आज भोर में अचानक नींद खुल गई आँख बन्द ही रही पर जाग पड़ गई थी। शायद हमेशा यही होता है कि जागता आदमी पहले है और आँख बाद में खोलता है.. सीधी बात है सभी जानते है आँख बन्द करने और खोलने से सोने का कोई लेना देना नहीं.. लोग घन्टो आँख बन्द किये करवट पलटते रहते हैं.. और नींद का कोई सुराग नहीं मिलता... नींद अपने से आती है.. और अपने से चली जाती है.. सोचिये इतना बलशाली जानवर है मनुष्य, दुनिया के खतरनाक से खतरनाक जानवर उस से खौफ़ खाते है.. वही पराक्रमी महापुरुष नींद के आगे कितना बेबस हो जाता है...पलक झपकते लाखों लोगों को मौत की नींद तो सुला सकता है आदमी का विज्ञान ... पर अपनी इच्छा से सो नहीं सकता। क्या बला है ये नींद.. किसके बल पर इतना इतराती है?
वैसे कुछ ही ऐसे अभागे होते हैं जो अनिद्रा के शिकार हो जाते है.. कहते हैं बहुत मेहनत, बहुत ज़्यादा तनाव या बहुत ज़्यादा सुख-सुविधा, भोग-विलास नींद को रुष्ट कर देते हैं...नही तो अधिकाधिक लोग तो खा पी के चैन की नींद सोते है.. भाग्य के प्रबल जो होते हैं घोड़े बेच के सोते हैं । और जब सोते हैं तो नाना प्रकार के स्वप्न भी देखते हैं.. स्वप्न भी कभी याद रहते हैं.. कभी नहीं...ज्ञानी लोग कहते हैं कि नींद के दो फेजेस होते हैं.. आर ई एम और एन आर ई एम.. यानी के Rapid Eye Movement और Non Rapid Eye Movement.. लगभग घंटे-घंटे भर के अन्तराल पर यह अवस्थायें बदलती रहती हैं जब आँखो की पुतलियों मे सोते सोते ही त्वरित गतिविधि होती है तो इसका अर्थ निकला गया कि व्यक्ति स्वप्न देख रहा है.. उसे उसी समय जगा के पूछने पर इस प्रमेय का सत्यापन भी किया गया है मतलब यह कि जब आँखो की पुतलियां शांत होती है तो व्यक्ति गहरी नींद मे सो रहा होता है.. और इस अवस्था में जागने पर उसे रात भर आर ई एम अवस्था में देखे गये तमाम स्वप्नों की कोई स्मृति नही होती। कुछ लोग जो हमेशा इस अवस्था मे नींद से जागते हैं शान से कहते हैं.. हमे कोई सपना आ कर कभी हैरान नही करता.. ये बात कुछ अजीब सी है.. कोई स्वप्न क्यों नही देखना चाहेगा.. स्वप्न की दुनिया तो बड़ी आज़ाद हो सकती है.. बाहर की दुनिया का आपके स्वप्नों पर कोई नियन्त्रण नहीं.. आप जो चाहे स्वप्न देखें.. कोई रोक टोक नही.. लेकिन विडम्बना देखिये.. जहां बाहर का नियन्त्रण नही वहां भीतर की मनमानी है..हमारे स्वप्नों पर भी हमारा कोई नियन्त्रण नही.. कभी-कदार ही ऐसा होता है कि पकवान चाँप रहे हैं या अप्सराओं के साथ विलास कर रहे हैं.. वरना बचपन और गुलाबी जवानी के बाद जब से दुनियादारी ने पैरों मे बेड़ियां डाली हैं.. दुःस्वप्न ही सताते हैं.. शायद इसीलिये लोग स्वप्नों से बचना चाहते हैं.. और ऐसे ही लोगों को राहत देने के लिये आयुर्वेद में स्वप्न न आने के लिये औषधियां भी सोच रखी हैं..
पर ये तो दुनिया है सब लोग एक जैसे कहां होते हैं.. अगर सभी लोग ऐसे हो गये तो स्वप्नदृष्टा और स्वप्नदर्शी जैसे लोगों का क्या होगा...जो रजोगुण प्रबल होते हैं इन लोगों के लिये भाषा को दिवास्वप्न जैसा शब्द ईजाद करना पड़ा... ये लोग स्वप्न देखने के लिये नींद के मोह्ताज नहीं होते.. और नींद के वक़्त देखे गये स्वप्नों की मनमानी से भी मुक्ति हासिल कर लेते है...खुली आँखों से स्वप्न देख सकते है.. जो चाहे वो देखते हैं.. मैंने मैदान मार लिया है.. मैं अमेरिका का प्रेसीडेन्ट हो गया हूं.. आदि आदि.. जैसे जिसके अरमान.. वैसी दुनिया वह अपनी पलकों पर बसा लेता है.. और बिना पलक झपकाये मज़ा लूटता जाता है...इन्ही वीरों मे कुछ महावीर भी होते हैं.. जो एक ही स्वप्न को बार बार देखते जाते हैं और जब नही देख रहे होते हैं.. तो उसे दूसरों को दिखाने के लिये, सच बनाने के लिये अपने आस पास कि दुनिया बदलते जाते हैं.. और दुनिया का क्या है.. वो तो महर्षियों ने कहा ही है.. वो तो माया है.. बदलने के लिये तैयार ही बैठी है.. आप नही बदलोगे तो अपने आप बदल जायेगी। उसके इसी चरित्र की वजह से मनोवैज्ञानिक हमेशा घनचक्कर बने रहते हैं.. कन्ट्रोल ग्रुप और वैरिएबल ग्रुप के तमाम ताम झाम फैलाने बाद भी उन्हे कुछ समझ नही आता कि क्या बदलने से क्या बदल जाता है.. पर उनकी दुकान चलती रहती है..
