सोमवार, 28 जुलाई 2008

आतंकवाद: कुछ विचार

१) एशिया में इस्लामी तालीम का सबसे बड़ा केन्द्र दारुल उलूम देवबन्द दहशतगर्दी को इन्सानियत के खिलाफ़ ‘क़ाबिले नफ़रत जुर्म’ क़रार दे चुका है और कह चुका है कि इस्लाम इंसाफ़ की जंग में भी बेगुनाहों, इबादतगाहों और तालीमी मरकज़ को निशाना बनाने से मना करता है। पिछले साल दिए गए इस फ़त्वे के मुताबिक़ चन्द अत्याचारी लोग मुसलमानों और इस्लाम को बदनाम कर रहे है।

इस्लाम के इतिहास में और शेष दुनिया के इतिहास में हिंसा की क्या भूमिका रही है.. यह सब एक स्वतंत्र चिंता और अध्ययन का मसला है। अभी इतना समझा जाय कि इस्लामी दीन के आलिमो फ़ाज़िल आतंकवाद को ग़ैर-मज़हबी घोषित करके ऐसे सभी लोगों को अपने समाज की मुख्यधारा से काट कर फेंक चुके हैं जो अपने दिमाग़ की हिंसक बीमारियों की अभिव्यक्ति इस्लाम के नाम पर कर रहे हैं।

और इसलिए हर आतंकवादी हमले के होते ही इस्लाम-विरोध की माला जपने वाले अपने उन तमाम भाई-बहनों से मेरा विनम्र निवेदन है कि कृपया बाज़ आयें। क्योंकि न तो आप इस्लाम को जानते हैं न स्वयं अपने धर्म को। आप मात्र अपने पूर्वग्रहों को जानते हैं। उन के अँधेरे में खड़े होकर बौखलाये नहीं..एक दुर्घटना हुई है। कुछ घर हमेशा के लिए तबाह हो गए हैं। मनुष्य के अमूल्य जीवन के साथ खिलवाड़ हुआ है। ये एक दूसरे पर उंगलियाँ उठाने का अवसर नहीं है। कोशिश करें कि संयत रहें और अपने बने-बनाए नज़रिये से ऊपर उठकर एक इंसान की तरह सोचें।

२) समीर भाई ने लिखा है कि वे एक टिप्पणी का १२१ बार प्रयोग कर चुके हैं- 'दुर्भाग्यपूर्ण, अफसोसजनक एवं निन्दनीय!!!' उनकी इस बात में बड़ी विडम्बना है। क्योंकि देश के तमाम नेता, चाहे कांग्रेस के हो या भाजपा के या अन्य किसी भी दल के.. इसी टिप्पणी का इस्तेमाल कर रहे हैं। और न जाने कब से कर रहे हैं। और आगे भी करते रहेंगे। क्योंकि इसके अलावा उनके पास करने को कुछ नहीं है। क्यों? क्योंकि शांति बनाए रखने के लिए सभी का सहयोग चाहिये होता है और शांति भंग करने के लिए एक सिरफिरा ही काफ़ी है।

३) ऐसा मालूम होता है कि भाई शिवकुमार बुद्धिजीवियों से (मुझ से?) खफ़ा हैं।आखिर वो चाहते क्या हैं ? क्या किया जाय..? गाली दी जाय कि सारे मुसलमान आतंकवादी होते हैं..? “सब को मार दो.. तभी आतंकवाद खत्म होगा!”.. ऐसा बोल जाय? यदि सब लोग मिल कर समवेत स्वर में ऐसा बोलें तो क्या इस से आतंकवाद की समस्या सुलझ जाएगी? या इस विचार के कार्यान्वन से सुलझ जाएगी? मोदी जी ने इसी फ़ॉर्मूले के तहत गुजरात की मुस्लिम आबादी का दमन किया था। क्या हुआ?

