पिछले सात दिनों में मैंने दो नई हिन्दी फ़िल्में देखी- आमिर और समर २००७। एकदम अलग-अलग तबियत की दो फ़िल्में। आमिर की विशेषता यह है कि वो एक परिस्थिति में फँसे आदमी के चंद घण्टों का बयान है जबकि समर २००७ एक पूरे देश की सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था, तमाम लोगों की ज़िन्दगी और तमाम मौतों में गहरे रची-बसी एक लम्बी कहानी है। दोनों ही फ़िल्में पिटी हुई मुम्बईया लीक से हटकर बनाई गई हैं.. फिर भी दोनों फ़िल्में एक दूसरे से बहुत जुदा हैं।
आमिर य़ूटीवी और अनुराग कश्यप के साझे निर्माण से उपजी फ़िल्म है। फ़िल्म में अनुराग का क्रेडिट भी क्रिएटिव प्रोड्यूसर है। अगर वो क्रेडिट न भी होता तो भी आमिर के फ़िल्मांकन में मुम्बई की गन्द भरी गलियों की वो जीवन्त छाप मौजूद है जिसे ब्लैक फ़्राईडे और नो स्मोकिंग के बाद शायद अनुराग कश्यप का खास फ़न समझा जा सकता है।
फ़िल्म का कथानक पूरा-पूरा फ़िलीपीनो फ़िल्म कैविते से उधार लिया गया है.. बिना आभार। आमिर के परिवार को बंधक बनाकर एक मुस्लिम आतंकवादी दल उसे अपने इशारों पर नचा रहा है- एक आतंकी कार्रवाई के लिए। इस बहाने से आप आमिर का तनाव झेलते हुए मुम्बई की गंद के दर्शन करते हैं और मुस्लिम समाज की मुश्किलों को भी याद कर लेते हैं।
एक थ्रिलर के बतौर फ़िल्म कामयाब है ऐसा कहना कठिन है। बमुश्किल ९० मिनट की होने के बावजूद अंत तक आते-आते फ़िल्म थकाने लगती है। कुछ भी नया कहने को नहीं है और बात वही है कि एक मामूली सी बात का बहुत प्रचार किया जा रहा है। सारे चरित्र एकाश्मी हैं और एक ही सुर में बतियाते नज़र आते हैं। ये तरक़ीब फ़िल्म को एक मूड ज़रूर प्रदान करती है मगर फ़िल्म के कथ्य को गाढ़ा करने में जो मदद भरे-पूरे चरित्रों से मिल सकती थी वो मौका खो देती है।
आलोचकगण इस फ़िल्म की मुक्त कण्ठ से प्रशंसा कर रहे हैं पर मुझे लगता है कि भारतीय सामाजिक परिस्थितियों के नज़रिये से ये कहानी पूरी तरह उपयुक्त नहीं है। फ़िल्म एक स्टाइलिश फ़्लिक के बतौर बस ठीक-ठाक है और प्रगतिशील संदेश तो आधा-अधूरा और कमज़ोर है।
फ़िल्म बनाने के इस तरीक़े के उलट खड़ी है समर २००७- निर्देशक सुहैल तातारी की पहली फ़िल्म। जिसमें किसी फ़िल्म से कोई प्रेरणा नहीं ली गई है.. फ़िल्म हमारे देश की उस सच्चाई को सामने लाने की कोशिश है जिसके चलते शहर और गाँव का सम्पर्क, संवाद और नाता सब टूट चुका है।
किसानों द्वारा की जा रही लगातार आत्म-हत्याएं, हमारी लड़खड़ाती कृषि व्यवस्था (जिसमें सिर्फ़ अर्थ ही नहीं समाज भी शामिल होता है) और इस तरह से पैदा होने वाले महासंकट से शहरी जनता को आगाह करने के लिए फ़िल्म के निर्देशक और लेखक ने एक सम्पन्न शहरी युवा मित्र मण्डली के ज़रिये गाँव की दुनिया में उतरने की हिम्मत दिखाई है। यह कोशिश इतने साहस और निष्ठा से उपजी है कि इसकी जितनी प्रशंसा की जाय कम है।
दिक़्क़्त की बात यह है कि फ़िल्म अकेले साहस और निष्ठा के सहारे नहीं बनती और नहीं चलती। फ़िल्म अन्ततः एक मनोरंजन का ज़रिया है.. दर्शक के दिल को अरझाये बिना आप कुछ हासिल नहीं कर सकते भले ही आप की नीयत कितनी भी नेक क्यों न हो। ऐसा ही कुछ हादसा समर २००७ के साथ हुआ है।
मुझे फ़िल्म दोनों मोर्चों पर कमज़ोर पड़ती नज़र आई- न तो वो शहरी युवाओं की स्टाइलिश बेफ़िक्री को ढंग से पकड़ पाई और न ही गाँव की बेडौल चिन्ताओं को। स्टाइल का तो फ़िल्म में अभाव है ही.. फिर कहीं स्क्रिप्ट कमज़ोर पड़ती है तो कहीं निर्देशन।
बजट की सीमाओं समझी जा सकती हैं पर फ़िल्म की अवधि को भी हदों में रखा गया होता तो बेहतर होता। उत्तरार्ध में तो फ़िल्म दर्दनाक तरह से धीमी और लम्बी हो जाती है। दर्शक के पौने तीन घण्टे लेने के बावजूद फ़िल्म उसे एक भी किसान से परिचित कराने में चूक जाती है और न जाने क्यों अपने सरोकार को शहरी युवा के भीतरी बदलाव तक ही महदूद रखती है। और अंत तक पहुँचते-पहुँचते पूरी तरह विश्वसनीयता भी खो देती है।
शायद समर २००७ वास्तविकता के अधिक क़रीब है फिर भी आमिर जैसी फ़िल्म दर्शक पर अपना प्रभाव छोड़ने में कहीं अधिक सफल हैं। कोई भी फ़िल्म भौतिक वास्तविकताओं को बदल नहीं सकती.. अधिक से अधिक उस के प्रति एक भावुक छाप छोड़ सकती है। असली बदलाव सत्ता के अधिग्रहण से ही आता है। बाक़ी सब उसकी तैयारी है।
5 टिप्पणियां:
पता नहीं क्यों मुझे दोनों में से कोई भी फ़िल्म देखने की कोई इच्छा नहीं हो रही? उम्मीद करता हूं फ़िल्म की बजाय वजह लगातार हो रही बंबई की रिमझिम है..
आमिर अनुराग कश्यप की है! ब्लैक फ्राइडे तो बहुत पसंद आयी थी.
कल रविवार को इसे जरूर देखेंगे.
दोनों ही फिल्मों की अच्छी समीक्षा की है. आभार.
इसी बहाने दोनो फिल्मों के बारे में जान गये हम। शुक्रिया।
आज के ग्रामीण जीवन में हो रहे तेजी से बदलाव और किसानों व कृषि के संकट पर फिल्में बनें तो अच्छी बात है। विषय बुरा नहीं है, सधे हुए हाथ होने चाहिए।
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