फ़रीद खान
अभी कुछ ही दिन पहले की बात है कि जब अमेरिका के साथ परमाणु समझौता गरम था तब मायावती ने अपना मुस्लिम कार्ड फेंका और बयान दे दिया कि चूँकि मुस्लिम समुदाय अमेरिका के विरोध में है इसलिए यह डील नहीं होनी चाहिए।
मुझे तो ऐसा कोई मुसलमान नहीं दिखा जो अमेरिका विरोधी हो.. असल में उसे पता ही नहीं कि उसे अमेरिका का विरोध किस बात का करना है।
यह बयान देने वाली मायावती मूर्ख भले न हो.. पर इसके आधार पर मायावती को अपना हितैषी मानने वाले मुसलमान ज़रूर मूर्ख हैं। और इसके आधार पर अमेरिका के पक्ष में जिन लोगों का ध्रुवीकरण हुआ वे भी मूर्ख हैं। क्योंकि किसी सामान्य भारतीय की तरह मुसलमानों को भी इस डील के बारे में कुछ नहीं पता।इसलिए वे किसी भी सामान्य नागरिक की तरह न तो डील के पक्ष में हैं न विरोध में। पर नेता मुसलमानों को सामान्य रखना ही नहीं चाहते।
अगर मायावती डाल डाल तो मुलायम लालू पात पात।
अभी अभी लालू और मुलायम का बयान देखा टी वी पर कि सिमी पर से प्रतिबंध हटा लेना चाहिए... क्यों ? क्या यह संगठन मुसलमानों की बेरोज़गारी दूर करने की बात करता है? क्या यह संगठन मुसलमानों की अशिक्षा दूर करने की बात करता है? .. नहीं.. बिल्कुल भी नहीं। दुर्भाग्य पूर्ण स्थिति तो यह है कि किसी भी पार्टी ने इसका विरोध नहीं किया। भाजपा से तो इसलिए इसके विरोध की उम्मीद नहीं की जा सकती कि जब यह मामला ज़ोर पकडेगा तो उसकी राजनीति को बल मिलेगा। क्योंकि भाजपा जैसी राष्ट्रवादी पार्टी भी दूसरों की तरह भारतीयों की राष्ट्रियता को हिन्दू, मुसलमान, सिख, ईसाई के रूप में देखती है।
इधर लालू और मुलायम, मायावती से अपनी स्पर्धा में लगे हैं.. कि कौन कितना बडा मुसलमानों का हितैषी हैं।
मायावती, मुसलमानों को अमेरिका विरोधी बोल बोल के उसे अमेरिका का विरोधी बना देती है और लालू मुलायम, सिमी को मुसलमानों का हितैषी बोल बोल के एक आतंकवादी संगठन को आम मुसलमानों से जोडने का रास्ता साफ़ कर रहे हैं।
सिमी ने उन मुसलमान नौजवानों को पकडा, जो इस देश के किसी भी नौजवान की तरह अपनी बेरोज़गारी, अशिक्षा, ग़रीबी और हताशा के कारण असंतोष के शिकार हैं। उन्हें मुस्लिम राष्ट्रीयता के गौरव के डण्डे से हाँका; ‘गर्व से कहो हम हिन्दू हैं’ से प्रेरणा ले कर। और उस असंतोष को उसने साम्प्रदायिक दिशा दे दी जो आगे चलकर आतंकवादी गतिविधि में तब्दील हो गई।
मैंने एन डी टी वी के कमाल ख़ान की रिपोर्ट में ही पहली बार एक चीज़ देखी.. सिमी का एक बैनर, जिसमें टैग लाईन था- “इलाही.. भेज फिर एक महमूद कोई”। ..कौन है यह महमूद? ग़ज़नी? आख़िर क्यों मुसलमानों को उस ग़ज़नी से प्रेरणा लेने की बात सिमी कर रहा है? सिर्फ़ इसलिए कि वह मुसलमान था? तो भाई साहब वह बादशाह था.. आततायी था.. विध्वंसकारी था..। एक तरफ़ तो ऐसे आततायी गज़नी को सिमी, इस्लाम का नायक बना कर प्रचारित कर रही है जबकि इस्लाम में बादशाहत के लिए कोई जगह ही नहीं है; और दूसरी तरफ़ इस्लाम को एक क़ौम के रूप जो कि कोई क़ौम नहीं है।
अगर इस्लाम सच में कोई राष्ट्रीयता(क़ौमियत) है तो इस्लाम के पहले मुहम्मद साहब के पूर्वजों की राष्ट्रीयता (क़ौमियत) क्या थी? कुछ भी नहीं? भाई मेरे, मुहम्मद साहब के माध्यम से इस्लाम का उदय हुआ, पर एक चीज़ जो उनके पहले भी थी और उनके बाद भी रही.. वह है वहाँ के लोगों की राष्ट्रीयता (क़ौमियत).. और वह है अरब या अरबी। फिर ‘उस राष्ट्रीयता’ में भारत के मुसलमानों के लिए कहाँ जगह है?