साथ में ये भी कहा जा रहा है कि भारत चूँकि सॉफ़्ट स्टेट है इसलिए उसे आतंकवाद का दंश झेलना पड़ रहा है। ऐसा सोचने वाले महानुभावों का मत होता है कि आतंकवाद से निबटने के लिए अमरीका और इस्रायल की नीति का अनुसरण करना चाहिये। क्या ऐसे लोग जानते नहीं कि इस्रायल की तथाकथित ‘आतंकवाद’ की नीति बुरी तरह से असफल है?

पहले तो ये कि एक स्वतंत्र देश फिलीस्तीन में क़ब्ज़ा करने वाले विदेशी इस्रायलियों के विरुद्ध संघर्ष करने वालों को आप आतंकवादी कैसे कह सकते हैं? सच तो ये है कि इस्रायल अपने चरित्र में एक मध्ययुगीन आततायी देश है। जो निरन्तर युद्धरत रह कर फिलीस्तीनियों को कुचलने में अपनी पूरी ऊर्जा से संलग्न है मगर फिर भी असफल है। और उसके संदर्भ में एक शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व की बात वैसे ही है जैसे एक महामूढ़ से न्यूक्लीयर एनर्जी से सम्बन्धित वार्तालाप करना।

रही बात अमरीका की आतंकवाद के मोर्चे पर सफलता की.. तो अगर आप अमरीका के भीतर आतंकवादी हमलो में मारे लोगों की संख्या देखेंगे तो धोखा खा जायेंगे। इस सफलता को सही-सही समझने के लिए इराक़ और अफग़ानिस्तान में मरे हुए अमरीकियों की गिनती कीजिये। करी?

४) आतंकवाद की आप को अस्सी परिभाषा मिल जायेंगी। जो चाहता है अपनी तरह से व्याख्या कर लेता है। पर जो भी हो रहेगी तो शुद्ध हिंसा ही। आज अमरीका और योरोप जिस ‘सभ्यता’ की दुहाई देते नहीं थकते उसकी बुनियाद में घनघोर हिंसा दबी पड़ी है। खुद अमरीका को महाशक्तिमान की पदवी हिरोशिमा और नागासाकी के बमकाण्ड के बाद ही मिली। क्या उसे आतंकवाद माना जाएगा ? या बलशाली की हिंसा आतंक नहीं कहलाती?

५) आतंकवाद अपेक्षाकृत नया शब्द है मगर राज्यसत्ता के प्रति प्रतिरोध पुराना है। और इस संघर्ष में आम जनता अछूती नहीं बनी रहती थी। बालाजी राव पेशवा के समय जब मराठे बंगाल, बिहार और उड़ीसा से चौथ वसूली की प्रक्रिया में उतरते तो जिधर से गुज़रते अपने पीछे जलते हुए गाँवों की एक लड़ी बनाते हुए चलते। उनका संघर्ष अलीवर्दी खान से था और गाँव वाले बेक़सूर थे मगर फिर भी वे मरते और तबाह होते। क्योंकि ये मराठों के युद्ध का एक पैंतरा था।

६)मनुष्य अभी भी एक हिंसक प्राणी है और एक ऐसे समाज में रहता है जिस की बाग़डोर राज्यसत्ता के खून-सने हाथों में है। राज्य चाहता है कि हिंसा का आचरण सिर्फ़ उसके संस्थाओ तक सीमित रहे मगर हमेशा ऐसा होता नहीं। कभी सत्तर के दशक में बंगाल के नौजवान नक्सलबाड़ी का नाम लेकर विद्रोही हो जाते हैं। कभी अस्सी के दशक में पंजाब के सिख खालिस्तान के सपने से मतवाले हो जाते हैं और फिर कभी दुनिया भर में मुस्लिम नौजवानों में जेहाद का जुनून सवार हो जाता है। मगर सत्ता कोई भी हो बाग़ियों के साथ एक जैसे पेश आती है.. दमन।

