मंगलवार, 22 जुलाई 2008

हिन्दू और हिंसा

संत श्री आसाराम बापू की ग्रह-दशा ठीक नहीं चल रही है। कल के दिन जबकि पूरा देश संसद के मैच में फंसा हुआ था, ग़ुस्साए लोगों की भीड़ ने उनके अहमदाबाद आश्रम में घुसकर तोड़-फोड़ कर डाली। उसके कुछ रो़ज़ पहले उनके चेलों ने मीडिया के लोगों पर एक अप्रत्याशित हमला कर के पूरे देश को चौंका डाला। कहा ये भी जा रहा है कि उस हमले का आदेश स्वयं संत श्री आसाराम जी ने दिया था। हैरत की बात है कि कोई हिंदू संत ऐसा हिंसात्मक क़दम उठाने के बारे में सोच भी कैसे सका? वो भी गाँधी के गुजरात से?

पर मित्रों इसमें कोई हैरत की बात नहीं। मगर अफ़सोस की बात ये है कि हम पहले तो पढ़ते नहीं, पढ़ते हैं तो और बहुत कुछ पढ़ते है पर इतिहास नहीं पढ़ते और यदि इतिहास भी पढ़ते हैं तो ऐसा इतिहास पढ़ते हैं जो तथ्यों और साक्ष्यों पर नहीं बल्कि क्लेशों, कुण्ठाओं और कोरी कल्पनाओं पर आधारित है।

हमारे भारत देश में साधु और शस्त्र का बड़ा लम्बा नाता रहा है। वैदिक काल में ऋचाएं रचने वाले ऋषिगण सरस्वती के किनारे लेटकर गाय चराते हुए सिर्फ़ ऊषा और पूषा की ही वन्दना नहीं करते थे। बड़ी मात्रा में वैदिक सूक्त इन्द्र के हिंसा-स्तवन में रचे गए हैं। बाद के दौर में हमारे ब्राह्मण-पूर्वज हाथ में परशु लेकर बलिवेदी पर पशुओं का रक्तपात करते रहे हैं। परशु की चर्चा आते ही परशुराम को कौन भूल सकता है जो इस पृथ्वी को इक्कीस बार क्षत्रिय-शून्य कर गए थे।

तर्क ये दिया जाता है कि साधु अक्सर ब्राह्मण होता है और ब्राह्मण चूंकि पठन-पाठन का काम करता है इसलिए उसका सम्बन्ध शस्त्र से नहीं शास्त्र से रहता है। और अपनी रक्षा का भार भी उसने क्षत्रिय पर छोड़ रखा है। पर ये बात भी एक खोखले सूक्त से ज़्यादा कुछ नहीं है। बौद्ध धर्म के उत्थान के बाद पुष्यमित्र शुंग के काल में पूरे भारत वर्ष में ब्राह्मण धर्म की हिंसात्मक पुनर्स्थापना हुई। पुष्यमित्र स्वयं ब्राह्मण था, और उसके अलावा पूर्व में खारवेल और दक्षिण में सातवाहन भी ब्राह्मण थे जो तलवार हाथ में लेकर ही सत्ता पर क़ाबिज़ हुए थे।(१) तो पहली बात तो ये कि ब्राह्मण अक्सर साधु नहीं होता और साधु अक्सर ब्राह्मण नहीं होता।

प्राचीन काल से ही पहले हमारे यहाँ वैष्णव और शैव एक दूसरे के खिलाफ़ बराबर पाला बाँधते आए हैं। शंकराचार्य ने, न सिर्फ़ वैदिक धर्म और बौद्ध धर्म को एकसार करने की कोशिश की बल्कि वैष्णव, शैव और शाक्त धर्म को भी एक करने के लिए किसी देवी-देवता को न छोड़ा.. सब की स्तुति कर डाली। एक तरफ़ उन्होने अद्वैत वेदान्त जैसा दर्शन प्रतिपादित किया और दूसरी तरफ़ सौन्दर्यलहरी जैसा शुद्ध तंत्र का ग्रंथ भी रचा।

लेकिन उन की इन तमाम कोशिशों के बावजूद शैव और वैष्णव का भेद समाज में व्यापक तौर पर व्याप्त रहा। और इसीलिए तुलसीदास को भी वाल्मीकि रामायण से अलग जाकर अपने रामचरितमानस में राम और शिव का एक पारस्परिक श्रद्धा का सम्बन्ध बनाना पड़ा। शिव जहाँ राम के भक्त है वहीं राम लंका पर आक्रमण करने के पहले सागरतट पर शिवलिंग बनाकर उसकी अर्चना करते हैं।

ये सब इशारे हैं समाज में व्याप्त उस वैष्णव-शैव संघर्ष की तरफ़ जो बहुधा शांतिपूर्ण नहीं हो्ते थे। कमलहासन की अभी हाल की फ़िल्म दशावतारम में ऐसे ही एक वैष्णव-शैव संघर्ष का उल्लेख है। मध्यकाल में भारत में आने वाले अनेक योरोपीय यायावरों ने इन साधुओं के प्रति अपने अचरज को कलमबद्ध किया है।