फिर भारत का मुसलमान क्यों किसी अरबी या ईरानी या अफ़्ग़ानी से प्रेरणा ले? पर सिमी भारतीय नौजवानों के ज़ेहन में मज़हब और क़ौमियत(राष्ट्रीयता) का गडमड करके ज़हर घोल रहा है और भारत की परम्पराओं से उन्हें काट रहा है जिनका समर्थन लालू व मुलायम जैसे “ग़ैर-आतंकवादी” कर रहे हैं।
असल में राज्य शक्ति जब तक दमन से असंतोष को कुचल सकती है, तब तक वह उसे बख़ूबी कुचलती है। पर जब हालात विस्फोटक होने लगते हैं, सत्ता के पलटने का ख़तरा बनने लगता है, तब ही उस असंतोष को साम्प्रदायिक चोग़ा पहनाने के लिए सिमी जैसे संगठन का उदय होता है। ताकि उस असंतोष की दिशा को बदला जा सके।
इसलिए ध्यान देने की बात यह है कि इंदिरा गाँधी के काल तक आम नौजवानों के असंतोष का भरपूर दमन किया गया.. पर जैसे ही स्थिति विस्फोटक होने लगी, बागडोर साम्प्रदायिकता और आतंकवाद के हाथ में चली गई। जिन भस्मासुर को इंदिरा जी पैदा किया था, उसी ने (आतंकवाद ने) उन्हें भस्म कर दिया। यह संयोग नहीं है कि सिमी जैसे संगठन और बजरंग दल जैसे संगठन लगभग एक ही समय में उपजे। लगभग एक ही समय शाहबानो केस और रामजन्म भूमि विवाद उठा। लगभग एक ही समय बाबरी मस्जिद में नमाज़ अदा करवाई गई और पूजा पाठ करवाई गई। क्यों ?
..असंतोष आम नौजवानों में होता है, जिसे हिन्दू और मुसलमान बता कर साम्प्रदायिक दिशा दे दी जाती है और वे अपनी नफ़रत में इतने अँधे हो जाते हैं.. कि दंगे और आतंक का रोज़गार थाम लेते हैं। इतना समझने के बावजूद मुसलमान, मायावती, मुलायम और लालू को अपना हितैषी मानते हैं और हिन्दू भाजपा और काँग्रेस को।
कल तक जो चीज़ें साम्प्रदायिक थीं वे आज आतंकवादी रूप धारण कर चुकी हैं.. अगले विकास की कल्पना कर पाने में मैं अक्षम हूँ।
नेता अपनी नीचता की स्पर्धा में लगे हैं और अंततः ठगा जाता है हिन्दू भी, मुसलमान भी।
फ़रीद मेरे दोस्त हैं और मेरे ब्लॉग पर गाहे-बगाये लिखते रहते हैं, उनकी लिखी अन्य पोस्ट देखें..