७)ये सच है कि ये ‘इस्लामिक’ आतंकवादियों का ये जुनून बीस सालों से जारी है। और ये कब तक जारी रहेगा ये न आप जानते हैं न हम। भारत में होने वाले आतंकवाद के तार पाकिस्तान, अफ़्ग़ानिस्तान से लेकर इंगलैण्ड और अमरीका तक फैले हुए हैं। यह एक अंतराष्ट्रीय परिघटना है और इस आग में अमरीका और इस्रायल निरन्तर घी (पेट्रोल) डाल रहे हैं।

८) आखिर में एक क्रूर सवाल। इस दुखद घटना में मरने वालों की संख्या कितनी है? पचास निर्दोष लोग मारे गए और सैकड़ों घायल हैं। आप जानते हैं सिगरेट और गुटका रोज़ाना कितने लोगों की जान ले रहा है? बाज़ार में जेनेटिकली मॉडिफ़ाइड बीजो के आने के बाद से कितने किसानों ने आत्महत्या की इसका आँकड़ा तो आप के पास ज़रूर होगा। आप को क्या लगता है गर्भ में मार दी जाने वाली लड़कियों की संख्या ज़्यादा है या बम फटने से मरने वालों की?

९)मेरा आशय आतंकवाद का बचाव नहीं है लेकिन आप का ध्यान उस साज़िश की तरफ़ खींचना है जिसके तहत तमाम ज़्यादा ज़रूरी मुद्दों से आप की चिंता को हटा कर इस कम ज़रूरी मुद्दे की तरफ़ केन्द्रित कर देना चाहते हैं। क्यों? क्योंकि यह मुद्दा हमें बाँटता है और हमारे बँटने से हमारे भीतर एक शत्रुभाव पैदा होता है जिसका लाभ उठाकर ये मतलबपरस्त राजनैतिक दल हमें अपने पीछे आसानी से गोलबन्द कर लेते हैं और अपना मतलब साधते हैं। वे सभी लोग जो राजठाकरे की विभाजक राजनीति की असलियत पहचानते हैं और खूब समझ लेते हैं मराठे-भैया के द्वन्द्व में कितना सत्व है। अफ़सोस की बात है कि वो लोग भी हिन्दू-मुस्लिम मामले में गच्चा खा जाते हैं।

23 टिप्‍पणियां:

Udan Tashtari ने कहा…

आपने भी सिर्फ समस्या की व्याख्या ही की है अभय भाई, कोई हल या समाधान पर तनिक भी प्रकाश नहीं डाला, फिर नेताओं या मेरे द्वारा इस्तेमाल की टिप्पणी 'दुर्भाग्यपूर्ण, अफसोसजनक एवं निन्दनीय!!!' और शिव जी का आलेख, जो कि स्वयं भी समाधान की ओर इंगित नहीं करता, उसमें और आपके सजग आलेख में क्या फर्क है.इस्लाम को गाली बकें, आतंक को आतंक न मानकर एक घटना कहें या हिन्दुओं को बर्बर घोषित कर दें..हर हाल में यह घटनाऐं तो होती ही रहेंगी और हम आप ऐसा ही कुछ लिख कर मूँह बाये पूछते रहेंगे कि क्या करुँ: गाली बकूँ या सब को मार दूँ-क्या इससे आतंक खत्म हो जायेगा?? जब इससे भी नहीं हो रहा और उससे भी नहीं हो रहा तो कम से कम अपनी बोल कर ही मन हल्का कर लेने में क्या बुराई है.

खुद का गाल बजाने से उत्पन्न ध्वनि भी कई बार सुकून देती है, इतना की गाल पर पड़ रही अपने ही हाथों की चोट का अहसास भी नहीं होता.

अन्यथा न लिजियेगा-बस, अपनी बात रख रहा हूँ. आपकी बात काटना-यह उद्देश्य नहीं है.

बेनामी ने कहा…

शानदार लेखन। बधाई स्‍वीकार करें।

बोधिसत्व ने कहा…

आतंक किसी भी तरह का हो उसकी विरोध किया ही जाना चाहिए...मैं आपसे सहमत हूँ....