मिसाल के तौर पर इटैलियन घुमन्तु लुदोविको दि वरथेमा ने १५०३ और १५०८ के बीच कभी अपनी भारत यात्रा के दौरान सूरत के एक इयोघी/ जिओघी (योगी/जोगी) का उल्लेख किया है जो गुजरात के सुल्तान महमूद के साथ निरन्तर युद्ध में लिप्त था। ये जियोघी हर कुछ साल पर पूरे भारत के दौरे पर निकलता, अपने तीन-चार हज़ार की चेलों की पलटन और ‘बीबी-बच्चों’ समेत। (२)

इस साधु की युद्धनीति में कोई मित्र हिन्दू-मुस्लिम कोण से नज़र न डाले तो बेहतर होगा क्योंकि इन्ही वरथेमा साहब को मलाबार में एक अन्य योगी-राजा के दर्शन हुए। कालीकट में दो इटैलियन सौदागर का स्थानीय मुस्लिम सौदागरों से कोई आर्थिक विवाद हो गया था। जिसके नतीजे में कालीकट के काज़ी ने बजाय खुद कोई सैनिक कार्रवाई करने के एक योगी-राजा से सम्पर्क किया जो कालीकट में अपने तीन हज़ार चेलों के साथ डेरा डाले हुए थे। शीघ्र ही दो सौ योगियों की एक सेना ने एक संक्षिप्त युद्ध के बाद इन इटैलियन सौदागरों का प्राणान्त कर दिया। (३)

वरथेमा ने जो वर्णन किया है उस से लगता है कि ये योगी शैव थे। मगर वैष्णव नितान्त अहिंसक थे ऐसा समझ लेना फिर एक भूल होगी। जयपुर के बालानन्द मठ के पास १६९२-९३ में जारी औरंगज़ेब का एक फ़रमान है जिसके तहत इन वैष्णव रामानन्दियों को अपने पैदल और घुड़सवार सेना और आगे चलने वाले नगाड़ों समेत पूरी सल्तनत में कहीं भी आने-जाने की इजाज़त दी गई है। (४) इस एक फ़रमान से हमें कितनी सारी सूचनाएं मिलती हैं और हमारे कितने भ्रमों पर से धुँआ छँट जाता है.. ज़रा सोचिये।

अबुल फ़ज़्ल के अकबरनामा में १५६७ में थानेसर में हुए एक छोटे से युद्ध का उल्लेख है जो दो शैव सम्प्रदायों के बीच में आपस में लड़ा गया.. मुद्दा सिर्फ़ ये था कि एक खास घाट पर कौन नहायेगा?(५) इस झगड़े का ज़िक्र उस वक़्त के तमाम दूसरे ऐतिहासिक ग्रंथों में भी मिलता है। उस युद्ध के बाद से नागा सन्यासी बराबर मुग़ल सेना के लिए काम करते रहे।

अठारहवीं सदी का पूरा इतिहास हिम्मत बहादुर नाम के सेनानी के कारनामों से रंगा हुआ है। ये व्यक्ति जिसका असली नाम अनूपगिरि गोसाईं था.. १७५१ से १८०४ तक लड़ी गई लगभग सभी मुख्य लड़ाईयों में अनूपगिरि मौजूद था। यहाँ तक कि १७६१ के पानीपत के तीसरे युद्ध में जहाँ अहमद शाह अब्दाली ने भाऊ की सेना को रौंद डाला.. वहाँ पर भी अनूपगिरि के पाँच हज़ार लड़ाके अबदाली की तरफ़ से मराठों से लड़े(६) बावजूद इसके कि चार बरस पहले १७५७ में अब्दाली ने मथुरा में क़त्लेआम के साथ-साथ जम के बुतशिकनी की थी। और तब गोसाईंयों और अफ़्गानो के बीच युद्ध में दोनों तरफ़ से दो-दो हज़ार लाशें गिरी थीं। (७)

और सन्यासी विद्रोह को भी याद कर लिया जाय। उसी विद्रोह पर आधारित कर के ही तो बंकिम बाबू ने अपनी अमर कृति आनन्दमठ की रचना की। वही आनन्दमठ जिसके गीत वन्दे मातरम को लेकर आज भी मुसलमानों पर हमला जारी है। बंकिम बाबू के सन्यासी विद्रोह और १७७३ के बाद से तीस साल तक चले असली 'सन्यासी और फ़कीर विद्रोह' के बीच बड़े अंतर थे मगर इस पर कभी अलग से चर्चा करूँगा।

अभी तो बस इतना ही कि गाँधी की अहिंसा किसी भी कोण से 'हिन्दू' नहीं है वो जैन है.. 'हिन्दू' साधु का अहिंसा से दूर-दूर तक रिश्ता नहीं रहा, कभी नहीं। क्या आप किसी ऐसे 'हिन्दू' देवता को पहचानते हैं जो अस्त्र/शस्त्र धारण नहीं करते? सरस्वती जैसी एकाध देवी आप को मिल भी जायँ तो भी वे अपवाद ही रहेंगी।