इब्लीस की नाफ़रमानियाँ और अल्लाह
फ़रीद खान की कविता
26 टिप्पणियां:
ठगा जाता है हिन्दू भी, मुसलमान भी।
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और ठगी जाती है " इन्सानियत " जो किसी मजहब/ धर्म की मोहताज नहीँ
बल्कि हरेक विचारधारा की रुह है !
-~~ लावण्या
बहुत ही सुलझी और संतुलित पोस्ट. ज़रूरत है जिम्मेदार लोगों को सामने आकर गुंडों को यह बताने की धर्म को हाइजैक नहीं होने देंगे - न हिंदू गुंडों द्वारा न मुसलमान गुंडों द्बारा - और न ही देश के अन्दर-बाहर घूम रहे किसी भी दुश्मन के द्वारा. सद्भावना की कुंजी शिक्षा, विकास और स्वतंत्रता में है और इन तीनों की रक्षा और विकास की कोशिश हम सब को मिलकर ही करनी है.
बधाई!
we apni nafrat me itne andhe ho jaate hain ..ki dange aur aatank ka rozgaar tham lete hai. sateek hai.badhai farid bhai ko aur aapko bhi abhay jee
फरीद जी आप की बात से बिल्कुल सहमत हूँ. जाति और धर्म के नाम पर वोट पाने की इच्छा रखने वाले राजनीतिक नेताओं ने भारत का और हिंदू, मुसलमान या अन्य धर्म वालों का अहित किया है, और करते जा रहे हैं. पर आज इतनी साधारण सी बात समझाना भी कठिन लगता है. यह लोग शिक्षा, नौकरी, विकास की बात नहीं करते, धार्मिक अस्मिता की बात करते हैं.
'नेता अपनी नीचता की स्पर्धा में लगे हैं', बिल्कुल सही बात है. यह सब तो नफरत के सौदागर हैं, जो नफरत बेच कर वोट खरीदते हैं. इन्होनें राजनीति की बिसात बिछा दी है, हिंदू और मुसलमान इस बिसात पर ख़ुद को गोटियां बना कर पेश करते हैं. राजनीति के यह खिलाड़ी इन गोटियों से सत्ता की शतरंज खेलते हैं. हिंदू गोटियाँ कम हैं पर मुसलमान गोटियों की संख्या बहुत ज्यादा है. इसलिए हर राजनीतिबाज मुसलमानों की गोटियों के पीछे भागता रहता है. मुसलमान भी सजी-धजी गोटियाँ बन कर इस बिसात पर आकर अपने स्वार्थ सिद्ध करने के चक्कर में लगे रहते हैं. ६० सालों से मुसलमान इन सौदागरों के हाथ बेबकूफ बन रहे हैं, पर कुछ सीखते नहीं.
achacha pravachan....mohalla banne ki badhayi...
सर,
सियासत के सबसे बड़े आधार में से एक है धर्म. सियासत में धर्म से अधिक पैना हथियार कोई नहीं. ये गलत है ... खतरनाक है... और सच है.
१००% सही कहा भाई आपने , वैसे आप गलत कहते कब हो :) लेकिन हम तो इन्ही टुच्चो लुच्चो को चुन कर इन्ही की घटिया शासनमे जीने के लिये अभिशिप्त है मेरे भाई. ये साईड बार वाली फ़ोटो की कौनो खास जरूरत नाही है हम तो वैसे भी आपसे डरते है जी :)
बहुत बेबाकी से बात रखी है फरीद भाई ने। और ये लाइन तो जबरदस्त है कि नेता अपनी नीचता की स्पर्धा में लगे हैं...
यह पोस्ट कीमती है, सम्भाल कर रखना.
एक बार मुहल्ला पर फरीद खां के लिखे की शैली से असहमत हुआ था . आज के लिखे से सहमत हूं और शैली भी सधी हुई है .