पर ये ठीक ठीक तय कर पाना लगभग असम्भव है कि यदि आदमी हाथ पर हाथ दिये बैठा रहे तो भी क्या वही सब कुछ होगा जो तमाम जोर आजमाईश करने के बाद होता है.. भाग्य प्रबल है या पुरुषार्थ.. अगर कोई ऐसा आदमी मिल जाय जिसकी जन्मकुन्डली तो एकदम दो कौड़ी की हो पर जीवन मे उपलब्धियों का अम्बार लगा हो.. तो गुत्थी सुलझ जाय... मगर नहीं मिलता.. माओ-मार्क्स जैसे धुर भौतिकवादी भी भाग्य के बड़े प्रबल चक्र ले कर अवतरित हुये थे.. यहां तक कि भगवान रामचन्द्र जी को भी जन्म लेने के लिये सारे ग्रहों के उच्च होने का इन्तज़ार करना पड़ा.. मनु और शतरुपा को वरदान तो उन्होने सतयुग मे ही दे दिया था पर त्रेता तक बैठाये रखा
तो क्या है मनुष्य के वश मे.. एक नींद तो क़ायदे की अपनी मर्जी से ले नही सकता.. आँख बन्द कर के आदमी बाहर के दृश्य से आज़ाद तो हो सकता है.. पर भीतर की संसार मे जकड़ा रहता है.. जो बाहर से अन्दर आया है या अन्दर से बाहर प्रक्षेपित है.. पता नहीं..(स्वप्न देखने पर आँख को नाचते पाया जाता है) ..कितना अच्छा होता कि जैसे नींद आने पर हम बन्द आँखों के पीछे, तात्कालिक तौर पर, बाहर से मुक्त हो जाते हैं.. वैसे ही आँख खोलकर हम भीतर की क़ैद से भी छूट जाते .. भीतर क्या कोई कम राक्षस हैं ।
वैसे कुछ ही ऐसे अभागे होते हैं जो अनिद्रा के शिकार हो जाते है.. कहते हैं बहुत मेहनत, बहुत ज़्यादा तनाव या बहुत ज़्यादा सुख-सुविधा, भोग-विलास नींद को रुष्ट कर देते हैं...नही तो अधिकाधिक लोग तो खा पी के चैन की नींद सोते है.. भाग्य के प्रबल जो होते हैं घोड़े बेच के सोते हैं । और जब सोते हैं तो नाना प्रकार के स्वप्न भी देखते हैं.. स्वप्न भी कभी याद रहते हैं.. कभी नहीं...ज्ञानी लोग कहते हैं कि नींद के दो फेजेस होते हैं.. आर ई एम और एन आर ई एम.. यानी के Rapid Eye Movement और Non Rapid Eye Movement.. लगभग घंटे-घंटे भर के अन्तराल पर यह अवस्थायें बदलती रहती हैं जब आँखो की पुतलियों मे सोते सोते ही त्वरित गतिविधि होती है तो इसका अर्थ निकला गया कि व्यक्ति स्वप्न देख रहा है.. उसे उसी समय जगा के पूछने पर इस प्रमेय का सत्यापन भी किया गया है मतलब यह कि जब आँखो की पुतलियां शांत होती है तो व्यक्ति गहरी नींद मे सो रहा होता है.. और इस अवस्था में जागने पर उसे रात भर आर ई एम अवस्था में देखे गये तमाम स्वप्नों की कोई स्मृति नही होती। कुछ लोग जो हमेशा इस अवस्था मे नींद से जागते हैं शान से कहते हैं.. हमे कोई सपना आ कर कभी हैरान नही करता.. ये बात कुछ अजीब सी है.. कोई स्वप्न क्यों नही देखना चाहेगा.. स्वप्न की दुनिया तो बड़ी आज़ाद हो सकती है.. बाहर की दुनिया का आपके स्वप्नों पर कोई नियन्त्रण नहीं.. आप जो चाहे स्वप्न देखें.. कोई रोक टोक नही.. लेकिन विडम्बना देखिये.. जहां बाहर का नियन्त्रण नही वहां भीतर की मनमानी है..हमारे स्वप्नों पर भी हमारा कोई नियन्त्रण नही.. कभी-कदार ही ऐसा होता है कि पकवान चाँप रहे हैं या अप्सराओं के साथ विलास कर रहे हैं.. वरना बचपन और गुलाबी जवानी के बाद जब से दुनियादारी ने पैरों मे बेड़ियां डाली हैं.. दुःस्वप्न ही सताते हैं.. शायद इसीलिये लोग स्वप्नों से बचना चाहते हैं.. और ऐसे ही लोगों को राहत देने के लिये आयुर्वेद में स्वप्न न आने के लिये औषधियां भी सोच रखी हैं..
