जाने क्या-क्या होने का दावा करते हैं) खुद भयान क रूप से हिंस्र, भ्रष्ट और कपटी चरित्र के लोग हैं। जिस को जहाँ दबा सकते हैं दबाते रहते हैं। और जो अपराधी और मक्कार और जनता के पैसों से अपना घर भरने वाले चुन-चुन कर संसद और विधायिका में जाते हैं वो किस के आदेश से? हम ही भेजते हैं न उन्हे। हमारी ही न अभिव्यक्ति हैं न वे?
हर समस्या के जवाब में अमूर्त राज्य की दिशा में खड़े होकर चार गाली बक देने से कोई पहरेदारी नहीं होती। सजगता इस बात में होगी कि पहले ठीक-ठीक पहचाना जाय कि उल्झाव कैसे-कैसे हैं। अकेले गाली बकने वालों को सच्चरित्रता का चरम और उनकी हिमायत आपकी नैतिकता का प्रमाणपत्र मान लेने से कुछ हल नहीं होने वाला।
सादर
मेरे विचार से इस समय त्वरित न्याय और भ्रष्टाचार से मुक्ति की ज़रूरत है |
त्वरित न्याय के लिए , सारे ऐसे केस बंद करने होंगे जी मे trail की अवधी सुनाई जाने वाली सज़ा से ज़्यादा या बारबर हो गई है.|
भ्रष्टाचार से मुक्ति के लिए, तकनीक का ज़्यादा से ज़्यादा उपयोग करना होगा |
मध्यवर्ग को और बहुत से समझदार लोगो को अगर लगता है कि विकास का और भारत की अर्थव्यवस्था की खातिर अगर जंगल मे रह रहे कीडे-मकोडों kaa किसी भी तरह राज्य ख़त्म कर दे तो विकास का ये एक मामूली मूल्य है। और ये एक सच है जो हम सब जानते है की कुपोषण और भुखमरी के शिकार, हाशिये पर धेकेले लोग, इस लायक नही है की वों व्यवस्था परिवर्तन कर सके। नुक्लीयर स्टेट का मुकाबला कर सके, और पूरे ग्लोब को घेर चुकी कोर्परेट पूंजी का और उसके साधनों से लड़ने की स्थिति मे ख़ुद को ला सके. नही है इनके पास ये साधन, ये पूंजी, और उतना दिमाग, उतनी सामर्थ्य। और बहुत अच्छे से ये लोग ये भी जानते है कि कोई नही है उनके साथ और हम सब जानते है कि हम उनके साथ नही खड़े हो सकते है। इसी समझ से ये उदगार निकलते है कि विकास इन कीडे मकोडों की कीमत पर ही होना है और ये रुक नही सकता। जो शक्तिया इस विकास को धकेल रही है, वों अपरिमेय है, अपराजेय है।
एक बार को मैं भी इन कीडे मकोडों की परवाह नही करती, चलो धरती का बोझ कम होगा। पर क्या हमारा कुछ नही बिगड़ने वाला? विकास की इस अंधी दौड़ जंगल जायेंगे, नदिया जायेंगी, और ढेर सारा कचरा जो निकलेगा, वों हमारे दरवाजे तक आ जाएगा। क्या होगा इस सबका दूरगामी असर हवा, पानी, और मौसम पर, फसलों पर? कितने लोग विस्थापित होंगे? कितने मरेंगे? और जियेंगे तो कैसे?
क्या है उनके पुनर्वास का प्लान? और जो विस्थापित हुए है, हमारी नदी घाटी योजनाओं मे पिचले २०-३० साल मे , कहाँ है वों लोग? कैसा है उनका आज, जो उनके काले असभ्य कल से बेहतर है? इस सब चीजों की भी शिनाख्त होनी चाहिए। This is the place where people who believe in democracy and social justice should intervene.
जब इन कीडे मकोडों se बृहद समाज कन्नी काट लेगा, तो इनके पास विकल्प क्या है? वों अतिवाद के शिकार होंगे, हिंसा को अपना आख़िरी हथियार बनायेंगे, और राज्य अपनी हिंसा से इस हिंसा का खात्मा करेगा। पर सवाल ये भी है कि क्या वाकई कर पायेगा? क्या कश्मीर की समस्या, पूर्वोत्तर की समस्या, हमारी आँख मे उंगली डालकर दिखाने के लिए काफी नही है कि समाधान के ये तरीके कितने कारगर है? लगातार देश के कई फ्रंट पर जूझते अपने ही सैनिक अपने ही निरीह लोगों को मारेंगे। और सैनिक भी कौन है? वही हाशिये के लोग जिनके पास अपनी जीविका के कोई दूसरे रास्ते नही है। खाए-पिए अघाए लोग भेजेंगे अपने बच्चों को मरने के लिए? पर इस मारा मारी की जो आर्थिक कीमत होगी, वों कौन भरेगा?
If you really believe in democracy, then it is very important to think about the alternative means of bringing these disparate people into main stream. Through democratic means, by providing a breathing space for them. We can not allow butchering of these people by Maoist and by state. And since in democracy, we are on side of the state, as a voters, we have responsibility, and of course state is the one which can make policies and has capacity to implement these policies, the pressure should be n state. I do not mean to condemn the state or democracy, but it is not an abstract thing and neither autonomous organ which can be programed, it requires continuous vigilance.