(१) भगवत शरण उपाध्याय, खून के छींटे इतिहास के पन्ने पर, पृष्ठ ३७
(२) विलियम आर. पिंच, वॉरियर एसेटिक एंड इंडियन एम्पायर्स, पृष्ठ ६२
(३) विलियम आर. पिंच, वॉरियर एसेटिक एंड इंडियन एम्पायर्स, पृष्ठ ६३
(४) विलियम आर. पिंच, वॉरियर एसेटिक एंड इंडियन एम्पायर्स, पृष्ठ ७२
(५) विलियम आर. पिंच, वॉरियर एसेटिक एंड इंडियन एम्पायर्स, पृष्ठ २८-२९
(६) जदु नाथ सरकार, दि फ़ाल ऑफ़ मुग़ल एम्पायर वाल्यूम २, पृष्ठ ७१
(७) विलियम आर. पिंच, वॉरियर एसेटिक एंड इंडियन एम्पायर्स, पृष्ठ ११२

22 टिप्‍पणियां:

बेनामी ने कहा…

हिन्दुओं को अहिंसा के भाव के साथ जोड़ना भ्रम फैलाने के आलावा कुछ नहीं है. ख़ुद गाँधी पर जैन तथा इसाई विचारधारा का गहरा प्रभाव था, जो वो हिन्दुओं पर थोपने का प्रयास कर रहे थे. यहाँ तक की उन्होंने रामायण, महाभारत को मेटाफर घोषित कर दिया था. क्योंकि वे यह स्वीकार करने को तैयार नहीं थे की 'उनका धर्म' पश्चिम की सैद्धांतिक आदर्शवादिता के विपरीत समय पड़ने पर हिंसा, संसारिकता और स्वार्थ की वकालत भी कर सकता है. नपुंसक और जड़ अक्सर अहिंसक हो जाते हैं, और इस तथाकथित अहिंसा ने भारत के चित्त को निर्जीव करने में कोई कसर नहीं छोड़ी.

गांधीजी ने तो खजुराहो के मंदिरों को ढहा डालने की भी मंशा व्यक्त की थी.

azdak ने कहा…

साधुवाद. इसे लेकिन हिंसावाद न पढ़ा जाये.

बेनामी ने कहा…

So Hindus are not coward, as many person believes?

And why मंगल पांडे is out of list.

admin ने कहा…

मेरी समझ से कोई धर्म अथवा पंथ हिंसा या अहिंसा का पर्याय नहीं होता। इसके पीछे बहुत सारी बातें जिम्‍मेदार होती हैं, जिन्‍हें देखना सुनना जरूरी होता है।

Sanjay Tiwari ने कहा…

गांधी की अहिंसा हिन्दू की अहिंसा नहीं थी क्योंकि शस्त्र और शास्त्र दोनों ही भारत में समान रूप से पूजे जाते हैं. लेकिन आज हम जिसे हिन्दुत्व कहकर परिभाषित करते हैं वह राजनीतिक हिन्दुत्व है. गांधी की अहिंसा सनातन समझ की अहिंसा है जो भारत की आत्मा है.
विषय बहुत जटिल है इसलिए इस पर विस्तार से बात करने की जरूरत है.

बेनामी ने कहा…

गुरु पढ़ना जरूरी है , इस लेख को ।

Ashok Pandey ने कहा…

आपकी बात ऐतिहासिक तथ्‍यों व प्रमाणों पर आधारित है, इसलिये असहमत होने का प्रश्‍न ही नहीं उठता।
महावीर, बुद्ध और गांधी जैसे हमारे देश के मनीषियों ने दुनिया को अहिंसा का संदेश जरूर दिया, लेकिन हमारा देश अहिंसावादी कभी नहीं रहा। हमारे देश में शक्ति की हमेशा से पूजा होते आयी है। यहां तक कि हमारे देवता ही नहीं, बल्कि देवियां भी शक्ति स्‍वरूपा हैं। और इसमें बुराई भी नहीं। किसी भी राष्‍ट्र के लिये शास्‍त्र के साथ शस्‍त्र भी जरूरी होता है।
सच तो यह है कि दुनिया में कोई भी समाज पूरी तरह से अहिंसक नहीं हो सकता। ईसा मसीह ने कभी हथियार नहीं उठाया, उनका जीवन रोगी-दुखियों की सेवा में बीता। लेकिन उनके अनुयायियों ने सदियों तक धर्मयुद्ध किया।
व्‍यावहारिकता में अहिंसा चालाक लोगों के लिये फायदे की एक अवधारणा है। अपने प्रतिद्वन्दियों को कमजोर रखने के लिये कुछ लोग उनकी अहिंसावृत्ति का उसी तरह से महिमामंडन करते आये हैं, जिस तरह से आज के धंधेबाज धार्मिक गुरु अपने शिष्‍यों की दानशीलता का बखान करते नहीं थकते।

Udan Tashtari ने कहा…

एक बहुत ही उम्दा और पठनीय आलेख. आभार.

Arvind Mishra ने कहा…

सही कहा आपने ब्राह्मण का श्रेय सदैव 'इदं शस्त्रम इदं शास्त्रं ' ही रहा है .विचारपरक लेख -धन्यवाद !

