इन्ग्लोरियस बास्टर्ड्स - अगर मुझे पता होता कि नाज़ियो और यहूदियों के समीकरण के ही बारे में ये एक और फ़िल्म है तो मैं कभी इस फ़िल्म को देखने को राज़ी नहीं होता। मैंने इसका पोस्टर देखा ज़रूर था और यह भी जानता था कि यह एक वॉर फ़िल्म है, लेकिन.. मेरी मूर्खता थी शायद.. मुझे बूझ लेना था। पिछले बीस सालों में मैंने यहूदियों पर नाज़ी अत्याचारों को लेकर इतनी फ़िल्में देखी हैं कि मैं अब इस विषय के प्रति अपनी संवेदना खो चुका हूँ। होलोकास्ट, गैस चैम्बर्स, यहूदियों की प्रताणना जैसे बातें सुनकर मेरे चित्त पर रञ्जना और अभिव्यञ्जना की सारी सम्भावनाएं विलोप हो जाती हैं.. चालू ज़ुबान में मैं चटने लगता हूँ।
मेरे सारे प्रगतिशील दोस्त मेरे इस बयान को लेकर अपने हाथों में पत्थर कस चुके होंगे। जैसी कि आम प्रगतिशीलों की फ़ित्रत होती हैं वे अपने कट्टर दुश्मन साम्प्रदायिकों की तरह ही, सारी दुनिया को अस एण्ड देम के दो बाड़ों में ही देख पाने के लिए अभिशप्त होते हैं। उन्होने मुझे या तो मुझे महमूद अहमेदीनिज़ाद की तर्ज़ पर होलोकास्ट को होक्स मानने वाली प्रस्थापना का समर्थक मान लिया होगा या किसी एक नई-नवेली 'हिन्दू ज़ायनिस्ट' डिज़ाइन का हिस्सा।
अगर उन के सामने आप कश्मीर के आन्दोलन में निहित मूल साम्प्रदायिकता की बात कर दीजिये तो वो आप को कम्यूनल भाजपाई मान लेंगे और इसके विपरीत अगर आप मोदी को चार गाली दे दीजिये तो अपनी राय पर थोड़ा शक़ होगा और हो सकता है कि आप को सेक्यूलर क्लब की सदस्यता की पर्ची काट दें। इसके बाद अगर आप श्राद्ध पक्ष के बाद सर घुटाए दिख गए तो हैरानी से उनका मुँह खुला रह जाएगा.. अरे आप तो.. और आप की सदस्यता पर पुनर्विचार चलने लगेगा। उनकी कमज़ोर जीवन दृष्टि पर जो मोटा चशमा चढ़ा है उससे कुछ भी महीन सूक्ष्म देख पाने की क्षमता वो खो चुके हैं। मैं कह सकता था कि ये उस चश्मे का दोष है, उनका दोष नहीं है, पर नहीं कहूँगा। मैं उन से भी बहुत चटा हुआ हूँ।
पर मेरे पाठक आप ही बताइये.. एक आदमी जो कि न तो नाज़ी है, न जर्मन है, न ब्रिटिश है, न फ़्रेंच, न यूरोपी और न अमरीकी.. और यहूदी तो बिलकुल ही नहीं..आखिर क्यूंकर उसे इस विषय के प्रति हर मौक़े-बेमौक़े पर अपनी आंसुओं की बाल्टी तैयार कर लेनी चाहिये? और माफ़ कीजिये मैं मुसलमान भी नहीं हूँ जिनके भीतर प्रायः यहूदियों के प्रति एक खास नफ़रत का समन्दर ठाठें मारता रहता है। (यहाँ पर मुझे लिखना चाहिये कि - हर मुसलमान नहीं - पर मैं नहीं लिखूंगा)
दुनिया में तमाम ऐसे दारुण विषय हैं जिन पर फ़िल्म बनने की दरकार हो सकती है लेकिन नहीं बनती। अब जैसे कल एक लेख में पढ़ रहा था कि एक चीनी लेखक द्वारा लिखी एक नई किताब के अनुसार चेयरमैन माओ की 'ग्रेट लीप फ़ारवर्ड' के तहत ३ करोड़ साठ लाख लोगों की हत्याएं हुई, जो कि होलोकास्ट में मारे गए लोगों से सम्भवतः अधिक है। मगर उस त्रासदी के बारे में कितने लोग जानते हैं? अपने १८५७ के बारे में ही एक अनुमान है कि ९० लाख लोग मारे गए - उस पर कितनी फ़िल्में बनी हैं? जो बनी थी - मंगल पाण्डेय - वो बरदाश्त के बाहर थी। लेकिन हमारी मानसिकता ऐसी बन गई है कि अत्याचार और त्रासदी के नाम पर हमारे पास सबसे दारुण मिसाल होलोकास्ट ही होती है।