Rajesh Roshan ने कहा…

इस पोस्ट की तारीफ़ कैसे करू..... कभी लिखा था विश्व की दस बड़ी समस्याये, आतंकवाद को दसवा और पिने के साफ़ पानी के आभाव को पहला.... मेरे दोस्त ने कहा ये क्या यार... आतंकवाद और ग्लोबल वार्मिंग से भी बड़ी कोई समस्या है क्या? मैंने कहा साफ़ पानी नही मिलने के आभाव से ना जाने अब तक कई करोड़ लोग मारे जा चुके हैं.... आतंकवाद से तुम्हे ज्यादा पता होगा...

Arvind Mishra ने कहा…

प्रभावशाली विश्लेषण -मगर यह सोचना होगा कि आज भी कुछ कौमें क्यों अपने गुफा जीवन के मूल्यों से जुडी हैं ?

अभय तिवारी ने कहा…

समीर भाई, आप की बात को अन्यथा लेने का प्रश्न ही नहीं उठता। आप ने अपनी शैली छोड़कर टिप्पणी की.. यह तो और भी अच्छी बात है। रही बात हल और समाधान की- तो मैं हल भी दे सकता हू~ और समाधान भी.. बस पहले एक बार आप वित्त मंत्री जी से दस साल में एक लाख किसानों की आत्महत्या का समाधान/ हल ले आईये..आशा है आप भी मेरी इस शर्त को अन्यथा न लेंगे और बात का मर्म समझेंगे।
हल एक अच्छे माहौल और न्यायपूर्ण व्यवस्था में है.. मगर वो भी आतंक को रोकने की गारंटी नहीं है। एक मानसिक रोगी को आप कैसे रोक सकेंगे? जबकि सामूहिक हत्या की तकनीकि और साधन आसानी से हासिल किए जा सकते हैं? वैज्ञानिक प्रगति के कुछ डाउनसाइड भी होते हैं।

Smart Indian ने कहा…

देओबंद को सबसे बड़ा केन्द्र कहना प्रमाणिक नहीं है - बरेली के अनुयायी कहीं अधिक हैं.

संजय बेंगाणी ने कहा…

समय से पहले सजगता दिखाई है आपने, अभी तो गिरफ्तारियाँ शुरू भी नहीं हुई है, मौत के सौदागरों की और आपने लिखना भी शुरू कर दिया?!!!!


इजराइल का अस्तित्व मुसलिम देशों के बीच बना हुआ है क्या यह उसकी सफलता नहीं है?


शिवजी जैसे लोग कुछ भी लिखते है...आप जारी रहें शायद आतंकवाद मिट ही जाए.

और परम पूज्य यह किसने कहा की सभी मुसलमानो को मार दो? मगर काण्ड के पीछे जिनका हाथ है उनका नाम भी न लो?

बेनामी ने कहा…

इस गम्भीर समस्या पर हमने 'समकालीन सृजन' पत्रिका का तीन सौ पृष्ठ का एक पूरा अंक प्रकाशित किया था 'धर्म,आतंकवाद और आज़ादी' विषय पर . सम्पादकीय के हिस्से आप 'समकाल' ब्लॉग पर जाकर पढ सकते हैं . सुविधा के लिए लिंक दे रहा हूं :

