यह क़ानून १८९४ के भूमि अधिग्रहण अधिनियम में संशोधन कर के बनाया जाएगा। फ़िलहाल ये बिल की अवस्था में है पर इतना तय है कि जब इसे संसद में सर्वसम्मति से पारित किया जाएगा तो किसी को इसकी हवा भी नहीं लगेगी। मीडिया वही ग्लमैर और सनसनी परोस रहा होगा, ब्लौग पर बन्धुगण खास ब्लौगीय क़िस्म की सरगर्मियों में तप रहे होंगे और संसद में..? वहाँ कोई नारेबाज़ी नहीं होगी, कोई वौक आउट नहीं होगा.. एक क़लम भी अध्यक्ष या किसी दूसरे सांसद की तरफ़ नहीं फेंकी जाएगी। क्यों? इस से किस पार्टी का क्या बिगड़ता है..? कांग्रेस और भाजपा से लेकर माकपा तक सेज़ के समर्थन में हैं और ये बिल तो सिर्फ़ सेज़ की सलवटों को निकालने के लिए भर है। (तृणमूल कांग्रेस ज़रूर अपनी फ़ौरी ज़रूरतों के लिहाज़ से कुछ विरोध का ड्रामा कर सकती है)
बिल के विवरण में जाने से पहले ज़रा इस पर ग़ौर कीजिये कि १८९४ का क़ानून २००८ में बदला जा रहा है.. वो भी तब जबकि देश के धनिक वर्ग को तक़लीफ़ आन पड़ी है.. जब तक आदिवासी और अन्य ग्रामीण जन बार-बार इधर से उधर धकेले जा रहे थे तब तक किसी को क़ानून बदलने की याद नहीं आई? आज़ादी के रणबांकुरों ने देश की बागडोर अपने हाथ में लेने के बाद अंग्रेज़ों के दमनकारी क़ानूनों को जस का तस क्यों छोड़ दिया? किसी क़ानून में बदलाव लाना तो दूर उन्होने तो क़ानून के सिपाहियों को उनके हास्यास्पद काले कोट और सफ़ेद टाई से मुक्ति दिलाने में भी कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई? क्यों? क्या इस से हमारे शासकों के चरित्र पर क्या कोई रौशनी पड़ती है?
इस बिल का मसविदा तैयार करने के पहले सेज़ के लिए बनाई स्टैंडिंग कमेटी ने कुछ सिफ़ारिशें की थीं.. उन सिफ़ारिशों के रू-ब-रू देखने पर ही इस बिल की क़लई खुल जाती है कि किस तरह से सारे पहलू अमीर आदमी को सहूलियत और फ़ायदा पहुँचाने के लिए हैं और एकाध नियम अगर ऐसा लगे कि जो ग़रीब आदमी की सहूलियत के लिए है वो व्यावहारिक स्तर पर जा कर ऐसी शक़ल अख्तियार कर लेगा कि अन्ततः उसे कोई लाभ नहीं पहुँच सकेगा।
बिल के चमचमाते लक्षण
हासिल की जा रही ज़मीन की जाँच
सिफ़ारिश थी कि राज्य सरकार और ग्राम पंचायत मिल कर फ़ैसला करें कि कौन सी ज़मीन इस योग्य है और फिर एक जन विज्ञप्ति जारी करें ताकि ज़मीन के रिकॉर्ड्स में किसी भी तरह के कपट से बचा जा सके.. मगर बिल में इसके विपरीत ज़मीन के रिकॉर्ड्स को दुरुस्त करने, ज़मीन सम्बन्धी सभी निर्णय लेने के लिए सारे अधिकार कलेक्टर साहब के सुपुर्द कर दिए गए हैं।
ज़मीन की क़िस्म
कमेटी की सिफ़ारिश थी कि केवल बंजर और बेकार ज़मीन का ही उपयोग सेज़ के लिए किया जाय और बिलकुल ही अनिवार्य होने पर वर्षा पर आश्रित एक फ़सल वाली ज़मीन और कई फ़सल वाली सिंचित ज़मीन के अधिग्रहण पर पाबन्दी लगाई जाय .. मगर बिल इस मामले में चुप्पी साधे है।
ज़मीन खरीदने की सीमा
सिफ़ारिश थी कि हर तरह के सेज़ के लिए ज़रूरत से ज़्यादा ज़मीन खरीदने पर रोक लगाई जाय, अधिकतम सीमा निर्धारित की जाय और अधिग्रहीत ज़मीन का कम से कम ५०% हिस्सा प्रोसेसिंग एरिया की तरह इस्तेमाल किया जाय। मगर बिल कोई सीमा नहीं बताता।
ज़मीन के मालिकों की अनुमति
सिफ़ारिश थी कि राष्ट्रीय सुरक्षा के मामले को छोड़कर ज़मीन के मूल स्वामियों/निवासियों की अनुमति आवश्यक हो.. मगर बिल कहता है कि प्रभावित लोग अधिसूचना के तीस दिन के भीतर अपनी आपत्ति कलेक्टर के पास दायर कर सकते हैं। सम्बन्धित सरकार इन आपत्तियों पर विचार करेगी और पुनर्वास का मामला ग्रामसभा में विचारा जाएगा।