मैं एक सीधा साधा फ़िल्म-प्रेमी हूँ। जो सिनेमा हॉल के गाढ़े अंधेरों में अपने मानस के जाने-अनजाने तत्वो को दूसरे मनुष्य के अनुभवों के जीवन्त चित्रण के हवाले कर उन्हे साझना चाहता है। टैरनटीनो बड़े निर्देशक हैं। किल बिल, रेज़ेरवायर डॉग्स और पल्प फ़िक्शन कल्ट फ़िल्म्स हैं और सही हैं। डेथ प्रूफ़ अच्छी नहीं थी मगर बुरी भी नहीं थी। उनकी इन्ही फ़िल्मों को प्रभाव था कि मैंने फ़िल्म रिलीज़ होने के पहले ही उसे देखने का मन बना लिया था। एक्सप्रेस में रिव्यू के आगे पाँच स्टार्ज देखे ज़रूर थे, और उस का असर भी मन पर लिया था, लेकिन पढ़ा नहीं था। अच्छा पढ़ा नहीं था फिर तो शायद और गु़स्सा होता। रिव्यू लिखने पर किसी स्टूडियो का दबाव रहा होगा ऐसा नहीं है लेकिन सबसे बड़ा दबाव प्रतिष्ठा का होता है। वो ऐसा दबाव होता है कि अगर आप को फ़िल्म न भी समझ आए, बुरी भी लग जाए तो आप कसूर फ़िल्म को देने के बजाय या अपनी राय साफ़ सामने रखने के बजाय बड़े-बड़े झूठे शब्द उछाल कर तारीफ़ों का ऐसा मुज़ाहरा करते हैं कि किसी को भनक भी न पड़ने पाए कि आप ऐसे मूर्ख हैं जिसे टैरनटीनो की फ़िल्म नहीं समझ आई?
मैं एक ऐसा मूर्ख हूँ जिसे फ़िल्म पसन्द नहीं आई। ऐसा नहीं कि फ़िल्म आप को पकड़ती नहीं, पकड़ती है और जकड़ती भी है.. इस हद तक कि आप का माथा पिराने लगे और आप आशंका और उत्तेजना से थथराने लगें। फ़िल्म की स्क्रिप्ट पर टैरनटीनो ने जो दस साल तक मेहनत की है वो दिखाई देती है, महसूस भी होती है। असर में कमी नहीं है.. फ़िल्म की जो मूल समझ है, एहसास की जिस दुनिया में फ़िल्म हमें ले जाती है, शिकायत और तक़लीफ़ उस से है।
फ़िल्म रंगीन ज़रूर है पर दिखाई देनी वाली दुनिया दुरंगी यानी काली सफ़ेद है। एक हिंसा और प्रतिहिंसा का सिलसिला है। जर्मन्स खोज-खोज कर यहूदियों की हत्याएं कर रहे हैं उसके जवाब में प्रतिशोध से भरे हुए जर्मन यहूदियों और अमरीकियों का एक गैंग है जो जरमनों की हत्याएं कर रहा है उनसे भी अधिक पाशविकता से।
फ़िल्म की पृष्ठभूमि ऐतिहासिक है मगर कथानक काल्पनिक है। फ़िल्म के अंत में जिस तरह से द्वितीय विश्व युद्ध समाप्त हो जाता है वो टैरनटीनो की ‘गूढ़’ कल्पना है। गूढ़ पर ज़ोर इसलिए कि उस कल्पना को जेब में डाले हर आतंकवादी घूम रहा है। अगर टैरनटीनो की इस दुनिया में एलाइड पक्ष की जगह अफ़्ग़ानी, पाकिस्तानी और अरब लड़ाके और नाज़ियों की जगह अमरीकी, फ़्रेंच और अंग्रेज़ हो तो आज की सही तस्वीर बन जाएगी। लेकिन शायद टैरनटीनो साहब के दिमाग़ में दो पैमाने होंगे एक अमरीकी हिंसा को तौलने का और दूसरा नाज़ियों और मुसलमानों की हिंसा को तौलने का? (मेरे प्रगतिशील मित्र नाज़ियों और मुसलमानों को समीकरण के एक ओर एक साथ रखने को अन्यथा ले सकते हैं, मेरा वैसा कोई आशय नहीं है लेकिन मैं इस वाक्य संरचना को नहीं बदल रहा हूँ)