Ila's world, in and out ने कहा…

एक बेहतरीन लेख के जरिये इतिहास और धर्म का आकलन करने का धन्यवाद.

बेनामी ने कहा…

अभय जी,जहां तक आसाराम बापू प्रकरण की बात है,उस पर कोई टिप्प्णी नही ! किन्तु उससे आगे के वृतान्त पर दो बातें कहना चाहता हूं -पहली तो यह कि वेद,रामायण,मानस,शंकराचार्य,तुलसी,साधु तथा युद्ध,शस्त्र,हिंसा आदि पर आपनें बहुत सरसरी तौर पर टिप्पणियां की हैं,आप अलग अलग तीन ब्लाग चला रहें जिन्हें देखकर यह लगता है दूसरों की तुलना में काफी शोध कर लिखनें का प्रयास करतें हैं,चूकि आप कानपुर से हैं,ब्राह्मण हैं(इससे कुछ कद घटता हो तॊ डिलीट कर सकते हैं),इसीलिए यह कहनें की धृष्टता कर रहा हूं कि थोडा मौलिक ग्रन्थों को स्वयं पढ़नें की चेष्टा करे तथा स्वयं चिन्तन कर अपनीं धारणा बनाएं. प्राचीन गुरुकुल पद्धति में शस्त्र शिक्षा अनिवार्य थी इसलिए शिक्षक स्वयं शस्त्र चालन में निष्णात होते थे, अतः निष्प्रयोजन यह विद्या नहीं ही दी जाती थी. द्वन्दात्मक सिर्फ भौतिकवाद ही नहीं है यह सृष्टि ही द्वन्दात्मक है, इसीलिए सृष्ट हुये जगत में ८४ लाख योनियों(स्पिशीज) में से एक मनुष्य को ही संस्कारित एवं उनसे बने समाज को सभ्य बनानें की बात बार-बार कही जाती है. मनुष्येतर जीवों में बुद्धि का विकाश सीमित होता है, इसीलिए उनकी आवश्यकताएं भी सीमित होती हैं- पैदा होना,स्वानुरुप भोजन करना और आयु भोग कर मृत्यु को प्राप्त हो जाना,उसे कर्म की स्वतन्त्रता नही होती है,इसीलिए ये भोग योनियां कही गयी हैं. मनुष्य ही एक ऎसा जीव है जिसको कर्म करनें की स्वतन्त्रता प्राप्त है,चाहे तो दानव बन जाए या फिर देव, इसीलिए बुद्धि का विशेष विकास भी उसी में होता है, इस विशिष्टता के चलते ही वह अपनें, परिवार,समाज,राष्ट्र ही नहीं विश्व के लिए भी कुछ कर्म कर्ता है, इसीलिए मनुष्यों का ही इतिहास होता है,पशुओं की नशलों का तो रिकार्ड ही रखा जाता है. तो ऎसे द्वन्दात्मक जगत में ज्येष्ठ और श्रॆष्ठ के भांति-भांति के द्वन्द अग्यानवश चलते रह्ते हैं. इसीलिए शस्त्र और सैनिकों की आवश्यकता पड़ती है. तुलसी नें राम से शिव की पूजा वाल्मीकि के अनुशरण में ही करवायी है यह "रामायण" देखेंगे तो स्वयं जान लेंगे. वैष्णव मत का उदभव और विकास के लिए महाभारत का नारायणीय पर्व दृष्ट्व्य है. सनातनवैदिक आर्य धर्म की सहिष्णुता का अतिरेक ही शैव वैष्णव संघर्ष के मूल में स्पष्ट दिखता है. क्या शैव और वैष्णव मतों के परम प्राप्तव्य लक्ष्य पर कभी गौर करनें की चेष्टा की है? गांधी जैन थे या नहीं किन्तु इतना तो मानेंगे की सभी २४ तीर्थंकर क्षत्रिय थे,यह अलग बात है कि आज अधिकांश जैन वैश्य होते हैं,स्वभावतः व्यापारी कभी युद्ध नहीं चाहता, जब कि युद्ध काल में आर्थिक लाभ अधिकांशतः उन्हीं को होता है.