प्रभावित लोगों को सूचना
सिफ़ारिश की गई थी कि प्रभावित लोगों को ज़मीन के अधिग्रहण के उद्देश्य, असर और पुनर्वास सम्बन्धी व्यवस्था के बारे में सूचित किया जाय। मगर बिल कहता है कि ये सारी सूचनाएं सार्वजनिक रूप से उपलब्ध कराई जाएंगी और पुनर्वास की योजना उन लोगों से मशविरा कर के सार्वजनिक कर दी जाएगी।
सिफ़ारिश थी कि राज्य सरकार और ग्राम पंचायत मिल कर फ़ैसला करें कि कौन सी ज़मीन इस योग्य है और फिर एक जन विज्ञप्ति जारी करें ताकि ज़मीन के रिकॉर्ड्स में किसी भी तरह के कपट से बचा जा सके.. मगर बिल में इसके विपरीत ज़मीन के रिकॉर्ड्स को दुरुस्त करने, ज़मीन सम्बन्धी सभी निर्णय लेने के लिए सारे अधिकार कलेक्टर साहब के सुपुर्द कर दिए गए हैं।
ज़मीन की क़िस्म
कमेटी की सिफ़ारिश थी कि केवल बंजर और बेकार ज़मीन का ही उपयोग सेज़ के लिए किया जाय और बिलकुल ही अनिवार्य होने पर वर्षा पर आश्रित एक फ़सल वाली ज़मीन और कई फ़सल वाली सिंचित ज़मीन के अधिग्रहण पर पाबन्दी लगाई जाय .. मगर बिल इस मामले में चुप्पी साधे है।
ज़मीन खरीदने की सीमा
सिफ़ारिश थी कि हर तरह के सेज़ के लिए ज़रूरत से ज़्यादा ज़मीन खरीदने पर रोक लगाई जाय, अधिकतम सीमा निर्धारित की जाय और अधिग्रहीत ज़मीन का कम से कम ५०% हिस्सा प्रोसेसिंग एरिया की तरह इस्तेमाल किया जाय। मगर बिल कोई सीमा नहीं बताता।
ज़मीन के मालिकों की अनुमति
सिफ़ारिश थी कि राष्ट्रीय सुरक्षा के मामले को छोड़कर ज़मीन के मूल स्वामियों/निवासियों की अनुमति आवश्यक हो.. मगर बिल कहता है कि प्रभावित लोग अधिसूचना के तीस दिन के भीतर अपनी आपत्ति कलेक्टर के पास दायर कर सकते हैं। सम्बन्धित सरकार इन आपत्तियों पर विचार करेगी और पुनर्वास का मामला ग्रामसभा में विचारा जाएगा।
प्रभावित लोगों को सूचना
सिफ़ारिश की गई थी कि प्रभावित लोगों को ज़मीन के अधिग्रहण के उद्देश्य, असर और पुनर्वास सम्बन्धी व्यवस्था के बारे में सूचित किया जाय। मगर बिल कहता है कि ये सारी सूचनाएं सार्वजनिक रूप से उपलब्ध कराई जाएंगी और पुनर्वास की योजना उन लोगों से मशविरा कर के सार्वजनिक कर दी जाएगी।
ज़रा सोचिये! कल को आप के घर पर क़ब्ज़े का नोटिस कलेक्टर के दफ़तर के बाहर चिपका हो या अखबार के एक कोने में भी छ्पा हो और आप शेन वार्न, शाहरुख खान और तुलसी विरानी के बीच झूलते हुए उसे पढ़ने से चूक गए तो आप सर पटक के मार जाइये आप का वैधानिक अधिकार आप के हाथ से निकल गया।
ज़मीन अगर इस्तेमाल नहीं हुई
सिफ़ारिश थी कि ज़मीन खरीदने के बजाय लीज़ पर लेने का प्रावधान रखा जाय जिसमें ज़मीन के मालिक को एकमुश्त रक़म के अलावा लगातार किराया भी मिले और यदि सेज़ न चले या खत्म हो जाय तो ज़मीन को उसके मूल मालिक के पास वापस लौटा दिया जाय। मगर बिल एक बार फिर ऐसी कोई व्यवस्था नहीं करता और पांच साल तक इस्तेमाल न होने की सूरत में ज़मीन को उलटे सरकार के क़ब्ज़े में जाने की बात करता है।
मुआवज़े का गणित
सिफ़ारिश थी कि मुआवज़ा उस समय के बाज़ार भाव के अनुसार दिया जाय मगर बिल इसकी भी ऐसी खिचड़ी बनाता है कि अमीर आदमी को और फ़ायदा पहुँचे.. कहता है कि मुआवज़े का आकलन बाज़ार भाव, ज़मीन का क्या इस्तेमाल होना है, ज़मीन पर खड़ी फ़सल, अन्य अधिग्रहीत ज़मीनों के ऊपरी ५०% भावों का ‘औसत’ के आधार पर किया जाय।
ज़मीन का मालिकाना
