बुधवार, 16 जुलाई 2008

सोमनाथ की शुचिता

मुझे याद आता है कि कुछ महीनों पहले देश में राष्ट्रपति का चुनाव हुआ था और तब माकपा ने कांग्रेस की प्रत्याशी श्रीमती प्रतिभा पाटिल को अपना समर्थन दिया था। उनके विरुद्ध स्वतंत्र प्रत्याशी के रूप में उपराष्ट्रपति और भाजपा के पूर्व नेता श्री भैंरो सिंह शेखावत थे। भाजपा और उनके सभी सहयोगी दलों ने शेखावत जी को जिताने की कोशिश की थी। मगर शिवसेना ने मराठी होने के नाते प्रतिभा पाटिल का समर्थन किया था।

उस वक़्त किसी माकपाई ने ये नहीं कहा था कि चूँकि शिव सेना प्रतिभा जी का समर्थन कर रही है इसलिए हम उन्हे मत नहीं देंगे। बंगाल से भी ये आवाज़ नहीं उठी थी। सोमनाथ जी ने स्पीकर के बतौर तब क्या किया था ये तो मैं नहीं जानता लेकिन अभी वो, और माकपा के भीतर अन्य कुछ लोग कह रहे हैं कि साम्राज्यवाद और साम्प्रदायिकता के बीच साम्प्रदायिकता अधिक बड़ा खतरा है। और इसीलिए सोमनाथ बाबू लोकसभा के अध्यक्ष के पद से इस्तीफ़ा इसलिए नहीं दे रहे क्योंकि वे भाजपा के साथ वोट नहीं देना चाहते?

उनका भाजपा-विरोध समझ में आता है.. भाजपा इस देश में हुए बहुत सारे दंगो और साम्प्रदायिक भय के माहौल के लिए ज़िम्मेदार है। पर उनका कांग्रेस-प्रेम नहीं समझ आता.. कांग्रेस भी तो अनेको दंगो को प्रायोजित करने की और देश में साम्प्रदायिक ज़हर घोलने की भूमिका आज़ादी के बाद से लगातार निभाती आ रही है।

और फिर पश्चिम बंगाल में माकपाई और ग़ैर-माकपाई के बीच जो हाय-हत्या होती है वो किस मापदण्ड से साम्प्रदायिकता से कम है? यदि उनकी समझ से साम्प्रदायिकता का अर्थ सिर्फ़ हिन्दू-मुस्लिम वैमनस्य होता हो तो बात अलग है।

मैं यह नहीं कहता कि भाजपा बुरी नहीं है.. पर उसे इस तरह से अस्पृश्य बनाकर व परोक्ष रूप से बाक़ी सभी को पाक होने का प्रमाणपत्र दे देना सही नहीं हैं। ये शुचिता के वैसे ही मानदण्ड है जिन के अनुसार एक ब्राह्मण प्रतिदिन गुदा-प्रक्षालन कर के भी अशुद्ध नहीं होता था मगर एक दूसरा व्यक्ति सिर्फ़ एक जाति विशेष में जन्म लेकर जीवन भर के लिए अस्पृश्य बन जाता था।

निश्चित ही ऐसा करने के पीछे सोमनाथ बाबू अपने इस ब्राह्मणवादी पूर्वाग्रह के प्रति सचेत तो नहीं होंगे। उनके इस आग्रह के मूल में जो भी हो उनकी बात मुझे हजम नहीं हुई.. आप को हुई क्या?

6 टिप्‍पणियां:

दिनेशराय द्विवेदी ने कहा…

उनका भाजपा-विरोध समझ में आता है.. भाजपा इस देश में हुए बहुत सारे दंगो और साम्प्रदायिक भय के माहौल के लिए ज़िम्मेदार है। पर उनका कांग्रेस-प्रेम नहीं समझ आता.. कांग्रेस भी तो अनेको दंगो को प्रायोजित करने की और देश में साम्प्रदायिक ज़हर घोलने की भूमिका आज़ादी के बाद से लगातार निभाती आ रही है।

और फिर पश्चिम बंगाल में माकपाई और ग़ैर-माकपाई के बीच जो हाय-हत्या होती है वो किस मापदण्ड से साम्प्रदायिकता से कम है? यदि उनकी समझ से साम्प्रदायिकता का अर्थ सिर्फ़ हिन्दू-मुस्लिम वैमनस्य होता हो तो बात अलग है।

आप के आलेख के ये दो चरण पर्याप्त हैं साम्प्रदायिकता का अर्थ समझने को। और ये शुचिता समझ नहीं आई।

बेनामी ने कहा…

कम्युनिस्ट गठबंधन के पास एक सीट आफ पावर तो रहे
आप क्या चाह रहे हैं, बिल्कुल बेसहारा हो जायें हमारे जन-चिंतक

लाल झंडा लाल किले पर फहरा के ही मानेंगे

देश के मजदूरों, एक हो जाओ

सलेम को सलाम करो
टाटा की कार के लिये बेकार बनो

डील वही जो कम्युनष्टों को भाये
चाहे सारा देश खड्ड में जाये

जय लाल टोपी वारे की
जय चीनी माओ के सारे की

Unknown ने कहा…

राजनितिक शुचिता कुर्सी के साए में पनपती है और जब जैसी जरूरत हो रंग बदलती है. आज अपनी कुर्सी बचाए रखने के लिए कुछ तो कारण चाहिए, और बीजेपी की आड़ लेकर तो बहुतों ने अपनी कुर्सी बचाई है. यह सरकार ही बीजेपी की आड़ लेकर बनी है और इतने दिन चलती रही है.

Unknown ने कहा…

वाह साहब बहुत मजा आ रहा है अभी तो, धर्मनिरपेक्षता जैसी नंगी हो रही है उसे देखकर, और जो लोग भाजपा को अस्पृश्य बनाने पर तुले हुए हैं/थे, उन्हें अम्बानी की गोद में बैठा देखकर लोहिया भी "गदगद" होंगे। "साम्प्रदायिक" कहकर लताड़ने वालों, देख लेना एक दिन "धर्मनिरपेक्षता" शब्द गाली बन कर रह जायेगा, और इस काम में भाजपा से ज्यादा रोल कांग्रेसियों और वामपंथियों का होगा…

Udan Tashtari ने कहा…

अब हजम होना न या न होना दीगर बात है (राजनीति में तो ९९% बातें ही ऐसी होती हैं जो हजम न की जा सकें) मगर एक सच्चा काँग्रेसी सिपाही इस कदम का स्वागत करता है. जय हो!! :)

अनूप शुक्ल ने कहा…

हाजमा दुरस्त करो भाई! इत्ती सी बात पर हाजमा बिगाड़ लिये तो कैसे चलेगा!

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