जैनों के ग्रन्थों में एक कालकाचार्य का उल्लेख मिलता है जरा उनके बारे में कुछ जाननें का प्रयास करेंगे? बौद्ध मत का प्रचार प्रसार और विस्तार कलिंग विजय के बाद ही क्यों होता है? बौद्ध मत के प्रचलन में आनें के बाद ही विदेशी आक्रान्ताओं की बाढ़ क्यों आ जाती है यह भी विचारणीय क्या नहीं लगता? कभी विचार कीजिये कि महाभारत के बाद ही पूरी दुनिया में अवतारों-पैगम्बरों की बाढ़ क्यों आ जाती है,विचार करेंगे तो आनंद आयेगा. दूसरी और अन्तिम बात यह कि जिन सन्दर्भों को आपनें आधार बनाया है वह साम्प्रदायिक है, अचरज करनें की बात नहीं है, न ही उद्विग्न होनें की. सम्प्रदाय की परिभाषा है-"सम्यक प्रदीयते इति सम्प्रदायः " बैलेन्सड वे मे, रेशनेल के साथ, लाज़िकल ढ़ग से आपने अपनी बात कही- १० नें मानी, ऎसे ही १०० नें १००० नें लाख नें आदि-आदि ने मानी तो इससे आप की बात मानने वालों का सम्प्रदाय बन गया, वैसे ही जैसे मार्क्स की बात माननें वालों का, वैष्णवों का शैवों का आदि. अब यही शैव, वैष्णव, मार्क्स की बात को जो स्वेच्छा से न माने उसे ज़बरन मनवानें की, अपनें सम्प्रदाय की बात दूसरे को भय, दबाव या लालच में जबरन मनवानें की चेष्टा ही साम्प्रदायिकता है. सेक्युलर शब्द का उद्भव और प्रयोग अलग ही ढ़ग पर हुआ था. मुस्लिम आक्रान्ता जब स्पेन तक राज्य विस्तार कर बैठे तो चर्च को ईसाइयत खतरे मे लगी जिसके विरुद्ध क्रूसेड और फिर रेनांशा हुआ, जिसके चलते पोप और चर्च के अधिकारियों को रोज मर्रा के राज काज में दखल देनें का मर्ज लग गया. परिणामतः प्रोटेस्टेन्ट और कैथलिक्स में जब ज्यादा झगड़े बढ़े तो अन्ततः यह निर्णय हुआ कि राज्य के रोजाना के काम में चर्च दखल नहीं देगा तथा राज्य में सभी एक कानून से निय़ंत्रित होंगे. इस व्यवस्था का ही नाम सेक्युलर और उस पर आधारित राज्य सेक्युलर स्टेट कहा जानें लगा. इसी की नकल मे अपनें यहां धर्मनिरपेक्ष शब्द गढ़ा गया जो नितान्त गलत है.अंग्रेजी डिक्शनरी के अनुसार सेक्युलर का अर्थ होता है नास्तिक. अतः मार्क्स जिन का ग्यान भारत के बारे में बहुत कम था खुद उन्हो ने स्वयं भी माना है, के समर्थकों ने मार्क्स वाद का ढ़िढोरा पीटना शुरू कर दिया. इस वाद के हिमायती प्रचारकों नें एक ऎसी दृष्टि पैदा कर दी जो सिर्फ नकारात्मक पहलुओं पर ही नजर गडाये रह्ती है जबकि जीवन में सहकार,सौमनस्यता एवं सहजता सकारत्मकता से ही पुष्पित एवं पल्ल्वित होती है. अपनें ही देश में बंगाल और केरल की क्या दुर्दशा हुयी है क्या नहीं दिखता? १९७० के दशक तक बंगाल साहित्य,कला,विग्यान,उद्योग और यहां तक की ढ़ॆरों पढ़े लिखे अधिकारियों की खान हुआ करता था--आज कया हाल है? तुम मज़्दूर हो तुम्हारा शोषण हो रहा है कि ऎसी घुट्टी पिलायी कि सारा उत्स ही सूख गया. केरल सबसे पढे लिखे लोगों का देश है लेकिन विदेशों में जा कर काम न करे तो जीना मुहाल हो जाए. अभी १९८५-९० तक ४२ देश कम्युनिस्ट थे अब क्या हाल है? रुस के बिखरने के बाद दुनिया में सबसे ज्यादा पैसा रुस के बाहर रुस के ही लोग लगा रहे हैं-कहां से आया यह पैसा? दूसरी ओर आम रुसी की हालत यह है कि वहां की लड़्कियां दुनिया भर में तन बेंच कर कैसे भी जिन्दा रह पा रही हैं. क्षमा करें कुछ ज्यादा बक बक कर गया. चलते चलते ग्यानयुक्त मनोरंजन के लिए एक प्रश्न कर रहा हूं जिसका हल स्वयं कर सकें तो ठीक नही तो अपनें नवसाम्प्रदायिक विद्वनों से जान कर देनें की कृपा करें, ग्यान के साथ साथ लोक रंजन भी हो सकेगा----" माता भूमि पुत्रो अहं पृथिव्याम " इसका अर्थ कर करा दीजिये. नमस्कार. कात्यायन