http://samakaal.wordpress.com/2007/04/11/dharma-ka-dharmasankat/

http://samakaal.wordpress.com/2007/04/19/sociology-of-religion-terror/

http://samakaal.wordpress.com/2007/04/26/terror-liberty/

अभय तिवारी ने कहा…

संजय भाई,
बात यहा~ आतंकवाद के खिलाफ़ सफलता की हो रही है या इस्रायल के अस्तित्व की? नॉल पर आतंकवाद पर एक लेख में शेख मोहसिन सवाल करते हैं- Hitler killed 6 million Jews. The Palestinians welcome the Jews. Later on the Jews kick the Palestinians out of their own land and when the Palestinians are fighting to get their land back they are labeled as Terrorists. It is like I welcome a stranger in my house. After a few days that person throws me out of my house and when I shout out side my house that I want my house back, you call me a Terrorist.
आप चाहते हैं मैं 'दुर्भाग्यपूर्ण, अफसोसजनक एवं निन्दनीय!!!' कहूँ और फिर आतंकवादियों का नाम लूँ.. ? किसका नाम लूँ.. आप को पता है काण्ड के पीछे जिनका हाथ है उनके क्या नाम हैं? या फिर हूजी, लश्कर आदि को गरिया कर हाथ झाड़ लूँ तो आप तुष्ट हो जाएंगे?

Unknown ने कहा…

अभय भाई नाराज होने की जरूरत नहीं है, संजय भाई का मंतव्य यह होगा कि क्यों अमेरिका और इसराइल सतत आतंकवादियों के निशाने पर होने पर भी वहाँ भारत के मुकाबले कम घटनायें होती हैं… हमारा खुफ़िया तंत्र बेहद कमजोर हो चुका है और कानून लचर, ये बात कोई क्यों नहीं मानता? "उनके" हमला करने से पहले हमें सूचना मिल जाये और हम उन पर टूट पड़ें ऐसी व्यवस्था कायम होना चाहिये…

drdhabhai ने कहा…

सारे मुसलमान आतंकवादी नहीं होते ,पर सारे आतंकवादी मुसलमान होते हे,इस पर क्या कहना है आपका.
रही बात इज्राइल की तो अपनी भूमि से मुसलमान आतताइयों द्वारा यहूदियों को निकाल बाहर करना यह आतंकवाद था,सैंकङों वर्षों के बाद अब वे फिर अपनी भूमि पर काविज हैं और उसकी रक्षा कर रहे हैं ,ये आतंकवाद कैसे हुआ ...जरा समझायेंगे

अभय तिवारी ने कहा…

मिहिरभोज जी आप से यही कहना है कि थोड़ा पढ़्ने-लिखने में अच्छा रहता है.. हानि जो भी होती है पूर्वग्रहों की..आप के पास अधूरी और ग़लत जानकारियाँ हैं।

बालकिशन ने कहा…

आपसे पूर्ण सहमति है.
कई दिनों बाद आपकी इस पोस्ट के माध्यम से ब्लॉग जागत को बहस का एक सार्थक मुद्दा प्राप्त हुआ है.
आपने बहुत ही विचारोत्तेजक लेख लिखा भाई साब.
समस्या को समग्र रूप से देखने का आपका ये प्रयास वास्तव में प्रसंशनीय है.
अगर ये बहस कुछ आगे बढे तो इसके परिणाम आपकी आशाओं के अनुरूप ही होंगे.
आमीन.

अनिल रघुराज ने कहा…

@ संजय बेंगाणी, मिहिरभोज और सुरेश चिपलूनकर
बंधुओं, सुषमा स्वराज के बयान के बाद साफ हो ही गया होगा कि इन मौतों के बाद 'सौदागरी' कौन कर रहा है।
दूसरी बात, जब साफ हो गया कि मायावती की मजबूत दावेदारी के बाद अगले चुनाव का मुद्दा महंगाई और आम आदमी की परेशानी बनेगा तो आडवाणी एंड कंपनी को लगा कि इसकी काट के लिए आतंकवाद को मुददा बनाना ज़रूरी है और फौरन दो बीजेपी शासित राज्यों में धमाके हो गए। यह महज संयोग नहीं है। राज्यों की खुफिया एजेंसियां क्या इतनी बेखबर थीं कि उन्हें कुछ पता ही नहीं चला। फिर मोदी जी तो आतंकवादी घटनाओं को प्रायोजित करने के महारथी हैं।
आप लोग इतने अंधे तो मत बनिए कि मौत के सौदागरों को ही अवाम और राष्ट्र का मसीहा बताने लग जाएं।

azdak ने कहा…

चिंताओं के सही सुर हैं, साथी.