फ़िल्म का आधार नफ़रत है। दोनों तरफ़ से हचक के नफ़रत। ऐसी करुणाहीन फ़िल्म, चाहे कितनी भी कारीगरी की शिखर पर चढ़ कर बैठी हो, मेरी नज़र में बुरी फ़िल्म है। कोई हत्यारा अगर किसी का गला काटने समय गणपति की अद्भुत आकृति उकेरने का उस्ताद हो तो क्या उसे कलाकार मान लेना चाहिये? एक ऐसा चिंतन है जो मानता है। मैं नहीं मानता।
ब्रैड पिट ने जबड़ों में अजब तनाव पैदा कर के न जाने कैसी अभिनय की कोशिश की है; मुझे तो ज़रा भी समझ नहीं आई। क्रिस्टोफ़ वाल्ट्ज़ ने बहुत बेहतर काम किया है जिसके लिए उन्हे कान फ़िल्मोत्सव में पुरस्कार भी मिला। एक बात और जो मुझे बहुत अखरी – पूरी कहानी फ़्रांस में घटित होती है लेकिन इनग्लोरियस बास्टर्ड्स में फ़्रांस की ज़रा भी आत्मा नहीं है। सच पूछिये तो आत्मा है ही नहीं।
13 टिप्पणियां:
फिल्म दफना दी गई! हो सकता है कुछ अवार्ड प्राप्त कर ले। सारी हिंसा का उद्देश्य तो लोगों को मानवता के असल शत्रुओँ तक पहुँचने से रोकना ही है।
मुझे ऐसी फिल्मों पर कोफ्त होती है.
सो कॉल्ड प्रतिघात, शूल, संघर्ष टाइप फिल्मों में सेंसिबिलिटी का मसाला ढूंढने के दौर का जब विस्तार हुआ, दुनिया की और भी पर्तें खुलीं, संसार में सिनेमा और भी है, Origin of family private property and state और माओ, लेनिन, किम इल सुंग की संकलित रचनाओं के अलावा किताबें और विचार और भी हैं, जब यह समझ में आया तो समझ का भी विस्तार हुआ। जरूरी नहीं कि ये समझ शतश: उस मार्क्सिस्ट स्कूल से मेल खाती हो़ जहां हमारी शुरुआती दीक्षा हुई है। लेकिन उस स्कूल के टीचरों को बर्दाश्त नहीं कि जहां तक उन्होंने पढ़ाया अब बच्चा उससे आगे निकल जाए, इतना आगे कि उनके पढ़ाए हुए पर ही सवाल करने लगे। ये सवाल तो है और सचमुच गंभीर सवाल है कि जब दुनिया में इतने करुण विषय पड़े हैं, हत्या, तबाहियों और विध्वंस के इतने असंख्य करुण प्रसंग हैं तो सिर्फ इसी एक विषय में हमें संसार की अमानवीयता का चरम क्यों नजर आता है। इस पर सवाल करना अपने खेमे से जात बाहर हो जाने जैसा है अभय। लेकिन फिर भी सवाल तो पूछा ही जाना चाहिए।
अरे सर आपने फिल्म के बहाने पता नहीं कितनी व्यवहारिक उलझनें सामने रख दी हैं। अभी साथियों के कहने पर मैंने भी the boy in the stripped pyjamas देखी। अच्छी फिल्म है लेकिन, ये सही है कह रहे हैं कि नाजी-यहूदी अत्याचार की बहस पता नहीं कैसे कुछ लोगों के लिए एक समाज से ऊपर उठने का जरिया भी बनी हुई है। बहुत जरूरी सवालों को उठाती पोस्ट
मानवता और मानववाद को तमाम विचारधाराओं और वादों से बड़ा होना चाहिये क्योंकि विचारधाराएं मनुष्य की बेहतरी के लिये हैं,मनुष्य को बाड़े में बन्द करने के लिये नहीं. पर क्या ऐसा है ?