अभय तिवारी ने कहा…

भाई कात्यायन,
आप ने इतनी विस्तार से अपनी टिप्पणी की इसका बड़ा आभार!
आप ने कुछ सवाल उठाए हैं जिनके उत्तर मेरे पास हैं वो उत्तर देना मेरे लिए लाज़िमी हैं और जो नहीं है उसके लिए मैं आप से क्षमा चाहता हूँ।
आप ने कहा है कि दानव या देव बनना मनुष्य के हाथ में है.. यह किस तरह? देव तो मेरी समझ से अग्नि, वायु, इन्द्र आदि हैं जो जन्म-मरण और कर्मचक्र से परे हैं तथा दानव कश्यप की पत्नी दनु से उपजी सन्तान हैं। कर्म के आधार पर कोई दानव कैसे बनेगा?
आप ने बताया कि वाल्मीकि रामायण में भी राम शिव के उपासक हैं..मुझे लगा कि मुझ से कोई भूल हुई है। मैंने युद्ध के पहले के सारे प्रसंग फिर से देखे, मगर राम द्वारा शिवलिंग की स्थापना कर के उसकी अर्चना का कोई उल्लेख न पाया। और पूरे ग्रंथ में शिव के राम भक्त होने का तो कोई प्रसंग ही नहीं है। यदि मैं अभी भी किसी भ्रम में हूँ तो आप स्पष्ट संदर्भ बता कर मेरे भ्रम का निवारण करें।
कालकाचार्य के बारे में मेरी कोई जानकारी नहीं है.. आप मुझे आलोकित करें!
सेक्यूलर शब्द की आप व्याख्या सही है मगर आज के केरल और बंगाल की कलात्मक और ज्ञानात्मक उपलब्धियों के प्रति जो आप का नकार है उस से मैं सहमत नहीं।
रूस और अन्य मार्क्सवादी देश, मार्क्सवाद ये सब स्वतंत्र चिंता के विषय हैं इन पर अलग से आप लिखिये.. मुझे आप को पढ़ कर खुशी होगी।
और संस्कृत का जो वाक्य आप ने पहेली रूप में छोड़ा है उसका अर्थ करने में मैं असमर्थ हूँ.. आप स्वयं कर देते तो अच्छा होता। वैसे मैं संस्कृत के विद्वानों से पूछूँगा अवश्य!

बेनामी ने कहा…

आपके आलेख से आलोचना का स्वर सुनाई पड़ता है. सवाल कोई भी पूछ सकता है. पर आलोचना उसी के श्रीमुख से अच्छी लगती है जो मुद्दे के हर पहलु को ठीक से समझता हो. आपकी तरह समाजवादी (कथित) विचारधारा पर हर बात और दूसरी विचारधाराओं को तुलना कुछ ऐसा ही है जैसे मष्तिष्क की चीरफाड़ करके मनोभावों को पकड़ने की कोशिश करना.

पहले कोई पूर्वाग्रह न रखते हुए खुले दिमाग से प्राचीन भारतीय दर्शन का अध्ययन करें, प्रतीकों को सही रूप में समझें. फ़िर आलोचना करें.

भीड़ का दृष्टीकोण अक्सर ग़लतफ़हमी का शिकार होता है, इसीलिए उसकी ही मान्यताएं ही सच्ची है, यह मानना ग़लत होगा. ज़रा भीड़ से अलग हटकर सोचिये, मुद्दों को सही परिपेक्ष्य में देखने का प्रयास कीजिये, तब आप जान पाएंगे की आपकी आलोचना में क्या मूलभूत विसंगतियां हैं.

अजित वडनेरकर ने कहा…

हिन्दू मूलतः अहिंसक होता है , ऐसा तो मैं कह सकता हूं। परिस्थिति विशेष में तो कुछ भी कर्म उचित ठहराया जा सकता है। समय समय पर कर्म , धर्म विशेष के लोगों नें भी अपने प्रचलित स्वभाव के विपरीत दायित्व ओढ़े हैं, निभाए हैं। एक परिस्थिति शास्त्र भी होता है, मगर उसका निरूपण होना शायद अभी बाकी है।
विचारपूर्ण आलेख। अच्छी टिप्पणियां।

Smart Indian ने कहा…

बहुत खोजपूर्ण लेख है आपका लेकिन मुझे यह कहने में कोई झिझक नहीं है कि है तो अर्ध सत्य ही:
१. अहिंसा को आपने जिस जैन दर्शन से जोड़ा है उसके अहिंसक सिद्धांत योग-दर्शन से लिए हुए हैं जिसके आठ अंगों में से पहले अंग का पहला तत्व ही अहिंसा है.
२. गांधी जी पर जैन दर्शन का प्रभाव तो था ही परन्तु उनकी अहिंसा पर गीता के प्रभाव को भुला देना असत्य से कम नहीं है.
३. गीता जैसा युद्ध भूमि के बीच दिए गए उपदेश में भी सबसे प्रमुख तत्व सद्बाव और अहिंसा ही हैं.
४. अस्त्र रखने वाले अहिंसक वृत्ति के नहीं हो सकते, यह बिल्कुल खोखली बात है. इस हिसाब से तो तिब्बत जाने वाले सारे बौद्ध भिक्षुक हिंसक थे क्योंकि वे मार्शल-आर्ट्स में निपुण थे जिनके द्वारा किसी का भे वध आसानी से किया जा सकता था.
५. आपके तर्कों को माना जाए तो शायद जैन सम्प्रदाय के नामों अरिहंत (अरि+ हंत = शत्रु की ह्त्या करने वाला), महावीर (महा + वीर) में भी हिंसा आसानी से ढूंढी जा सकती है.

बेशक, हमारे देश में हिंसा का बोलबाला रहा है मगर उसके आधार पर यह निष्कर्ष निकालना कि हमारी संस्कृति में हिंसा को अहिंसा के ऊपर प्रधानता दी गयी है, बिल्कुल ग़लत है.