किन्‍हीं को बुरा लग रहा है, बात समझ आती है, हमें तो दिन के अट्ठारह घंटे इसका और उसका बुरा लगता रहता है, मगर यहां कहना चाहता हूं कि..

क्‍या कहूं, बाबू रघुराज ने ठीक-ठीक कह ही दिया है.

आभा ने कहा…

आतंक गन का हो या ज्ञान का
या धन का उसका अंत होना ही है...

Ashok Pandey ने कहा…

1. आतंकवाद या आतंकवादी का बचाव नहीं होना चाहिए।
2. चंद लोगों की करतूत के लिए पूरे समुदाय को जिम्‍मेवार नहीं ठहराया जा सकता।
3. तुष्‍टीकरण की राजनीति भी उतना ही निंदनीय है, जितना आतंकवाद।
4. भ्रष्‍टाचार, महंगाई, किसानों की दुर्दशा आदि ज्‍यादा महत्‍वपूर्ण मुद्दे हैं, क्‍योंकि उनका संबंध ज्‍यादा बड़ी आबादी से है। लेकिन यह विडंबना ही है कि चुनाव के समय वे हाशिये में चले जाते हैं।
5. धर्म, जाति आदि के पूर्वाग्रह शहरों में रहनेवाले पढ़े-लिखे लोगों में ज्‍यादा देखने को मिलते हैं। गांवों में आज भी हिन्‍दुओं के धार्मिक अनुष्‍ठान मुसलमान नाई संपन्‍न कराते देखे जाते हैं। कहीं कोई दुराव या किसी के धर्म के भ्रष्‍ट होने की भावना नहीं रहती है।

Farid Khan ने कहा…

मिहिर भोज की बात

"रही बात इज्राइल की तो अपनी भूमि से मुसलमान आतताइयों द्वारा यहूदियों को निकाल बाहर करना यह आतंकवाद था,सैंकङों वर्षों के बाद अब वे फिर अपनी भूमि पर काविज हैं और उसकी रक्षा कर रहे हैं ,ये आतंकवाद कैसे हुआ ...जरा समझायेंगे"


मैं समझाउँगा।

बरसों पहले फिलिस्तीन से यहूदी निकाले नहीं गए थे। धर्म परिवर्तित करके मु्सलमान हो गए थे। अभी जो इस्राईल में हैं वे अरब नस्ल के लोग नहीं हैं। वे यूरोपीय, अमरीकी और दूसरे देशों के यहूदी हैं। भारत के संगीतकर ज़ुबिन मेहता इस्राईल में क्यों गए। वह उनकी भूमि नहीं है।


वैसे मैं कुछ और कहना चाहता हूँ।


धर्म को राष्ट्रियता मानना ही सबसे बडी भूल है...और विश्वस्तरीय साम्प्रदायिकता का जनक भी।
अगर कोई ब्राज़ील का मूल निवासी हिन्दू धर्म अपनाता है , तो इससे वह भारतीय नहीं हो जाता है। और न ही अगर कोई भारत का व्यक्ति इस्लाम स्वीकर करता है तो वह अरब का हो जाता है। न पाकिस्तानी होता है।

जैसे हिन्दू और इस्लाम दो राष्ट्रियता नहीं धर्म हैं वैसे ही इस्लाम और यहूदी भी राष्ट्रियता नहीं धर्म है।

पर समाज के बँटवारे में यह ग़लत अवधारणा सबसे प्रमुख भूमिका में आ जाती है और फिलिस्तीनी और ग़ैर फिलिस्तीनी के झगडे को इस्लाम और यहूदी की सीमाओं में ही हम देखते हैं।

हमें ख़ुद को प्रशिक्षित करना होगा और अपनी राष्ट्रियता बडी ही सावधानी से समझनी होगी।