फ़रीद भाई, प्रौढ़ एवं वस्तुस्थिति परक चिन्तन एवं वक्तव्य के लिए बधाई।आपकी तरह विचार करनें वालों का वृन्द बढ़े,यही कामना रहेगी.
farid ji ki soch kabil a tarif hai mujhko lagta hai istarha k vichar aur bhi mohamad k aane chaiye tavhi ek accha soch ki paidawar badha g.
मैं फरीद भाई के विचारों से पूरी तरह से सहमत हूं. मैं उनसे आग्रह करता हूं कि वे अपने विचारों को नियमित रूप से जाहिर करते रहें.
मेरे ख्याल से हमें तर्कसंगत शिक्षा पर जोर देना चाहिए और पाठ्यपुस्तकों में धर्म का जिक्र सावधानी से और वैज्ञानिक और तार्किक तरीके से करना चाहिए. पुराने हो चुके लोगों की मानसिकता नहीं बदली जा सकती. पर, बच्चों की कल की दुनिया तो धर्म के बोझ से हल्का हो. धर्म के हानिकारक प्रभाव को धर्म की अच्छी बातें बता-बताकर कम नहीं किया जा सकता. जरूरत है धर्म को सिरे से नकारने की. यह मेरी व्यक्तिगत राय है. पर,फरीद भाई लिखते रहें.- अनिल
yahi baat agar aam hindu muslmaano ko .. samajh mein aa jaaye .. jo iss tarah ke rajnaitik latthbaazi ke shikaar ban jaate hain ... na janate hue na samjhate hue ... tab shayad hum eik shant .. aour sunder bhawishya ki kalpana kar skate hain ... anyatha .. issi tarah rajneta kabhi hindu ke naam par kabhi musalmaan ke naam par .. kabhi marathi ke naam par to kabhi north indian ke naam par apnin apnin rotiyan senkate rahenge .
achhi post hai. kai baar musalmano ko khaanche me fit kar diya jaata hai aur unhe waisa hi dekhne ya banaye rakhne ki koshish hoti haim. ye shaktiyan samudaay ke andar bhi hai aur bahar bhi. aap inhe asaani se pahchaan sakte hain.
ये सारी समस्याएं तुष्टीकरण की राजनीति के चलते है -विचारपरक आलेख !
फरीद जी का "शर्मनाक है मुसलमानों के नाम पर राजनीति" आज हमारे देश में जो कुछ भी धटनाएं धट रहीं है साम्प्रादयिकता के नाम पर.एक बहुत ही शर्मनाक स्थिती बन गई है.हम नौजवानो को, चाहे वो मुस्लिम हो,हिन्दू हो या कोई भी मजहब, एकजुट होकर बडी ताकत के रुप में सामने आने की ज़रुरत है.तभी हम साम्प्रादयिकता के नाम पर जो गन्दी राजनीति हो रही है,इसमें हिन्दू और मुस्लिम धर्म के नाम पर चन्द वोट के लिए, राजनीतिक दल अपने निहित स्वार्थ की पूर्ती में लगें हैं.हमें ऎसी ताकत को नष्ट करने के लिए बौधिक लडाई लडने की ज़रुरत है,नया भारत बनाने की ज़रुरत है.फरीद जी उस लडाई की एक कडी हैं....