सत्य सिर्फ़ काला-सफ़ेद नहीं होता है - उसे जानने-समझने के लिए अपने पूर्वाग्रहों से बाहर निकलना पड़ता है.
लेख अच्छा है - बधाई स्वीकारें - मुझे पूरा विशवास है कि आप और बहुत अच्छा लिख सकते हैं. - शुभेच्छा!

बेनामी ने कहा…

अभय जी, धैर्य पूर्वक पत्र पढ़ा,धन्यवाद. दक्ष प्रजापति की ६० कन्याऎं थी, जिनमें से १० कश्यप को ब्याही थीं, २७ चन्द्रमा को आदि. दिति और अदिति और उनकी सन्ततियां द्युतिहीन दानव,द्युतिमान देवता- कहनें का तात्पर्य कि यह वैदिक कास्मोलाजिकल टर्म हैं,जिसके विग्यान को विस्तार में जाये बिना समझा-समझाया नहीं जा सकता. मनुष्य में ही बुद्धि का अतिशय विकास पाया जाता है,बाकी प्राणि जगत में नहीं है ऎसा मै नहीं कह रहा है. गुण, चेतना एवं क्रिया के स्तर तक कर्म तो जड़ चेतन सभी में दिखायी पड़ता है. कमप्यूटर की भाषा में कहें तो इन्स्टाल्ड मेमोरी तो सभी में होती है,किन्तु कैच मेमोरी मनुष्य में ही प्राप्त होती है(वैसे यह कोई बहुत अच्छा उदाहरण नहीं है ). अतः ऎसा मनुष्य संस्कार,विद्या एवं सद कर्मों से पुरुषोत्तम पद प्राप्त करता हुआ देवता सदृश्य अमरता(यह शब्द काल सापेक्ष है) भी पा सकता है और यही मनुष्य दुर्गुणों एवं दुष्कर्मों से दानवत्व की ओर जा सकता है.देव और दानव मानव योनि(स्पिशीज) नहीं हैं. वाल्मीकि नें रामायण में राम से शिव की पूजा प्रत्यक्षतः करायी है ऎसा मेरा आशय नहीं था मैनें तुलसी द्वारा अनुशरण की बात कही है. युद्ध काण्ड में(रामायण) उल्लेख है कि विभीषण से सुग्रीव आदि के समुंद्र पार करनें का उपाय पूंछनें पर विभीषण यह कहते हैं कि राम यदि समुद्र से मार्ग देनें की मांग करेंगे तो वह इन्कार नहीं करेंगे क्योंकि रघु के वंशज राम के पूर्वज राजा सगर ही पृथ्वी पर जल (गंगा ) लाये थे तथा उन्होंने ही नदियों के विश्राम हेतु इस स्थान का निर्माण किया था.इसीलिए सिन्धु,वारधि,समुन्द्र आदि नामों के साथ उसे सागर भी कहा जाता है. बाकी राजा सगर की पृथ्वी पर गंगा को लानें की कथा तथा उनके द्वारा शिव की अभ्यर्थना आदि आपको ग्यात ही होगा. संभवतः इसी पृष्ठ भूमि को ध्यान में रखते हुये तुलसी नें राम से शिव की पूजा का कथानक रच दिया.राम के कुल के पूर्वजों नें शिव आराधना की थी इसी से तुलसी को यह अवसर प्राप्त हुआ. कालकाचार्य का प्रसंग एक सप्रयास विस्मृत किया जा रहा तथ्य है और शायद समाज हित में विस्मृत रहनें देना ही ठीक होगा. जहां तक बंगाल और केरल के कलात्मक और ग्यानात्मक उपलब्धियों को नकारनें की बात, तो वो मैनें की ही नहीं है बल्कि मैने एक शब्द प्रयोग किया है "कि उत्स ही सूख गया" वह इसीलिए किया था कि साम्यवादियों द्वारा सत्ता ग्रहण करनें के बाद इन दोनों प्रदेशों मे कला,साहित्य,शिक्षा,एडमिनिस्ट्रेशन में जो इनका प्राधान्य राष्ट्रीय क्षितिज पर था वह बहुत पीछे चला गया.आज की पीढी बंकिम,रविन्द्रनाथ,शरतचन्द्र,ताराशंकर बंधोपाध्याय,विमलमित्र,शंकर आदि से कितना परिचित है? ठीक है आज भी आशापूर्णा देवी, मैत्रेयीपुष्पा और महाश्वेता देवी आदि से ही शायद परिचित हो पा रही है.किसी समय दिल्ली के प्रशासनिक क्षेत्र में बंगाल और केरल के अधिकारियों की भरमार होती थी,आज क्या स्थिति है आप स्वयं जानते होंगे. फुट्बाल का खेल जो बंगाल की जान था कहां दफ़्न हो गया ? और रवीन्द्र संगीत तथा बाऊल का क्या हाल है? यह सभी बंगाल के लोगों को ही नहीं सभी भारतीयों को जिस प्रकार का सौन्दर्य बोध कराते थे उसमें जीवन की सरलता सौम्यता सौजन्यता लास्य और आकर्षण जैसा था क्या इप्टा के लालसलामी गतिविधियों में तनिक भी है? गरीबी की हद तक कम साधनों मे जीवन को रससिक्त बनाए रखनें की जैसी कला पहले के लोगों में थी क्या आज की हाय-हाय चाहे वह पूंजीवादियों की हो या श्रमवादियों की रंच मात्र भी है? संस्कृत सूत्र का अर्थ स्वयं करनें करानें का प्रयास जारी रखें,अन्ततः तो आप को बताना ही है, पहले के कामरेड़ स्व० श्रीपाद अमृत ड़ांगे स्व० ई० एम० एस० नंबुदरीपाद आदि आज के कामरेड़ों की तुलना में राष्ट्रीय साहित्य के अध्यवसायी हुआ करते थे. आप भी हैं. कात्यायन