The second objection I have is regarding the achievements of the democracy.
क्या पूँजीवाद ने महिलाओं को, कामगार को थाली मे परोसकर जनतांत्रिक अधिकार दिए।
कैसे है दूसरे जनतंत्र दूनिया मे? क्या सिर्फ़ वोट देकर यहाँ के नागरिक धन्य हो जाते है? और कभी राज्य पर प्रश्न नही उठाते? कैसे बचे है अमेरिका के नेशनल parks पूंजीपतियों लालच से? कैसे बने रिजर्व ? How did women got voting rights? blacks got voting rights and space to breath?
राज्य जैसा है वैसा है . इसलिए की वो हमारे ख्वाबों से नहीं बना है. माओवादी वगैरह जैसे हैं , वैसे हैं हैं , इस लिए की वे भी हमारी ख्वाहिशों से नहीं रचे गए हैं, सब कुछ जैसा है वैसा ही क्यों हो गया है?
राज्य की सारी निर्ममता मणिपुर की मनोरमाओं के लिए और सारी ममता संजीव नंदाओं के लिए ही सुरक्षित क्यों है? अंत में यह राज्यतंत्र वोट से चलता है?आप ने कितने दफे वोट डाले हैं? वोट तंत्र होता तो क्काहे को कश्मीर , मणिपुर, छतीसगढ़ की सूरत वैसी होती जैसी है?
क्या आप को नहीं लगता की कहीं न कहीं विराट अन्याय की एक मशीनरी है , जिसे राज्य कहते हैं? इस विराट अन्याय से लड़ने का कोई न्यायसंगत तरीका शेष है?मेधा पाटकर से पूछिए, अगर छतीसगढ़ की सलवा जुडूम की शिकार महिलाओं से पूछ पाना नामुमकिन हो.
अगर आप का तर्क यही है की जो 'पिछड़ गए हैं ' या वैसे ही रहना चाहते हैं , उन्हें मिटा कर ही सभ्यता का 'विकास ' होगा तो तो शौक से मिटाईए उन्हें , मगर हुज़ूर
उनसे ये तो न कहिये
की अरे जाहिल badतमीज -इतनी जोर से कहे रोता चिल्लाता है, पलट कर लड़ने की हिंसा भरी हरकत क्यों करता है, गाँधी जी का नाम जपते हुए आने वाली सभ्यता के लिए शहीद क्यों नहीं हो जाता खामोशी से? अगला janam ले कर dekhanaa. तेरी shahaadat के कैसे sufal nikle हैं. जैसे आज के amreeka में janme lakhon red indiyano ने jaanaa होगा. .
लेकिन ये punarjanm वाली बात कोई pichhadaa हुआ vichar तो न होगा?
आशुतोष,
आप मेरे मुँह में शब्द दे रहे हैं.. मेरे लेख के शीर्षक से बह मत जाइय़े.. बात इतनी दो टूक नहीं है.. आप एक शुद्ध आदर्शवादी की तरह बात कर रहे हैं.. सिर्फ़ एक संवेदनशील स्त्रैण करुणा के साथ.. मैं आदर करता हूँ ऐसी करुणा का और स्त्रैणता का भी.. मैं स्वयं भी उसका वाहक हूँ.. पर मैंने कुछ क्रूर सच्चाईयों से रूबरू होने की कोशिश की है..किसी अन्याय का समर्थन नहीं किया है..
इस सब के बावजूद यह निश्चित ही मतभेद है.. आप इस की आज़ादी तो देंगे न!
काफी विचारोत्तेजक लेख है,
मैं आपका कभी नियमित कभी अनियमित पाठक हूँ,और टिपण्णी करने से हिचकिचाता हूँ क्योंकि अभी बी. ए. कर रहा हूँ और कुछ कम ही लिख पाता हूँ.
लेकिन क्या ऐसा है कि सिर्फ इस्लामिक कट्टरपंथी और माओवादी ही पूँजीवाद का विरोध कर रहे हैं, देश के विभिन्न हिस्सों में स्थानीय लोगों के जल जंगल जमीन पर अधिकार को लेकर कई अहिंसक आन्दोलन भी चल रहे हैं, जिन्हें मीडिया और तथाकथित प्रबुद्ध वर्ग द्वारा अक्सर नजर अंदाज कर दिया जाता है, क्या उनमे से होकर विकल्प की कोई तस्वीर नहीं निकल सकती ?
इकबाल अभिमन्यु
अगर मुझ से पूछा जाय कि मुझ किन आदर्शों में विश्वास है तो शायद मैं एक अराजकतावादी सिद्ध हो जाऊँ।
आपको पता ही है कि कालान्तर में इस शब्द का अर्थ बदल चुका है. मूल अर्थों में शायद मैं भी आपके साथ ही खडा हूँ. वैसे अन्याय के विरोध के नाम पर पंथ, वाद और हिंसा का नंगा नाच तो रोकना ही होगा - जैसे भी हो. और सच्चाई यही है कि इन हिंसक दलों के पास सरकारी दमन का जो बहाना है उसे भी दूर करना ही होगा. तथाकथित उदारों की भली कही - किसी भी असुविधा से बचने वाले थाली के बैंगन कभी कहीं कोई क्रान्ति नहीं ला सके हैं.
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