ऑरहे लुइस बोर्ग़्हेस* का रचना संसार एक ऐसा विद्वतापूर्ण जटिल और सघन दलदल है जिसमें आप उतरने से क़तरा सकते हैं। पहले वाक्य से ही वो आप को डरा सकता हैं आतंकित कर सकता है अनजाने नामों, सन्दर्भों और लोकों से। लेकिन उस साहसी पाठक के लिए जो न घबराया- न डरा, ये कहानियां बौद्धिक आनन्द का उम्दा ईनाम है।
बोर्ग़्हेस की रचनाओं के बारे में यह तय काना मुश्किल होता है कि वे दार्शनिक संवाद है जिनके भीतर कहानी के अद्भुत तत्व विद्यमान हैं या फिर वे कमाल की कहानियां हैं जो गहरे दार्शनिक अर्थों से लबरेज़ हैं।
आम तौर पर कहानियां ऐसी होती हैं कि आप एक पंक्ति का एक शब्द पढ़कर नीचे उतरते चले जाइये, सुपरमैन की तरह सुपरस्पीड से पढ़ते हुए। लेकिन बोर्ग़्हेस की कहानी में कोई वाक्य कूद कर आगे नहीं जा सकते। हर वाक्य एक नया आयाम उद्घाटित करता है। एक नयी परत खोलता है। पुराना अर्थ तोड़ता है, एक नया अर्थ जोड़ता है।
बौद्धिक तेज से चमचमाती ये कहानियां पढ़ कर ऐसा लगा जैसे कि बीस वर्ष पहले के दौर में लौट गया हूँ जब पहली बार मिलान कुन्देरा पढ़कर या बुनुएल की फैन्टम ऑफ़ लिबर्टी और ओब्सक्योर ऑबजेक्ट ऑफ़ डिज़ायर देखकर एक बौद्धिक सनसनी हुई थी। शायद काफ़्का के बाद बोर्ग़्हेस दुनिया के अकेले ऐसे लेखक होंगे जिन्होने अपने समय को सबसे अधिक प्रभावित किया।
बोर्ग़्हेस पोस्ट-मार्डनिस्म के अस्तित्व में आने से पहले ही वे एक पोस्ट-मार्डनिस्ट थे। वे यथार्थवादी नहीं बल्कि अल्ट्राइस्ट थे। उनका यथार्थ जैसा यथार्थ नहीं है, और स्वप्न ठीक ठीक स्वप्न ही है यह नहीं माना जा सकता है। दोनों एक दूसरे में घुलते हुए से हैं। कब स्वप्न की तरलता यथार्थ की तरह ठोस हो जाए और यथार्थ का घनत्व पिघल कर कैसा अचरजी रंग बदल ले आप तय नहीं कर सकते। उनकी हर कहानी कुछ विशेष विषय के गिर्द ही चलती है - अनन्त, असीम, भ्रम, माया, स्वप्न, परतदार सत्य, लैबीरेन्थ (जटिल भूलभुलैया या सघन गोरखी दुनिया), समय; वर्तुलाकार या चक्राकार समय।
उनकी एक मशहूर कहानी है -पियर मेनार, ऑथर ऑफ़ द ‘कीहोटि’। लेखकीय मौलिकता के ऊपर ऐसी मौलिक कहानी पहले नहीं पढ़ी थी। यह एक ऐसे लेखक की कथा जो सरवान्तीज़ के डॉन कीहोटि की पुनर्रचना में कुछ इस तरह जुटता है कि उसका एक एक लफ़्ज़ सरवान्तीज़ के साथ मेल खाता है मगर विश्लेषक या पाठक के लिए उसके अर्थ भिन्न हो जाते हैं क्योंकि उनकी देश काल परिस्थिति भिन्न है।
मिसाल के तौर पर एक और कहानी है ‘लाइब्रेरी ऑफ़ बेबेल’, जिसमें लाइब्रेरी ब्रह्माण्ड का एक रूपक है- ये अनन्त लाइब्रेरी एक विशाल खगोल है जो अनगिनत षटभुजों से मिलकर बनी है, जिसका केद्र तो हर एक षटभुज है पर परिधि कहीं नहीं। लाइब्रेरी सम्पूर्ण है, जिस में एक जैसी कोई भी दो किताबें नहीं हैं। और उसकी आलमारियों में २२ लेखन चिह्नों के सभी समुच्च्य मौजूद हैं। चूंकि लाइब्रेरी में सभी सम्भव लेखन उपस्थित है इसलिए दुनिया की हर समस्या, निजी और सामाजिक का हल लाइब्रेरी के किसी न किसी कोने में रखी किसी किताब के भीतर लिखा हुआ है। और इन्ही किताबों के बीच एक ऐसी किताब भी है जो कि है सम्पूर्ण किताब, जो कि बाक़ी सभी किताबों की कुंजी- सभी किताबों के रहस्य अपने भीतर छिपाये हुए है। बावजूद इस सब के लाइब्रेरी में अशांति है, अराजकता है, हताशा है..कुछ लोग किताबें जला रहे हैं, कुछ उस दिव्य किताब की खोज में विचित्र प्रयोग कर रहे हैं।
बोर्ग़्हेस की कहानियों के भीतर के कल्पनालोक में काल्पनिक लेखकों की काल्पनिक किताबें होती हैं एक नहीं तमाम। ऐसा माना जा सकता है कि ये सारी किताबें वो किताबें है जो बोर्ग़हेस स्वयं लिखना चाहते थे चूंकि उनका मानना है कि पांच सौ पन्नो की किताबें लिखने की मशक्कत एक ऐसा व्यर्थ का पागलपन जो आप के बहुमूल्य समय पर डाका डालता है, जबकि वही बात आप पांच मिनट में मुँहज़बानी सुना सकते हैं। बेहतर ये है कि मान लिया जाय कि वो किताबें पहले ही लिखीं जा चुकी हैं और सिर्फ़ उन पर टिप्पणी लिखी जाय।
