गुरुवार, 3 अप्रैल 2008
पश्चिम से उगता सूरज
मैं आज कल एक स्क्रिप्ट पर काम कर रहा हूँ उस में एक संवाद कुछ ऐसा है.. "मैं जब यहाँ आया तो सूरज उसी जगह से निकल रहा था जहाँ अभी डूब रहा है.. मैं कुछ अजीब जगह में फँस गया था…"
और अजब संयोग देखिये मेरे घर की हालत भी आजकल कुछ ऐसी ही हो गई है.. शाम को सूरज को जिस दिशा में डूबते हुए देख कर विदा किया था .. सुबह उसी दिशा से वो उगता चला आता है..
पहले ऐसा नहीं होता था.. जब से मेरे खिड़कियाँ के सामने वाली दिशा यानी पश्चिम में तीन-तीन तीस-मंज़िली ओबेरॉय टॉवर्स की तामीर अपने अंजाम तक आ पहुँची है, तभी से उनकी खिड़कियों में जड़े शीशों में उगते हुए सूरज का अक्स पलट कर मेरे कमरों को चमका जाता है..
पहले मैं इन टॉवर्स पर बड़ा तमका रहता था कि इसने मेरे हिस्से के आसमान को ढाँप लिया.. पर अब समझ नहीं आता कि इस नई परिघटना पर बिहँसू कि इसके चलते मेरा घर सुबह की रौशनी में भी जगमगाने लगा है या बौखलाऊँ कि सूरज पश्चिम से उगता नज़र आने लगा है..
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12 टिप्पणियां:
रात की पाली मे काम करने का यही नतीजा होगा जी कुछ दिन दिन मे भी जागिये..:)
ऊंची ऊंची दीवारों में ऊंचे लोग रहते हैं
हम दरमियाने लोगों के दर्द को पहचाने कौन
सूरज उनकी खिड़कियों से होकर ही घर आता है
अपनी रोशनी घट गये है, उनको ये समझाये कौन
बड़ा मौज़ूँ शएर खोज के लाए हैं यूनुस.. क्या बात है..
"उनकी खिड़कियों में जड़े शीशों में उगते हुए सूरज का अक्स पलट कर मेरे कमरों को चमका जाता है...."
हमारे घर में भी सूरज की भोली किरणें इसी रस्ते आती हैं और बिन माँग़े ही अपनी ऊर्जा दे जाती हैं.
बहुत दिनों बाद आपकी पोस्ट देखकर अच्छा लगा.
इस पोस्ट का शीर्षक 'दो सूरजों वाला घर' भी हो सकता था। बड़ी नाइंसाफी है मैलार्ड, कहां लोग एक सूरज के लिए तरसते हैं और कहां...
सूरज और उसकी रोशनी किसी के बाप की तो है नहीं....फिर जैसे मिले अपना लें....
बेचारी रौशनी को आपके घर में आने के लिये इतना बड़ा चक्कर काटना पड़ता है!
अरे भाई निर्मल आनंद आपकी पोस्ट के बाद अपन नेई पेला है जे शेर । आदाब अर्ज़ है ।
इस पोस्ट में तो कविताई की झलक दिखाई दे रही है,कुछ टिप्पणियों को थोड़ा आगे पीछे करें जोड़ें तो तुकबन्दी गज़ब की निकलेगी, अपना आपना सूरज अपना अपना आसमान।
क्या संयोग है ! अच्छा है न...सूरज किधर से भी घर में सुबह-सुबह झांके, उसका स्वागत करना चाहिए...भले ही उस धूप में तन-मन को प्राणवान बनाने की क्षमता न हो, पर अंधेरे और आलस्य को भगाने की क्षमता तो होती ही है।
मेरे शयन कक्ष में भी, सुबह की धूप, बरास्ता एक फाइव स्टार होटल के शीशे से परावर्तित होकर ही आती है। कई वर्षों से ऐसे घर की तलाश में हूं जिसमें सुबह की धूप सीधे घर में आ सके।
युनूस भाई का शेर बेहतरीन रहा
इस नायाब सी पोस्ट पर...
किसने बसाए हैं ये शहर,
माँगता सूरज भी सहर,
अपने रास्तों पे चलता
तो कभी भूलता वो डगर !
वाह आज की पोस्ट पर तो खूब धांसू शेर बटोर लिए आप ने। वैसे त्रास्दी तब होती जब उन टावरों की वजह से घर की रोशनी अंधेरे में बदल जाती, अब तो बड़िया है जी, सुनहरी रोशनी में नहाया घर
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