बोधिसत्व ने कहा…

मैं बहुत गंभीर बहस में एक कोने से कुछ नामों का उल्लेख कर रहा हूँ...द्रोण, कृप, अश्त्थामा...और एकलव्य....सोते हुए द्रौपदी के बेटे...
यह तो एक ग्रंथ का कुछ हवाला है...बस

बेनामी ने कहा…

कैवल्य, मैं बहुत गंभीर बहस में एक कोनें से कुछ नामों का नहीं नहीं कुछ चरित्रों का उल्लेख कर रहा हूँ.........मार्क्स, हीगल, लेनिन, स्टालिन, ख्रुशचेव, गर्बाचेफ,पुतिन, माओ, लेनिन की उखड़ी प्रतिमा,थ्या म्यान चौक, और बुद्धदेव भट्टचार्य-सलेम के सताये रोते बिलखते नंदीग्राम की माटी के सपूत............यह तो एक नवीन सम्प्रदाय के चरित्र का कुछ नमूना है....यह अन्त नहीं है...

विजयशंकर चतुर्वेदी ने कहा…

लेख की सभी बातों से घनघोर सहमत हूँ. कमाल का शोधपूर्ण आलेख! 'प्रदीय' का अर्थ दिया गया, आज्ञार्थ ल्रिट लकार.. लेकिन यहाँ उपलब्ध कराने से है. इसीसे इस श्लोक का दुराग्रह, निरर्थकता और अवैज्ञानिकता साबित हो जाती है.

बेनामी ने कहा…

भाई विजयशंकर जी, व्याकरणाचार्य जैसी भाषा-शैली में कुछ कहनें का प्रयास आपनें किया है,क्या कहना चाहतें हैं,स्पष्ट करें. "इसीसे इस श्लोक का दुराग्रह,निरर्थकता,और अवैग्यानिकता साबित हो जाती है" ? यह व्याख्या की अपेक्षा रखता है. संप्रदाय की व्याख्या सम्यक नहीं है या नव सम्प्रदाय का आक्षेप सह्य नहीं है?

बेनामी ने कहा…

भाई विजयशंकर जी, व्याकरणाचार्य जैसी भाषा-शैली में कुछ कहनें का प्रयास आपनें किया है,क्या कहना चाहतें हैं,स्पष्ट करें. "इसीसे इस श्लोक का दुराग्रह,निरर्थकता,और अवैग्यानिकता साबित हो जाती है" ? यह व्याख्या की अपेक्षा रखता है. संप्रदाय की व्याख्या सम्यक नहीं है या नव सम्प्रदाय का आक्षेप सह्य नहीं है? re asked.

बेनामी ने कहा…

भाई कोई भी टिपण्णी करने से पहले सोचना आवश्यक है की आप क्या और क्यों करने जा रहे है! आपकी नियत क्या है किस चश्मे से बात को कहने का प्रयास कर रहे है ! आपने कहा संत श्री आसारामजी बापू की अनुयइयो के द्वारा हिंसा की गई और आगे आपने कहा की इस बात के लिए स्वयं बापूजी के द्वारा कहा गया ! इससे बड़ी कोई हास्यास्पद बात कुछ और नही हो सकती ये आपने सिर्फ़ इतना कह कर इतिश्री कर ली की हिंसा हुई है ! इसके अतिरिक्त कुछ जानने की कोशिश नही की की ऐसी घटनाये क्यों होती है ! क्या अपनी आत्मरक्षा का अधिकार किसी को नही है है ? अगर कोई हमलावर आप पर हमला करे क्या आप चुप रहंगे ? जब आपकी माता बहनों पर कोई अत्याचार कर रहा हो आप न्रापुन्सक की तरह उसको देखते रहेगे ? संत श्री आसाराम जी आश्रम के पास ही महिला आश्रम है ! वहा पर जब धर्म विरोधियो ने हमला किया उसका प्रतिकार आश्रम में आए हुए लाखो श्रधालुओ ने किया अब अगर माताओं और बहनों को उन पर हुए हमलो से बचाना अगर हिंसा है ? तो ये हिंसा जायज है और हर भारतीय का कर्तव्य है की जहा भी ऐसा होते देखे आप उठ कर आगे आए और, अपनी माता बहनों को बचाए और अगर जिस चश्मे से आप देखते है ये ग़लत है, तो फ़िर ग़लत ही सही पर यही उस समय की मांग थी !
यही सच है आप चाहे कुछ वीडियो है प्रमाण के लिए उस समय क्या हो रहा था ! उसको देख सकते है !

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