ये नही... नही ये जीवन
मन चाहे अब एक नव अन्वेषण
एक विचित्र व्यामोह...अन्यमनस्क
स्वयं से विछोह
अस्तित्व जो शेष है
उस में एक भ्रान्ति...क्लान्ति...अशान्ति।
तो जड़ो को टटोलता
मूल में लौटता
धर्म दर्शन कभी प्रेम विज्ञान
कभी प्रहसन
अन्त में वही काम
वही व्यसन
हर दिशा सतत निशा
विरल विकट पथ
स्वयं ही स्वयं का तथागत
विस्मृत सब पितृ हत
वे जो इस निदृष्ट देहजाल में
बसे फँसे पकड़े गये
चीखना चाहते थे
पर चुप रहते गये
मनसा वाचा कर्मणा
घनघोर यन्त्रणा सहते गये
मुक्ति का बोध लुप्त था
जीवन का शोध सुप्त था
सोते रहे रोते रहे
अन्तकाल तक जकड़े रहे
पंचभूतों को पकड़े रहे
अब उस लोक में हैं
शायद अब भी शोक में हैं
शृंखला मज़बूत है भारी है
अब मेरी बारी है
मैं भी सोता हूं
मन भर भर रोता हूं
बहुत कुछ बदला है ... बदल रहा
हर पल एक सत्य गल रहा
नया ढल रहा
छद्म सत्य का काल
अति विशाल जाल
दस नहीं, शत नहीं
सिर हैं उसके नील शंख पद्म
चक्षु पद्म...पद्म कर्ण, मुख पद्म
ये पद्मानन है
राम ने इसके किसी शिशु दशानन को मारा होगा
अब ये अजेय है
तब हारा होगा
चिहुँक चिहुँक
सुबक सुबक
हिलमिल खिलखिल
भय त्रास विद्रूप
दिखाता है सभी रूप
ये रंजक है अभिव्यंजक है
पर महामददायक आत्मभंजक है
और मैं
अर्धसिक्त अर्धलिप्त
अर्धआवृत्त अर्धनग्न
छद्म सत्य के अभिराम दर्शन में
आमग्न
अस्तित्व जो शेष है
उसमें एक विचित्र व्यामोह...अन्यमनस्क
स्वयं से विछोह
अस्तित्व जो शेष है
उस में एक भ्रान्ति...क्लान्ति...अशान्ति।
तो जड़ो को टटोलता
मूल में लौटता
धर्म दर्शन कभी प्रेम विज्ञान
कभी प्रहसन
अन्त में वही काम
वही व्यसन
अपेक्षित जीवन के विस्मृत भविष्य से
क्या क्या विक्षिप्त स्वरों मे बोलता
एक ठण्डे ज्वर मे जलता
विकट पथ के निकट
सर तोडता
थक जाता
पड़ जाता
मूक सन्नाटो से खाकर भय
फिर हारकर खोलता
इसी पद्मानन के छद्म दर्पण
सपाट बिल्लौरी वातायन
समर्पण आत्मसमर्पण
भूलकर सब अन्वेषण
पितृ तरण के सारे प्रण
लो पद्मानन
अतृप्त कामनायें अब तेरे हवाले
सहज को कर जटिल
सरल को कुटिल
हिम को कर ज्वाला
सुधा बना दे हाला
सब तरफ़ तेरा हो अवतरण
अव्यक्त का भी होने दो अब चीरहरण
ओ रे भूप अनूप
दिखा अपना जादू
अब बस तू ही तू
चेतन अवचेतन सब पर तू छाया
कुछ और नही तू है माया
९ फ़रवरी २००५
11 टिप्पणियां:
सही है, सिपाही, बिसमिल्ला कर लिये. अब मचाओ धकापेल...
हिंदी ब्लॉग की दुनिया में आपका स्वागत है... लेकिन जब ज़रिया नया है, तो विधाओं के तेवर भी नये होने चाहिए अभय जी... मेरी गुजारिश है कि थोड़ा समय की व्याख्या करें, अपना आस-पड़ोस दिखाएं... आपकी भाषा में एक आदिम गंध है, जो अब गुम होती जा रही है... उसका इस्तेमाल आप समकालीन को समृद्ध करने में कर सकते हैं...
हमने आपके ब्लॉग की सूचना नारद को दे दी है... नारद पर आने वाले हिंदी ब्लॉग्स अपडेट आप इस पते > http://narad.akshargram.com/ < पर देखें...
अभयजी आपका स्वागत करता हूँ. मस्त हिन्दी पढ़ कर आनन्द आया.
लगता है कुछ शब्दो के अर्थ लिख देते तो ये शब्द फिर से सबकी लेखनी पर चढ़ सकते.
स्वागत है आपका हिंदी जगत में बहुत उम्दा रचना पढ़कर मन वाह- वाह कर उठा…शब्दों का चयन बहुत बढ़िया है…कविता के भाव से पूरी तरह मेल खात है…।
स्वागत है हिन्दी चिट्ठाकारी में. अब नियमित लेखन की आशा है.
अभयजी,
चिट्ठाजगत में आपका हार्दिक स्वागत है।
चिट्ठाजगत में एक और काव्यमय चिट्ठे का आगाज़ देखकर बहुत खुशी हुई.
उम्मीद करता हूँ कि आप लगातार काव्य-रस परोसते रहेंगे।
http://www.girionline.com/blog
भाई नारद पर चिट्ठा चर्चा में आपका ज़िक्र है। लिंक ( http://chitthacharcha.blogspot.com/2007/02/blog-post_07.html ) भेज रहा हूं।
हिन्दी चिट्ठे जगत में स्वागत है।
chakachak hai guru allahabadi khushbu ka ehsaas dilaya
bahut umda
amit mishra
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