सिफ़ारिश थी कि भले ही सरकार खुद भी अधिग्रहण कर रही हो तो भी ज़मीन खरीदने के बजाय लीज़ पर ली जाय मगर बिल इस को तो अनदेखा करता ही है साथ एक और अनोखी बात करता है कि अगर अधिग्रहण की जा रही ज़मीन का ७०% हथियाया जा चुका है तो फिर कम्पनी को शेष ज़मीन को ‘पब्लिक परपज़’ के आधार पर लेने का अधिकार स्वतः मिल जाता है।
वास्तव में इस ‘पब्लिक परपज़’ के चलते ज़मीन का मालिक इस तरह से ज़मीन पर अपने सारे अधिकार खो देता है। सबसे मज़े की बात यह है कि पूरे बिल में इस ‘पब्लिक परपज़’ को कहीं भी परिभाषित नहीं किया गया है। यानी इसकी अपने मनमाफ़िक व्याख्या करने का रास्ता खुला छोड़ा गया है। और पब्लिक कौन है इसका मतलब भी परदे में नहीं रह गया है।
बहुत सोचने पर भी मुझे सिफ़ारिशों के उलट जा कर बिल का ऐसा स्वरूप तैयार करने के पीछे मुझे कोई और मक़्सद समझ नहीं आया सिवाय इसके कि ये राज्यसत्ता, सरकार और इसके चुने हुए प्रतिनिधि विकास के नाम पर, लुटे-पिटे ग़रीब आदमी को जितना हक़ बनता है उसे उतना भी नहीं देना चाहते। और वित्त मंत्री महाशय जो विकास के इस मॉडल के ज़रिये ही सबसे बड़े प्रदूषक- ग़रीबी को दूर करने की बात करते हैं.. क्या इतने भोले हैं कि इन बदलावों का अर्थ नहीं समझते और इसी नासमझी के चलते वे इस बिल की सहमति में हाथ खड़ा कर देंगे?
मुझे इस बिल की जानकारी इंडिया टुगेदर नाम की सचेत साइट पर प्रिया पारकर और सरिता वनका के लेख न्यू रूल्स फ़ॉर सीज़िंग लैण्ड से से हासिल हुई।
बहुत सोचने पर भी मुझे सिफ़ारिशों के उलट जा कर बिल का ऐसा स्वरूप तैयार करने के पीछे मुझे कोई और मक़्सद समझ नहीं आया सिवाय इसके कि ये राज्यसत्ता, सरकार और इसके चुने हुए प्रतिनिधि विकास के नाम पर, लुटे-पिटे ग़रीब आदमी को जितना हक़ बनता है उसे उतना भी नहीं देना चाहते। और वित्त मंत्री महाशय जो विकास के इस मॉडल के ज़रिये ही सबसे बड़े प्रदूषक- ग़रीबी को दूर करने की बात करते हैं.. क्या इतने भोले हैं कि इन बदलावों का अर्थ नहीं समझते और इसी नासमझी के चलते वे इस बिल की सहमति में हाथ खड़ा कर देंगे?
मुझे इस बिल की जानकारी इंडिया टुगेदर नाम की सचेत साइट पर प्रिया पारकर और सरिता वनका के लेख न्यू रूल्स फ़ॉर सीज़िंग लैण्ड से से हासिल हुई।
6 टिप्पणियां:
बहुत बहुत धन्यवाद अभय जी;
एकदम असहाय - अशक्तता का अनुभव हो रहा है.
अभय भाइ तुम्हारे ब्लोग का नाम भले ही निर्मल आनंद हो पर तुम्हे पढने के बाद आनंद तो कही खो जाता है.तुम वाकई सूचनाओ और उन्का विश्लेषण बहुत शानदार ढंग से करते हो , मै कायल हू तुम्हारा.
बढ़िया. इस जानकारी को देने के लिए धन्यवाद. और कितने पेंच कसे जायेंगे....
'राज्यसत्ता, सरकार और इसके चुने हुए प्रतिनिधि विकास के नाम पर, लुटे-पिटे ग़रीब आदमी को जितना हक़ बनता है उसे उतना भी नहीं देना चाहते।'
यही सत्य है। हमारी सरकार और हमारे निर्वाचित प्रतिनिधियों का यही चरित्र है।
अपने वित्तमंत्री जी तो मुझे लार्ड मैकाले के अवतार लगते हैं। और मौजूदा प्रधानमंत्री जी तो नरसिम्हा राव जी के जमाने से ही कड़वी घूंटों के जरिये अर्थव्यवस्था को चंगा करने के सपने दिखा रहे हैं।
अफसोस और घुटन!
क्या किया जा सकता है इस खेल का जो सियासी लोग चन्द मुट्टी भर लोगों के हितार्थ और पनी जेबें भरने के लिए खेलते हैं.
इस जानकारी के लिए आभार.
ek behad gambhir leka...jay ho...
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