आस्तिक.. संस्कृत के अस्ति से निकल रहा है.. अस्ति माने है.. अस्ति जो फ़ारसी मे अस्त है.. और जो कालान्तर में अस्ति से अहै हुआ कहीं छे या छई हुआ... खड़ी बोली में है बन के है। एक और प्यारा शब्द अस्तित्त्व भी इसी अस्ति से निकलता है। तो आस्तिक वो है जो किसी वस्तु के अस्तित्त्व की मौजूदगी की स्वीकृति करता है..मेज़ है.. कुर्सी है....प्रेम है..भलाई है.. और जो चीज़ों के अस्तित्त्व को नकारे वो नास्तिक। मेरे बहुत से मित्र इस बात को भी नकारेंगे.. ये परिभाषा नहीं है। उन्हे नकारने की आदत पड़ गई है.. लेकिन वो इस बात को भी नकारेंगे। मैं मानता हूं कि आज के सन्दर्भों में उन्ही की परिभाषा सही है। जो ईश्वर के अस्तित्त्व को माने वो आस्तिक और जो नकारे वो नास्तिक। मैं सिर्फ़ बात को एक कोण तक ले जाना चाहता था।
संतों का मत है कि स्वीकार में अपने प्रकार की सरलता है और नकार में एक तरह की हिंसा .. ध्वनियों का अपना विज्ञान होता है और अलग अलग ध्वनियां भीतर की ऊर्जा पर अलग अलग प्रभाव डालती हैं.. नहीं कहते हुये शरीर का ताप चढ़ता है.. और हाँ के साथ शरीर शीतल होता है.. सुखमय होता है। मुझे नहीं मालूम मगर सुना है पढ़ा है कि सारे सन्त लोग बड़े मजे मे रहते हैं.. कहीं कठौती मे गंगा बहा रहे हैं.. कहीं लंगोटी में फाग खेल रहे हैं।
कहते हैं कि जब मनुष्य ने एरोप्लेन नहीं बनाया था तो भी उसके लिये सारी ज़मीन तैयार थी.. विज्ञान मौजूद था.. दस बीस हज़ार साल पहले भी.. मगर उस विज्ञान को आदमी ने अपनी समझ के दायरे मे बन्द नहीं किया था। उस समय ऐसे किसी भी व्यक्ति पर हँसना तर्कसंगत लगता जो आकाश मे उड़ने वाले किसी विमान की कल्पना करता। आज हम उस पर हँसते हैं जो विमान देख कर मुँह बा देता है। और मज़े की बात ये है.. जो मनुष्य ने रो धो कर बड़ी मशक्कत के बाद हासिल किया वो विज्ञान छोटे बड़े पंछी आदिकाल से अपने पंखों मे दबाये उड़ रहे हैं..
मैने कई दफ़े ज्ञानी लोगों को कहते सुना है कि आदमी की कल्पना वहीं तक जाती है जहाँ तक उसकी सम्भावना..एक तरह से देखने पर ऐसा लगेगा कि आदमी की सम्भावनायें अनन्त हैं मगर दूसरे शब्दो मे इसे ऐसे भी कहा जा सकता है कि आदमी सिर्फ़ उतने की ही कल्पना कर सकता है जो उसकी सम्भावना के दायरे मे है..
और अपनी मूल बात पर वापस लौटते हुए यदि ईश्वर वीश्वर कुछ नहीं है ये तो सिर्फ़ आदमी के भीतर की असुरक्षा है.. कमज़ोरी है.. भय है और आदमी ईश्वर की कल्पना ही कर रहा है तो उसको भी आदमी तमाम मशक्कत के बाद एक रोज़ पा ही लेगा जिसको कि शायद गाय भैंस और पंछी आदि सहज ही पाये बैठे हैं।
3 टिप्पणियां:
"कभी शान्त मन से बैठ कर सिर्फ़ दो शब्द कह कर अपने भीतर की ऊर्जा पर गौर फ़र्माइयेगा.. नहीं कहते हुये शरीर का ताप चढ़ता है.. और हाँ के साथ शरीर शीतल होता है.. सुखमय होता है।"
वाह वाह क्या कमाल की बात कही आपने। एकदम सत्य।
कोष्टक में नीचे कहीं जोड दो कि लोग परिवार के साथ बैठकर इसका पाठ करें. ज्यादा सुख प्राप्ति होगी.
ऐसी वाणी को अब पॉडकास्ट की ज़रुरत है. तकनीकी जानकारों की मदद लो कि ऐसे वचनों का सस्वर पाठ कैसे चढाया जाये.
अलबत्ता मैं इस प्रात: बेला में आगे-पीछे होता द्वंद्वात्मक चिंतन में उलझ गया हूं- कि इसकी गूढता को सरल होकर समझूं, कि सरलता को गूढ होकर. आगे-पीछे हो रहा हूं. लगता है पूरी सुबह इसमें खराब होनेवाली है.
-प्रमोद सिंह
is lekh ko sabhi vaampanthiyon ko mail kar dijiye...
ye bhi vaigyanik vichaar hai... jise physics chemistry biology ki tarah siddh to nahi kiyaa jaa sakta lekin mehsoos kiya aur khojaa jaa sakta hai.
mai in dino nirbhaytaa ko khojate khojate kahin ishwar na khoj baithun...
is baat ko koi kavi hriday hi samajh sakataa hai...
farid
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