बेनामी ने कहा…

anil raghuraj ji,गुजरात में जो पहले हुआ और जो अब हो रहा है उसके अस्ल गुनहगार कांग्रेस और लालू जैसे हलकट हैं, जिन्होंने गोधरा काण्ड के वास्तविक दोषियों को न केवल बचाया वरन मोदी को बदनाम करनें के लिए,बिना किसी जांच के इस झूट को सच बनाया कि गोधरा जारही ट्रेन में खुद बजरंगियों नें आग लगायी. गोधरा काण्ड की यदि निष्पक्ष जांच हुई होती तो आपस में न तो इतना मन भेद होता न ही इस तरह की बद्ले की कार्यवाहियों को प्रोत्साहन मिलता. जहां तक आतंक वाद की बात है हमें यह पक्ष भी ध्यान में रखना होगा कि यह अब एक अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय का रुप ले चुका है,और उसमें देश के छोटे बड़े अपराधियों की सहायक भूमिका को नकारा नहीं जा सकता है.जैसे आँतो में परजीवी कृमि मरोड़ पैदा करते हैं वैसे ही रुस चीन पेट्रो-डालर से आयातित /साधित यह वा‍यरस रुपी बुद्धिजीवी देश की आँतों में मरोड़ पैदा करते रह्ते हैं, समय समय पर इनकी सफाई करते रहनें पर आँतों का रंजन होता रहेगा. भारत आर्य

संजय बेंगाणी ने कहा…

भाई साहब इजराइल की बात आपने उठाई है, इसी लिए मैने लिखा. रही बात इतिहास की तो ऐसा कैसे सोच लिया की इतिहास से अनभिज्ञ है. हाँ फरीद खान की तरह मुसलिमो का लिखा इतिहास न पढ़ा हो यह हो सकता है.

अभय तिवारी ने कहा…

मुस्लिमों का लिखा इतिहास फ़रीद खान ही नहीं सभी पढ़ने के लिए बाध्य हैं.. क्योंकि भारत में इतिहास लिखना शुरु ही मुस्लिम शासन की शुरुआत के बाद से हुआ है.. उसके पहले हमारे इतिहास नहीं पुराण लिखे जाते थे.. जिसमें यदि सच्ची घटनाओं का भी उल्लेख होता था तो तमाम अतिश्योक्तियों और अलंकरण के साथ.. और बिना किसी समय बोध के.. इसीलिए आज भी वे सारे ग्रंथ इतिहास के रूप में स्वीकृत नहीं है..उन से ततकालीन समाज की झलक ज़रूर मिलती है पर उन्हे प्रामाणिक ग्रंथों के रूप में अंगीकार नहीं किया जाता..

विजयशंकर चतुर्वेदी ने कहा…

पूरे भारतवर्ष में मुसलमान धर्मगुरु और मौलाना (आम मुसलमान तो पहले से ही सहमा हुआ है) आतंकवाद को इस्लाम के ख़िलाफ़ बता-बता कर अपनी नफ़रतवादियों द्वारा निर्मित कट्टर छवि से तौबा कर रहे हैं. ताज़ा मामला लखनऊ का हैं. किसी ने बजरंग दल, विहिप को अपने कृत्यों पर पछतावा करते कहीं सुना? देखना तो दूर की बात है! आरएसएस चकित है कि मुसलमान ऐसा करके तो उसकी नफ़रतवादी विचारधारा की जड़ ही खोद देने पर तुले हुए हैं! कहीं बम धमाके इसी का विस्तार तो नहीं. सूरत के बम क्यों नहीं फटे?
बुद्धदेब ने नंदीग्राम की घटना पर शर्म से सर झुका लिया था. लेकिन मोदी ने गुजरात जातिसंहार पर कभी अफसोस जताने की नैतिकता जुटाई? वे क्यों करेंगे उन्होंने तो म्लेक्षों का वध किया था!

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