दुनिया में तमाम ऐसे दारुण विषय हैं जिन पर फ़िल्म बनने की दरकार हो सकती है लेकिन नहीं बनती।
बढ़िया लगा। सहमत हूं। फिल्म अभी देखी नहीं है।
@ गला काटने समय गणपति की अद्भुत आकृति उकेरने का उस्ताद हो तो क्या उसे कलाकार मान लेना चाहिये?
इस बात से मुझे एक घटना याद आ गई है। मेरे फेमिली डॉक्टर के टेबल पर एक चित्र लगा था। देखने पर शक हुआ कि ये गणेश जी का चित्र है। पूछने पर उन्होंने बताया कि एक आदमी के पेट से ये ट्यूमर निकाला था। जब कटोरे में रखा तो नर्स की नजर पडी और उसने बताया कि इस ट्यूमर में तो गणेश जी दिखते हैं।
डॉक्टर ने देखा तो वाकई गणेश जी की आकृति ट्यूमर में दिख रही थी। सो उन्होंने Just for an interesting Tumor उसकी तस्वीर निकाल कर अपने टेबल पर रख दी।
उनके इस कृत्य को मैं कला पक्ष का नामतो न दूंगा पर हां एक विचित्र ट्यूमर के प्रति कौतुहल जरूर कहूंगा।
वैसे भी गणेश जी को कभी आलू की शक्ल में देखा जाता है तो कभी गाजर या फिर और कुछ नहीं तो दीवाल में लगी काई में ही लोग गणेश ढूँढ लेते हैं :)
...अगर आप को फ़िल्म न भी समझ आए, बुरी भी लग जाए तो आप कसूर फ़िल्म को देने के बजाय या अपनी राय साफ़ सामने रखने के बजाय बड़े-बड़े झूठे शब्द उछाल कर तारीफ़ों का ऐसा मुज़ाहरा करते हैं कि किसी को भनक भी न पड़ने पाए कि आप ऐसे मूर्ख हैं जिसे टैरनटीनो की फ़िल्म नहीं समझ आई?
अमूमन मुझे ऐसे लोगों की पोल खोलने में बड़ा मज़ा आता है, यकीन मानिये पोल खुलने पर उससे ज्यादा जीवंत हास्य कथानक और कोई नहीं होता, मेरे इससे लिए बड़ा मनोरंजन और कुछ नहीं होता | ऐसे लोग अपने आप में बहुत चालाकी दिखाते हैं, उनके लिए जैसे आर्मी में कहते हैं, अम्बुश लगाना पड़ता है |
हर आदमी को अपना संघर्ष दूसरो से ज्यादा बड़ा लगता है | आप तो नाहक ही परेशान हो रहे हैं, उनको यूरोप से बहार की दुनिया से क्या मतलब है | फिल्म अत्यधिक तकनीक से बढ़िया बनाने का मतलब ये नहीं की वो Chauvinism से ग्रस्त नहीं | लेकिन हॉलीवुड की फिल्मों में ये करामात होती है, जिस टोपिक पर बनाते हैं, उसमे इस तरह दिखाते हैं कि जो दिखाया जा रहा वो ही सही सिद्ध करने कि कवायद होती है |
'चार्ली विल्सन'स वार' में वो दिखा रहे हैं, कि देखो अमेरिका ने तो परोपकार कि भावना से अफगानिस्तान को रूसियों से बचाया है | 'द डा विन्ची कोड' में प्रायरी ऑफ़ साइन को दुनिया की अतीव प्राचीन संस्था बता रहे है, जबकि जीसस खुद 2000 साल से ज्यादा पुराने नहीं हैं | वो तो 100 साल के पुराने इतिहास को भी इस तरह दिखाते हैं जैसे पता नहीं कौन सी सभ्यता में ले जा रहे हों | उसमे दिखा रहे हैं, मूर्ति पूजा की शुरुआत ही जैसे वहीँ से शुरू हुई, प्रकृति से जुड़कर रहना उनकी मूल सभ्यता थी | खजुराहो को देखने के बाद उन्हें धर्म का काम से सम्बन्ध समझ में आया तो दिखा रहे है, देखो ये धार्मिक क्रिया तो हमारे यहाँ पहले से ही चल रही है |