पेंग्विन ने उनकी कहानियों के सारे संग्रह छापे हैं। लेकिन सबसे बेहतरीन कहानियां ‘फ़िक्शन्स’ नाम के संग्रह में संकलित है। अगर आप कहानियों के घिसे-पिटे सुर से ऊब चुके हैं तो ज़रूर आज़माईये बोर्ग़्हेस को- नाउम्मीद नहीं होंगे।
*Borges के उच्चारण को लेकर भी एक विविधता है- जो उन पर जंचती है। हिन्दी भाषी लोग इसे आम तौर पर बोर्जेस पढ़ेंगे मगर अगर आप Borges के हिन्दी अनुवाद देखेंगे तो आप को वहाँ बोर्ख़ेस लिखा मिलेगा-हिन्दी के विद्वजन भी यही उचारते मिलेंगे। G किस नियम के अनुसार ख़ में बदल जाएगा, को लेकर मेरे भीतर एक हलचल मची रही। मैंने डिक्शनरी डॉट कॉम पर देखा तो वहाँ उचारण मिला- ऑरहे लुइस बोर्हेस। यह सही भी है क्योंकि स्पेनी फ़िल्मों में Jorge (George) को ऑरहे ही बोला जाता है। लेकिन जब मैं इसे बातचीत में बोरहेस-बोरहेस बोलने लगा तो उलझन सी होने लगी। G की छवि को ह की तरह बोलने में तक़लीफ़ हो रही है बावजूद इसके कि प्रसिद्ध चित्रकार Modigliani को हम मोदिहलियानी ही कह कर बुलाते सुन सकते हैं। फिर मेरी पत्नी तनु ने मुझ से कहा कि बोरहेस का जो ह है वह हलक़ से निकलना चाहिये, अरबी के हलक़ वाले हे की तरह। मैंने बोलकर देखा- बेहतर लगा। फिर भी मुझे सन्तोष नहीं हुआ। फिर ख्याल आया कि G को ग भी तो बोला जा सकता है और उसे अगर ग़ैन वाले ग़ की तरह बोला जाय तो कैसा रहे? तो हुआ बोरग़ेस मगर डिक्शनरी डॉट कॉम का उच्चारण इससे मेल नहीं खाता। लिहाज़ा मैंने दोनों को मिला दिया और पाया – बोर्ग़्हेस। ये काफ़ी कुछ असली उच्चारण के क़रीब है।
10 टिप्पणियां:
नए suggestion के लिए धन्यवाद | इस 'Fictions' को गूगल करता हूँ, यदि आपके पास कोई लिंक, सॉफ्ट कॉपी है तो उसे भी प्रस्तुत करें बहुत अच्छा होगा |
धन्यवाद।
सचमुच अद्भुत हैं बोर्ग्हेस..
जरूर बांचेगे .....
बोर्ग्हेस की अन्य कहनियों के बारे में भी बताएं ....नाम के उच्चारण में विविधता चर्चा का अच्छा विषय है ....वैसे गूगल में टाईप करने पर ' h ' लिखना पड़ा तभी सही उच्चारण बना ...
कहानी पर टिप्पणी बाद में लेकिन ह्यूस्टन में दक्षिणी अमेरिकी लोग काफ़ी ज्यादा हैं इसके चलते स्पेनिश भी अच्छी खासी बोली जाती है। यही हमारी समस्या है क्योंकि लोग कभी कभी हमारे नाम Neeraj Rohilla को नीरा रोहिया बुलाते हैं, ;-)
नीरा रोहिया...
यह एक महत्वपूर्ण आलेख है ।
धन्यवाद! इस पर और खोजेंगे.
बढ़िया पोस्ट है जैसे खुले वातायन से आई ताजा हवा.
इलाहाबाद से लौटकर ब्लॉग की कठहुज्जत के बीच अजदक और निर्मल आनंद पर मेरी नजर टिक गई। बोर्खेज (जिस भी वजह से हो
, लेकिन बोर्खेज नाम से ही किया गया इनकी कहानियों का अनुवाद मेरे हाथ लगा था। मैं अपने एक अनुवादक और प्रकाशक मित्र के साथ मिलकर उनकी कहानियों की एंथोलॉजी तैयार करने का काम कर रही थी उन दिनों) की कहानियां मैंने कुछ 6 बरस पहले पढ़ी थीं और सच तो ये है कि तब कुछ खास पल्ले नहीं पड़ी। अनुवाद भी बहुत ज्यादा जटिल था शायद। फिर करीब डेढ़ बरस पहले फिक्शंस खरीदकर आलमारी में सजाई हुई है, पढ़ने की रोजी नहीं हुई। हां इलाहाबाद से लौटते हुए 12 से चौबीस घंटे की हुई यात्रा में मैंने मिलान कुंदेरा के द जोक के 200 पेज पढ़ डाले। इलाहाबाद की उस जानी-पहचानी दुनिया से लौटते हुए इस किताब के साथ ज्यादा अंतरंग रिश्ता बना है। सचमुच हैरान हूं...
स्पेनी से सीधे अनूदित होर्खे लुईस बोर्खेस की दो उम्दा कविताएँ--
आत्महत्या (अनु॰ श्रीकांत दुबे)
काव्य-कला (अनु॰ प्रभाती नौटियाल)
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