मूल संख्याएं सिर्फ तीन हैं। एक दो और तीन। बाकी सारी संख्याएं इनका विस्तार हैं। पहले कुछ नहीं था। केवल शून्य। ख़ालीपन। ख़ला। फिर उस ख़ला में अपने होने का एहसास जागा। आस्तित्व का बोध हुआ। इस बोध के आते ही वो एक हो गया।
पर एक अकेला था। उसे अपनी पहचान न थी। वो स्वयं को जानना चाहता था। मैं कौन हूँ? मगर बिना विलोम की उपस्थिति के किसी शै को जाना नहीं जा सकता। मीठे को समझने के लिए कड़वे को जानना ज़रुरी है। सारा ज्ञान द्वैतात्मक है।
इस कारण वो एक फटकर दो हो गया। वो एक ही थे, पर दो हो गए। एक दूसरे का विलोम। विलोम होने से उनमें संघर्ष हुआ। टकराहट हुई। जिससे तीसरे का जनम हुआ। पर ये कोई एक तीसरा न था। यह कई तीसरे थे। अनगिनत। असंख्य। अनन्त। तीसरा अंक बहुलता का सूचक है। वन इज़ अलोन, टू इज़ कम्पनी, थ्री इज़ अ क्राउड। एकवचन, द्विवचन, और बहुवचन। बस यही तीन संख्याएं हैं जगत में।
ये क्रम उलटा भी चलता है- बताया गया है। इसके लिए असंख्य तीसरे को समेट कर दो में केन्द्रित किया जाता है। और वे दो, इस ज्ञान के साथ कि वे दरअसल उस मौलिक एक की उपज हैं, एक दूजे में समाहित हो जाना चाहते हैं। इसे इश्क़ कहा गया है।
जैसे ही इश्क़ को ये वस्ल हासिल होता है। दुई फ़ना हो जाती है। एक की मौलिक सत्ता स्थापित हो जाती है।
एक होते ही ज्ञान शून्य हो जाता है। और एक होते ही वापस लौट आता है- वही अकेलापन! और फिर लौटती है अपने होने के एहसास के प्रति शंका। मैं हूँ अथवा नहीं हूँ? इस तरह वो एक, 'मैं अकेला हूँ' के अस्तित्व भाव से जब 'मैं कुछ भी नहीं हूँ' के अनस्तित्व भाव में चला जाता है। तो वो एक से शून्य हो जाता है।
इस तरह से चार संख्याएं हो जाती हैं- एक, दो, तीन और शून्य। पर वास्तव में तीन ही हैं। क्योंकि एक और शून्य में कोई अन्तर नहीं। वो कभी एक है और कभी एक भी नहीं है।
2 टिप्पणियां:
लगता है जैसे पूरे सार के लिए जितने शब्दों की आवश्यकता थी उससे एक भी ज्यादा नहीं लिया गया.
कमाल है, सब कुछ काफी सारगर्भित शब्दों में समझा दिया गया, बहुत बहुत बहुत ही शानदार है ये लेख.
मैं यही बात कहने के लिए शायद कई पन्ने भर लेता फिर भी किसी को नहीं समझा पाता न, खुद समझ पाता न कभी किसी को समझा पाता, न शब्द ढूंढ पाता.
मुझे तो लगता है कि मैं शून्य हूँ, जितना आगे बढ़ता हूँ उतना पीछे चला जाता हूँ।
एक टिप्पणी भेजें