मुबारक। फरीद खान। आज मैं ने सैंकड़ों मुसलमानों को देखा जो कारगिल युद्ध के शहीद स्मारक पर इकट्ठे हो कर आतंकवाद के विरुद्ध एक हो रहे थे।
इसी की है जरूरत आज। विश्वास है कि हिन्दुस्तान आतंकवाद का मुकाबला करने में सक्षम है, चाहे वह इस्लाम के नाम पर आए या फिर किसी और बहाने।
kaphi achha laga aap ka lekh padh kar.sach kahoo to aaj ke zamane main mughe dharm se vidhwanshkari hatiyaar mughe koie aur nahi dikhta eis sandharb main khan sahab aap ka lekh aur bhi samsamayik ho jaata hai .kya kahe jis raam alhaa isaa ko aaj ke yug main maarg darsak ke roop main istemal hona thaa wo hatiyaar ke roop main istemaal ho raha hai raam hi jaane ya alha pata nahi kya maazra hai .jagat
राजनेताओं को तो वोट से मतलब है, चाहे वह रक्त से सना ही क्यों न हो। यदि अशिक्षा व बेरोजगारी मिट गयी तो आंख मुंदकर वोट कौन डालेगा, जलसों में नारेबाजी कौन करेगा। इस देश के हिन्दुओं व मुसलमानों दोनों को समझना होगा कि जो लोग उनके समाज की अशिक्षा दूर करने की कोशिश नहीं कर रहे, उनके सच्चे हितैषी नहीं। भावनाएं भड़काने वाले लोग सिर्फ इस्तेमाल करना जानते हैं।
फरीद खान जी को पढ़कर अच्छा लगा।
फरीद की बात एकदम सही है ।
दरअसल मुस्लिमों के नाम पर राजनीति और आतंक की कई दुकानें चल रही हैं । इस्लाम को कोट और मिस कोट किया जा रहा है । कई बार तो इस्लाम वाले ही असली इस्लाम को समझते नहीं हैं ।
farid sahab ne hamesha ki tarah ..doodh ka doodh aur pani ka pani kiya hai ,, balki unhone ek nayi sarthak bahas ka bigul bhi bajaya hai .... jisse hum sab ke zahan me ek bada..prashnchinh vichar ke roop me utpann huwa hai. kuch purani panktiyo ke saath
mazhab nahi sikhata apas me bair rakhna .. insan hai sab daram se sara jahan humara
farid miya, ek sensativ aur uljhe huye vishay ko itani saralta se aap ne kaha hai, isake liye aap badhai ke patra hai. ek aam aadami ki pida ye hai ki apna astitv banaye rakhane ke liye wo kisi naa kisi rajnitik party ka hiss bun jaata hai, ki usi ke madhyam se kam se kam uski zarurat ki koi na koi baat to puri ho jaye. usse Rastra, Desh, Dharm, Jaati, Ucha-Nicha, aalag aalag nazariye se padhaya, samjhaya jaata hai. aur ye 'Rajnitik partyian' kabhi nahi chahati ki ek aam nagri apni waiktigat sooch rakhe. aapka lekh iss disha mei ek sarahniye kadam hai. Aur Abhayji aap ko bhi iss lekh ko prakashit karne ke liye. Seema azmi.
"सिमी ने उन मुसलमान नौजवानों को पकडा, जो इस देश के किसी भी नौजवान की तरह अपनी बेरोज़गारी, अशिक्षा, ग़रीबी और हताशा के कारण असंतोष के शिकार हैं। उन्हें मुस्लिम राष्ट्रीयता के गौरव के डण्डे से हाँका; ‘गर्व से कहो हम हिन्दू हैं’ से प्रेरणा ले कर। और उस असंतोष को उसने साम्प्रदायिक दिशा दे दी जो आगे चलकर आतंकवादी गतिविधि में तब्दील हो गई।"
actually, nationalism is cause and effect of both communal fascism and terrorism.
nationalism in it self sectarian in nature whether u base nationalism on caste...religion...race...nation state, u tend u exclude others, only at ur cost. and there starts business of hate, exclusion, instrumentalization of common poverty affected population especially youth(across cate...race...religion).
I see a vicious cycle of nationalism-communalism-terrorism-nationalism.
so first to identify this vicious cycle then to break this cycle is unavoidable now.
the burden rests on us pepole... youth...intellectuals...writers...poets...actors...artists... and above all people who believes in the ideaology of oneness of vulnerables.
great work comorade...your comment and article on nationalism,secularism and politics which in combination forms a vicious cycle and its immidiate effect on todays youths is highly appreciating ..... keep up the spirit and torch burning...
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