पर ये तो दुनिया है सब लोग एक जैसे कहां होते हैं.. अगर सभी लोग ऐसे हो गये तो स्वप्नदृष्टा और स्वप्नदर्शी जैसे लोगों का क्या होगा...जो रजोगुण प्रबल होते हैं इन लोगों के लिये भाषा को दिवास्वप्न जैसा शब्द ईजाद करना पड़ा... ये लोग स्वप्न देखने के लिये नींद के मोह्ताज नहीं होते.. और नींद के वक़्त देखे गये स्वप्नों की मनमानी से भी मुक्ति हासिल कर लेते है...खुली आँखों से स्वप्न देख सकते है.. जो चाहे वो देखते हैं.. मैंने मैदान मार लिया है.. मैं अमेरिका का प्रेसीडेन्ट हो गया हूं.. आदि आदि.. जैसे जिसके अरमान.. वैसी दुनिया वह अपनी पलकों पर बसा लेता है.. और बिना पलक झपकाये मज़ा लूटता जाता है...इन्ही वीरों मे कुछ महावीर भी होते हैं.. जो एक ही स्वप्न को बार बार देखते जाते हैं और जब नही देख रहे होते हैं.. तो उसे दूसरों को दिखाने के लिये, सच बनाने के लिये अपने आस पास कि दुनिया बदलते जाते हैं.. और दुनिया का क्या है.. वो तो महर्षियों ने कहा ही है.. वो तो माया है.. बदलने के लिये तैयार ही बैठी है.. आप नही बदलोगे तो अपने आप बदल जायेगी। उसके इसी चरित्र की वजह से मनोवैज्ञानिक हमेशा घनचक्कर बने रहते हैं.. कन्ट्रोल ग्रुप और वैरिएबल ग्रुप के तमाम ताम झाम फैलाने बाद भी उन्हे कुछ समझ नही आता कि क्या बदलने से क्या बदल जाता है.. पर उनकी दुकान चलती रहती है..
पर ये ठीक ठीक तय कर पाना लगभग असम्भव है कि यदि आदमी हाथ पर हाथ दिये बैठा रहे तो भी क्या वही सब कुछ होगा जो तमाम जोर आजमाईश करने के बाद होता है.. भाग्य प्रबल है या पुरुषार्थ.. अगर कोई ऐसा आदमी मिल जाय जिसकी जन्मकुन्डली तो एकदम दो कौड़ी की हो पर जीवन मे उपलब्धियों का अम्बार लगा हो.. तो गुत्थी सुलझ जाय... मगर नहीं मिलता.. माओ-मार्क्स जैसे धुर भौतिकवादी भी भाग्य के बड़े प्रबल चक्र ले कर अवतरित हुये थे.. यहां तक कि भगवान रामचन्द्र जी को भी जन्म लेने के लिये सारे ग्रहों के उच्च होने का इन्तज़ार करना पड़ा.. मनु और शतरुपा को वरदान तो उन्होने सतयुग मे ही दे दिया था पर त्रेता तक बैठाये रखा
तो क्या है मनुष्य के वश मे.. एक नींद तो क़ायदे की अपनी मर्जी से ले नही सकता.. आँख बन्द कर के आदमी बाहर के दृश्य से आज़ाद तो हो सकता है.. पर भीतर की संसार मे जकड़ा रहता है.. जो बाहर से अन्दर आया है या अन्दर से बाहर प्रक्षेपित है.. पता नहीं..(स्वप्न देखने पर आँख को नाचते पाया जाता है) ..कितना अच्छा होता कि जैसे नींद आने पर हम बन्द आँखों के पीछे, तात्कालिक तौर पर, बाहर से मुक्त हो जाते हैं.. वैसे ही आँख खोलकर हम भीतर की क़ैद से भी छूट जाते .. भीतर क्या कोई कम राक्षस हैं ।
2 टिप्पणियां:
kisi ne kaha hai NEEND TO DARD KE BISTAR PE BHI AA SAKTI HAI !! USKE AAGHOSH MEIN SAR HO YE ZAROORI TO NAHI !!........YE AAPKE IS SANDARBH PAR THEEK TO NAHI BAITH RAHA KUCHH TO MAIN KAHNA CHAH RAHA THA
vimal verma
ये आंख बंद करके करवटें बदलने वाला तो मेरे साथ भी बहुत होता है।
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