ओशन 11, 12, 13 में चोरों को भी इस तरह पेश किया गया है कि वो महापुरुष लगने लगते हैं | वैसे ये सभी मूवीज काफी मजेदार हैं | Inglourious Basterds मैंने अभी देखि नहीं है |
लेकिन हम लोगों की मानसिकता भी ऐसी है कि गोरी चमड़ी को ज्यादा बुद्धिमान समझते हैं |
माना कि आप न तो नाज़ी हैं, न जर्मन हैं, न ब्रिटिश हैं, न फ़्रेंच, न यूरोपी और न अमेरिकी.. और यहूदी तो बिलकुल ही नहीं..और मुसलमान भी नहीं हैं...लेकिन एक इंसान तो हैं...वैसे ही इंसान जैसे मार दिए गए थे गैस चैंबर्स में भरकर...या वैसे ही इंसान जिन पर गिरा दिया गया था न्यूक बॉम...दर्द का आदिम पहचानों से रिश्ता तलाशने लगें, तो हम किसी दर्द पर रो ही नहीं पाएंगे...फिर तो हमें बंटवारे के वक्त मरे लोगों की मौत पर भी आंसू नहीं बहाने चाहिए...बम धमाकों में मारे गए लोगों से भी कुछ न कुछ वजह से सीधा रिश्ता नहीं है...मुंबई में मरे लोगों पर मुझे इसलिए नहीं रोना चाहिए क्योंकि मैं मराठी नहीं हूं, मुंबई में नहीं रहता, ट्रेन में सफर नहीं करता, शेयर बाजार में काम नहीं करता...? दिल्ली में मरे लोगों पर मुझे इसलिए नहीं रोना चाहिए क्योंकि मैं तो कभी पहाड़गंज जाता ही नहीं और यूं भी मैं दिल्ली में बाहरी हूं, मुझे क्या मतलब...
फिल्म को लेकर आपकी आपत्ति जायज हो सकती है, लेकिन किसी खास पहचान के नाम पर कभी भी कोई घिनौना अपराध हो, उस पर रोना सिर्फ आंसू बहाना ही तो नहीं...उस दर्द को...उस सबक को अगली पीढ़ी तक पहुंचाना भी तो है...
Namaskaar Abhay ji,
Aapki post bhi padhe lekin us per likhe comments padhne mein jyada mazaa aaya, ;-)
Sach bataiye, ek thought experiment to nahin thi yeh post...
Agar aap apna contact number nrohilla At gmail Dot com per bhej sake to kripa hogi jis se 8 Oct se pehle aapse vaartalaap ka sukh liya ja sake.
आप ने एक ऐसा खाका खींचा है जिसमें कहीं किसी कोने मैं फिट सा हो जाता हूँ।
जिस तरह से AIDS एलीट क्लास की पसन्दीदा चर्चा वाली बिमारी है वैसे ही एलीट बुद्धिजीवी की पसन्दीदा त्रासदी होलोकॉस्ट है। इन पर बहस करते वे अपने को खुद और अपने ही जैसे दूसरों की नज़र में उठाने की कोशिश कर रहे होते हैं।
लेकिन हम क्या करें?
अब भी दिलकश है तेरा हुश्न मगर क्या कीजै
लौट जाती है उधर को भी नजर क्या कीजै ?
जो सधाव, ईमानदारी और सधाव आप के लेख में दिखता है, वह ब्लॉग जगत में दुर्लभ है। ...
'हमरे ऊ पी' वाले में बहुत दम है।
बनारस की लंगोट से टैरनटीनो की हॉलीवुड फिल्म तक...बहुत जान है रे तिवारी तेरे लेखन में, लगे रहो।
गिरिजेश राव आत्मा की गहराई से बात कहते हैं। इनकी बात को हलके से मत लीजिएगा अभय भाई....
एक टिप्पणी भेजें